आम आदमी से लोकतंत्र को खतरा

आज एक व्याख्यान में शामिल हुआ था. वक्ता ने एक महत्वपूर्ण बात की – यद्यपि लोकतंत्र लोगों के द्वारा, लोगों के लिए, लोगों की सरकार है; यह आम आदमी ही है जो लोकतंत्र के लिए खतरा बनकर उभरता है. यह आम आदमी ही है जो लोकतंत्र की आत्मा को मारने का भी काम करता है. बात अटपटी सी लग सकती है. इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण बात कि आज आम आदमी के विरुद्ध बोलना खतरे से खाली नहीं. लेकिन ध्यान से देखने पर आम आदमी की दानवी शक्ति का सहज अंदाजा लगता है. यह आम आदमी ही है जो तमाम तरह की पशुता, धर्मान्धता, नफरत, खून-खराबे को बल देता है. आम आदमी के इस भयानक रूप को स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल जरुर है लेकिन जब उस वक्ता को सुन रहा था अनायास ही विल्हेम रेक की किताब लिसन, लिटिल मैन (Listen, Little Man) का ख्याल आया. नवंबर 2014 में इस किताब को कागज़ पर उतारा था, उसे यहाँ दुहरा रहा हूँ. 

सालों पहले भगवान श्री रजनीश (ओशो) ने एक किताब का जिक्र किया था –
     “यह एक अजीब किताब है. उसे कोई नहीं पढ़ता. तुमने शायद उसका नाम भी न सुना हो, हालांकि यह अमेरिका में ही लिखी गई है. किताब है : ‘लिसन, लिटिल मैन’; लेखक : विलहेम रेक. बड़ी छोटी सी किताब है लेकिन वह ‘सर्मन ऑन दि माउंट’, ‘ताओ तेह किंग’, ‘दस स्पेस ज़रथुस्त्र’, ‘दि प्रॉफेट’ इनकी याद दिलाती है......... ‘लिसन, लिटिल मैन’ ने रेक के प्रति बहुत दुश्मनी पैदा की – ख़ास कर व्यावसायिक मनस चिकित्सकों के बीच जो कि उसके सहयोगी थे क्योंकि वह हर किसी को ‘लिटिल मैन’, छोटा आदमी कह रहा था.
     यह किताब उसके अहंकार से पैदा नहीं हुई. वह विवश था, उसे लिखना पड़ा. यह ऐसे ही है जैसे स्त्री गर्भवती हो तो उसे बच्चे को जन्म देना ही पड़ता है. इस छोटी सी किताब को वह वर्षों तक अपने भीतर सम्हाले रहा. उसे लिखने के ख्याल को दबाता रहा क्योंकि वह भलीभांति जानता था कि वह उसके लिए तूफान खड़ा करनेवाली है. और वैसा ही हुआ.
     इस किताब के बाद सब तरफ से उसकी भर्त्सना हुई. इस संसार में किसी भी महान चीज का सृजन करना अपराध है. आदमी जरा भी नहीं बदला है. सुकरात ....... उसने मार डाला. रेक...... उसने मार डाला. कोई परिवर्तन नहीं. उन्होंने रेक को पागल करार दे दिया और उसे जेल में डाल दिया. वह वैसा ही सजा भुगतते हुए, पागलपन का लेबिल माथे पर लगाकर जेल में मर गया. बादलों के पार उठने की उसकी क्षमता थी लेकिन उसे उठने नहीं दिया गया. सुकरात, जीसस, बुद्ध जैसे लोगों के साथ जीना अभी अमेरिका को सीखना है.”

मात्र 128 पृष्ठों की छोटी सी किताब या बड़वानल ! बड़वानल की उपमा पर भी आपत्ति हो सकती है क्योंकि बड़वानल उस आग को कहते हैं जो समुद्र के अंदर जलती हुई मानी जाती है. ‘जाग्रत ज्वालामुखी’ शायद अधिक उपयुक्त उपमा हो सकती है. किताब का आरंभ ही आग की बारिश से होता है –
      “वे कहते हैं कि ‘यह दौर आम आदमी का है.’ ये बात तुम नहीं ‘वे’ कहते है. ‘वे’ कौन ? 
तुम्हारे प्रतिनधि, तुम्हारे दार्शनिक, तुम्हारे राष्ट्रपति ऐसा कहते हैं, तुम नहीं क्योंकि तुम ‘छोटे आदमी’ हो, एक आम आदमी !

