बा ! संतरा केवल आप ही खाइयेगा !
बागडोगरा के लिए उड़ान भरने वाली फ्लाइट के इंतजार
में कोलकाता एअरपोर्ट पर बैठा हूँ. कल रविवार है और टीकाचक के लिए कुछ लिख नहीं
पाया हूँ. कौन पढ़ रहा है, मालूम नहीं लेकिन खूब लिखा जा रहा है; कौन सुन रहा है – पता नहीं लेकिन लोग बोल रहे
हैं. बहुत बोल रहे हैं और न जाने क्या-क्या बोल दे रहे हैं. तो बहुत लिखने व बहुत
बोलने के दौर में बगैर कुछ बोले, चुपचाप – बस पढ़ने का मन हो रहा है. तो फिर से एकबार पढ़ रहा हूँ उसके बारे
में जिसके बारे में खूब लिखा गया है और आज भी लिखा जा रहा है.
भारत वापसी के बाद वह पूरे देश की ख़ाक छान रहा था
– मुँह बंद किये लेकिन आँख व कान खोले हुए. ऐसे में उसे बनारस में हिन्दू कॉलेज
(जो आगे चल कर बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी कहलाया) के उद्घाटन समारोह में बोलने के
लिए बुलाया गया. जिसमें वायसराय समेत कई राजा-महाराजा शामिल थे. राजा-महाराजाओं ने
इस कॉलेज के निर्माण में भारी चंदा दिया था, इसलिये इस समारोह में उन्हें वीवीआईपी ट्रीटमेंट
मिलना बिल्कुल स्वाभाविक था. वैसे भी वे थे तो राजा-महाराजा ही न - सोने-हीरे के
आभूषणों से लदे हुए. महिमामंडन के उस समारोह में साधारण से दिखने वाले उस व्यक्ति ने जब
बोलना आरंभ किया तो सभी अतिसंभ्रांत लोग असहज होने लगे और अव्यवस्था फैलने लगी.
उसने सीधे-सीधे कटाक्ष किया –
“जब भारत दरिद्रता से जूझ रहा है, राजा-महाराजाओं का ऐसा बेशर्मी भरा प्रदर्शन ?? भारत तब तक मुक्त नहीं हो सकता जब तक ये
राजा-महाराजा अपने जेबरात निर्धनों के पक्ष में उतार नहीं देते.....”
समारोह की गरिमा भंग हो चुकी थी या कहें तो कबाड़ा
हो गया था. लेकिन साधारण सा दिखने वाला वह व्यक्ति अपनी रौ में था. राजा व राजकुमार
एक-एक कर उठ कर जाने लगे. सबकुछ बिगड़ता देख अंततः मेजबान व कॉलेज की सहसंस्थापक
एनी बेसेंट ने उस दुस्साहसी को रोका –
“स्टॉप !
प्लीज स्टॉप इट, गाँधी !”
कॉलेज के दूसरे सहसंस्थापक मदनमोहन मालवीय महाराजाओं
के पीछे भागे –
“महाराज ! मान जाइए महाराज, हमनें उन्हें चुप करा दिया है. आपलोग वापस आ
जाइये.”
लेकिन कोई वापस नहीं आया.
साधारण से दिखने वाले असाधारण ‘गाँधी’ पर रोली बुक्स के संस्थापक प्रमोद कपूर की हाल में छपी किताब को पढ़ना
अलग
अहसास से गुजरना है. वह इंसान जिसने दुनियाभर के लोगों को प्रभावित किया, जिसे महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने महात्मा कहा; सुभाषचंद्र बोस ने ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में संबोधित किया; अल्बर्ट आइंस्टीन ने महामानव कहते हुए कहा कि आने
वाली पीढ़ियाँ विश्वास नहीं करेंगी कि हाड़-मांस का ऐसा व्यक्ति कभी इस धरती पर था.
लेकिन इस महामानव के जीवन में कुछ गजब के
विरोधाभास हैं. प्रमोद कपूर की किताब में महात्मा गाँधी के बड़े पुत्र हरिलाल का
प्रसंग बड़ा मार्मिक है. पूरी दुनिया में गाँधी प्रेम, शांति व अहिंसा की बात करने वाले महात्मा के रूप
में स्थापित होते हैं लेकिन उनका बेटा जीवन भर बेहद दुखी रहा, डिप्रेशन में रहा. 28 वर्ष की उम्र में 31 मार्च
1915 को हरिलाल अपने पिता को पत्र लिखता है –
‘पूज्य पिताजी....