छोटे आदमी ! तुम स्वयं को देखने से डरते हो, तुम अपनी आलोचनाओं से सदा भयभीत रहते हो. इतना ही नहीं तुम अपने उस सामर्थ्य से भी भयभीत रहते हो जिसके तुम हक़दार हो क्योंकि तुम्हे पता ही नहीं कि तुम्हारे इस सामर्थ्य का क्या उपयोग हो सकता है. बस इसीलिए तुम स्वयं के बारे में सोचने मात्र से डरते हो और तुम्हें सदा एक नेता की जरुरत होती है. तुम कई ग़लतफ़हमियों के साथ जीते हो और तुम्हें अपने बारे में तमाम ग़लतफ़हमियाँ होती हैं लेकिन मैं तुम्हें बताता हूँ कि तुम कौन हो ?

.....तुम महान व्यक्ति से केवल एक अर्थ में भिन्न हो – महान आदमी भी कभी तुम्हारी तरह एक बहुत छोटा आदमी था लेकिन उसने अपने अंदर एक महत्वपूर्ण गुण विकसित की. उसने अपने घटियापन और अंदर की संकीर्णता को पहचाना. अपनी क्षुद्रता को पहचान उसने अपने को परिवर्तित किया. दूसरे शब्दों में, एक महान आदमी को उसकी क्षुद्रता की खबर होती है, वह अपने अंदर की संकीर्णता को देख सकता है जबकि एक छोटे आदमी को पता ही नहीं होता कि वह नितांत छोटा आदमी है और उसमें अपना छोटापन जानने का साहस भी नहीं होता. इसीलिए वह अपनी क्षुद्रता और बौनेपन को छुपाने के लिए महानता व शक्ति का भ्रम पैदा करता है. उसे अपने महान नेताओं और सेनापतियों पर बड़ा गर्व होता है लेकिन अपने आप पर ?
छोटा आदमी जितना कम समझता है उतना ही उसका विश्वास गहरा होता है. ........ छोटा आदमी अपने बारे में सच सुनना ही नहीं चाहता......
छोटे आदमी ! तुम छोटे आदमी हो और तुम हमेशा छोटे ही बने रहना चाहते हो.

सालों तक मैं समझ नहीं पाया कि तुम क्षुद्रता की दलदल से बाहर निकले की बजाय उसमें और गहरे कैसे डूबते चले जाते हो जबकि तुम इस दलदल से बाहर निकलने की पुरजोर कोशिश करते रहते हो.”

बगैर किसी लाग लपेट के अपनी बात को कह पाना कितना दुरूह होता है लेकिन विलहेम रेक इस किताब में जिस सहजता से आम आदमी के पाखंडी चरित्र की भर्त्सना करता है – वह अचंभे में डालता है. आदमी के चेहरों को परत दर परत वह जिस तरीके से उतारता है, उसे बर्दाश्त करना मुश्किल होता है. आगे वह कहता है –

“तुम्हें लगता है कि तुम्हारी दासता के लिये कोई और जिम्मेदार है. कोई और तुम्हारा उत्पीड़न या शोषण कर रहा है जबकि तुम्हारी दासता के लिये तुम्हे छोड़ कोई और जिम्मेदार नहीं. तुम और केवल तुम अपनी स्थिति के लिए जिम्मेदार हो. इसका कारण है कि छोटा आदमी कोई जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता. वह कोई भी महान जिम्मेदारी लेने से बचता है. वह सदा ‘छोटा’ ही बना रहना चाहता है, हद से हद वह थोड़ा बड़ा होना चाहता है. हद से हद वह चाहता है – धनी होना या राजनीतिक पार्टी का नेता होना लेकिन वह कभी भी अपनी और अपने कृत्यों की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता.

इतना ही नहीं छोटा आदमी कभी भी अपने बारे में सच नहीं सुन सकता ...”

विलहेम रेक एक महान व्यक्ति की दुविधा और सदियों से महान व्यक्ति के साथ घटी दुर्घटना का जिक्र खुबसूरती से करता है. महान व्यक्ति सालों के परिश्रम के पश्चात आम आदमी को मुक्ति के राह सुझाता है लेकिन आम आदमी अपनी मुक्ति की जगह उसे पूजने लगता है और अंततः महान आदमी की सारी मेहनत व्यर्थ चली जाती है. आम आदमी के बीच के तथाकथित बड़े आदमी उस महान आदमी के इर्द गिर्द एक आभा मंडल बनाते हैं और देखते ही देखते वह महान व्यक्ति आम आदमी की पहुँच से परे हो जाता है. छोटे आदमी की भेड़ मानसिकता के आगे महान आदमी की सारी महानता, उसकी सादगी, उसका साहस, सारी सच्चाई किस तरह मिट्टी में मिलती है – रेक इसका चित्रण बड़े बेबाक तरीके से करता है.

एक तरफ भेड़ मानसिकता महान व्यक्ति के नेक प्रयासों की बलि ले लेती है तो दूसरी ओर छोटे आदमी की भीड़ जिसे अपना नेता चुनती है वही नेता किस तरह लोगों को दास बनाता है – इसकी चर्चा रेक अपने अंदाज में करता है –

“वे तुम्हें विविध तरीकों से ये समझाते हैं कि तुम और तुम्हारी जिंदगी, तुम्हारे बच्चे और परिवार – इनका कोई मोल नहीं. वे तुमसे व्यैक्तिक स्वतंत्रता की जगह राष्ट्रीय स्वतंत्रता का वायदा करते हैं. हर मोड़ पर तुम्हारे स्वाभिमान, तुम्हारे ‘सेल्फ रेस्पेक्ट’ को बुरे तरीके से आहत करने के बाद अपेक्षा रहती है कि तुम राष्ट्र और राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करोगे. वे कभी भी व्यक्तिगत महानता को तरजीह नहीं देते. इस स्थिति के लिए भी तुम और केवल तुम ही जिम्मेदार हो.”

रेक आम आदमी का बारीक मनोविश्लेषण करते हुए तह तक जाता है और दो विरोधाभास पाता है. एक तरफ आम आदमी के अंदर स्वयं से घृणा करने की प्रवृत्ति गहरे तक बैठी होती है तो दूसरी ओर उसमें अपने बारे में जरा सी आलोचना या सच सुनने का साहस नहीं होता. इस विरोधाभास को समझा जा सकता है – आदमी बचपन से ही अपनी निजता, अपनी व्यक्तिगत आज़ादी की वजह से इस कदर अपमानित होता है कि उसे अपने आप से ही डर लगने लगता है. वह अंदर से इतना भयभीत होता है स्वयं कोई भी निर्णय लेना उसके लिये असंभव होता है. इसी भय की वजह से उसे हमेशा एक मसीहा की तलाश होती है जिसके साये में वह सुरक्षित महसूस कर सके. साथ ही चूँकि वह अपने आप से डरा होता है, अगर कोई उसके बारे में कुछ ऐसा कहता है जिससे उसका अपने आप से सामना हो, एक डरे जंगली जानवर की भांति हिंसक हो उठता है. रेक एक जगह कहता है

“चूँकि तुम्हारे लिये व्यैक्तिक स्वतंत्रता व व्यैक्तिक महानता का मोल नहीं होता, राष्ट्रीय स्वतंत्रता व राष्ट्रीय प्रतीकों के नाम पर तुम्हारी सोच उसी तरह पनिया उठती है जैसे माँस की हड्डी को देख कुत्ते के मुँह में पानी आ जाता है और तुम ‘जिंदाबाद – जिंदाबाद’ का नारा लगाने लगते हो. वे तुम्हारी कमजोरी को भलीभांति जानते हैं और उन्होंने सदा से तुम्हें कभी राष्ट्र के नाम पर, कभी कुछ बेवकूफाना प्रतीकों के नाम कुर्बान किया है. तुम उन्हें अपना गाइड, मसीहा समझते हो और उनकी शान में हर घड़ी नारा लगाने के लिये उद्दत रहते हो जबकि वे तुम्हें जिल्लत भरी निगाहों से देखते हैं और साफ़ – साफ ऐलान करते हैं कि तुम किसी काम के नहीं.”

भीड़ व समूह को सिरे से नकारते हुए रेक कुछ अपने बारे में कहता है –

      “मैं न तो गोरा हूँ न काला, न तो लाल न पीला !
      मैं न तो ईसाई हूँ, न यहूदी, न मुसलमान !
      ............ मेरी अपनी एक सोच है और मैं सच व झूठ के बीच के अंतर को जानता हूँ.”

आम आदमी की इतनी भर्त्सना पर एतराज लाजिमी है लेकिन ध्यान से विचार करने पर पता चलता है कि प्रत्येक भर्त्सना के पीछे रेक का एक दर्द छुपा है और यह दर्द है – होश में होने का, आँखों से देख पाने की क्षमता का. बचपन में पढ़ी गुलीवर की कहानी प्रासंगिक हो जाती है. गुलीवर अंधों की दुनिया में चला जाता है, जहाँ उसे एक अंधी लड़की से प्यार होता है. लेकिन अंधो की पूरी दुनिया गुलीवर को पागल समझती है क्योंकि वह बेसिरपैर की बात करता, कभी वह खुबसूरत रंगों की बात करता तो कभी चाँद - सूरज की आभा का जिक्र करता. वह हरे, लाल, काले पीले रंगों, इन्द्रधनुष की बात करता जो अंधों की समझ से परे होता. अंततः अंधों का राजा गुलीवर के पागलपन की जाँच हेतु एक मेडिकल बोर्ड का गठन करता है और मेडिकल बोर्ड गुलीवर के शरीर की जाँच के पश्चात अपनी रिपोर्ट में कहता है कि इस व्यक्ति के चेहरे पर दो कोमल अंग हैं जिसमें कुछ तरल भरा है. इन्हीं दो अंगों की वजह से गुलीवर बदहवास रहता है, इन दो अंगों को निकल देने के बाद गुलीवर बिल्कुल सामान्य हो जायेगा. रेक चीखता है –