......... आपने कभी भी मुझे नहीं समझा. आपने हमारे
साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा सर्कस का रिंग मास्टर जंगली जानवर के साथ करता है.
रिंग मास्टर इस भ्रम में जी सकता है कि वह उन जंगली जानवरों का भला कर रहा है
क्योंकि उसने जानवरों को उनके जंगलीपने से मुक्ति दिलाई है. ठीक उसी तरह आपने हमें
प्रेम करने की जगह हमारे अंदर भय का संचार किया – हम हर घड़ी भयभीत रहे हैं, खाते-पीते, पढ़ते-लिखते, सोते-जागते हम आपके भय के साए में जीते रहे हैं.
.... यदि आपने हमारी भावनाओं को थोड़ा भी समझा होता तो जान पाते कि हम क्या चाहते थे....
काश आप हमें प्यार कर पाते ....लेकिन आपका ह्रदय तो वज्र के समान है.....
1906 में उन्नीस साल की उमर में मैं आपके आगे गिड़गिड़ा
रहा था – मेरी चाहत तो बड़ी छोटी थी. मैं क्या चाहता था - बस पढ़ना ! इंग्लैंड जा पढ़
कर अपने जीवन में कुछ करने की छोटी सी चाहत थी मेरी. इसके अतिरिक्त आपसे कुछ और तो
नहीं माँगा था..... लेकिन आपने मेरी एक नहीं सुनी क्योंकि आप जिद पर अड़े थे कि
चरित्र निर्माण से बढ़कर जीवन में कुछ और नहीं. लेकिन पिताजी, पेड़ एकबार बड़ा हो जाता है तो उसे कोई और रूप
नहीं दिया जा सकता. मेरा चरित्र अब नहीं बदल सकता....”
हरिलाल
की चिट्ठी आँखें नम करती हैं. महामानव के रूप में स्थापित पिता व उसके पुत्र के
बीच का यह रिश्ता किसी मनस्विद के लिए एक अच्छा विषय हो सकता है.
जीवनभर हरिलाल अपने पिता से बदला लेता रहा – वह
शराब पीता, शराब के नशे में
धुत इधर-उधर भटकता; इधर-उधर से पैसे
कर्ज पर लेता – औरतों पर लुटाता.... चरित्रनिर्माण के नाम पर जिस पिता ने उसे पढ़ाई
के लिए इंग्लैंड जाने से मना किया था, उस पिता से इससे अधिक क्या बदला लिया जा सकता था...
लेकिन वह हमेशा अपनी माँ के लिये एक शिशु के समान
तड़पता रहा...देशभर में पिता की जयजयकार हो रही थी और पुत्र शराब के नशे में
इधर-उधर मारा मारा फिर रहा था. ऐसे में कटनी रेलवे स्टेशन पर उसने एक जयकारे की
आवाज सुनी – ‘महात्मा गांधी की जय.’ वह दौड़ा और जोर से चिल्लाया – ‘कस्तूरबा माँ की जय.’
‘कस्तूरबा माँ की जय !!!’
अपना नाम सुन चौंक कर कस्तूरबा रेल से झाँकती हैं
– प्लेटफ़ॉर्म पर दयनीय हालत में खड़े पुत्र को देख वे फफ़क पड़ती हैं. माँ-बेटे की
नजर मिलती है; अधेड़ हो चला पुत्र
भी रो पड़ता है. अपने जेब से एक संतरा निकाल कर वह माँ को देता है –
‘बा, यह मैंने आपके लिए खरीदा है.’
पिता पूछता है कि क्या वह अपने पिता को कुछ नहीं
देगा. पुत्र कहता है –
‘नहीं; बिलकुल नहीं. यह केवल बा के लिए है और एक बात मैं साफ़-साफ़ कह दूँ
आपकी जो भी महानता है वह केवल और केवल बा के कारण है...’
रेल चल पड़ती है. महात्मा गाँधी की जयघोष के बीच माँ
को बेटे की आवाज सुनाई पड़ती है –
“बा ! संतरा केवल आप ही खाइयेगा !”
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