      “छोटे आदमी ! मैं तुमसे भयभीत हूँ; बहुत ही भयभीत !”

रेक अवचेतन को बड़ी बेरहमी से बेपर्दा करता है –

      “तुम कभी भी अपने आप से नहीं पूछते कि क्या सही है या गलत. तुम सदा यही सोचते हो कि पड़ोसी क्या कहेंगे, दुनिया क्या कहेगी...”

      “तुम्हें कभी भरोसा नहीं होता कि तुम्हारा कोई मित्र कभी महान भी हो सकता है. इसका कारण बस इतना है कि चूँकि तुम्हारी नजर में तुम स्वयं एक घटिया व्यक्ति हो, तुम भला अपने मित्र की कद्र कैसे कर सकते हो. तुम्हें कभी यकीन ही नहीं होता कि वह व्यक्ति जो तुम्हारे साथ हँसी – मजाक कर रहा था, तुम्हारे संग चाय – नाश्ता कर रहा था, इतना महान भी हो सकता है, क्या ?”  

            अगर तुम न्यायाधीश हो तो तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या होता है ? न्याय को स्थापित करना या कुछ और ? तुम सदा एक चर्चित मुक़दमे की तलाश में रहते हो ताकि तुम्हारी पदोन्नति हो सके. पदोन्नति की इस चाहत को पूरा करने के लिए तुम लगातार न्याय की हत्या करने लगते हो. सदियों पहले तुमनें सुकरात की हत्या की थी, लेकिन इतिहास से तुमनें कुछ नहीं सीखा. तुम आज भी वही कर रहे हो. आज भी क़ानून व व्यवस्था के नाम पर केवल हत्या ही कर रहे हो.”

      “तुम सोचते हो तुम ‘आम आदमी’ हो लेकिन नहीं, तुम एक छोटे आदमी हो. तुम्हें कभी भी आम आदमी की चिंता नहीं होती, होती है तो केवल पदोन्नति की चिंता. जब तुम हजारों स्त्री – पुरुष व बच्चों को गैस चैम्बर में धकेलते हो तो तुम केवल एक ऑर्डर का अनुपालन कर रहे होते हो – ऐसा है न ! तुम यही सोचते हो, न ! लेकिन क्या वास्तव में तुम इतने मासूम होते हो ? सोचना ! तुम निहायत ही कायर व दुष्ट हो. तुम्हें तुम्हारे सही दायित्वों का अहसास ही नहीं कि तुम्हें एक इंसान बनना है और इंसानियत को बचाये रखना ही तुम्हारी सही जिम्मेदारी है.”

      “भारत के लाखों – करोड़ों छोटे लोग ! तुम्हें दो जून की रोटी नहीं मिलती और तुम भूख से मर रहे हो. इसके लिए लड़ने की बजाय तुम अपनी पवित्र गाय के लिए अपने साथ के मुसलमानों से लड़ते हो.”  

      “तुमनें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कितना गलत मतलब निकाला ! तुम्हें दूसरों की खिल्ली उड़ाने का हक मिल गया. मजेदार बात है कि तुम औरों की खिल्ली उड़ाना चाहते हो लेकिन कभी भी अपनी सार्थक आलोचना सुनने को राजी नहीं होते.”

      “तुम्हारे सोचने का दायरा कितना संकीर्ण होता है ! तुम न तो आगे देख पाते हो न पीछे. इसी के साथ तुम कितनी जल्दी भूल जाते हो ! बस इसीलिए, तुम उन्हीं गलतियों को दुहराते रहते हो जो दो हजार साल पहले भी करते थे.”

तमाम भर्त्सनाओं के बावजूद अभी भी आशा की किरण शेष है. रेक कहता है –

      “छोटे आदमी ! तुम्हारे अंदर छुपी तुम्हारी महानता ही इंसानियत के लिए आशा की एक किरण है. अपनी क्षुद्रता और घटियापन छोड़ते के साथ ही तुम महान हो सकते हो. बस इसीलिये तुम यह सोचना बंद करो कि ‘तुम कुछ नहीं हो’.”      

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