सामने से मेरे : चंद्रेश्वर
हम तो
बड़े सीधे-साधे लोग हैं. जमाना कितना बेईमान है. कितनी लूट-खसोट मची है. उनको
देखिये कितनी मौज में हैं. गाड़ी-बँगला, बैंक-बैलेंस कितना कुछ इकट्ठा कर लिया
साहब. कितनी शान में जी रहे हैं.
हमारे अंदर मौज में जीने की, गाड़ी-बँगले की
चाहत पलती रही और इस कारण बेईमानी की भी. लेकिन बेईमानी करने हेतु वांछित हिम्मत न
होने के कारण अंदर ही अंदर कुंठा बढ़ती चली गयी.
हम ईमानदारी की दुहाई देकर बेईमानों को
कोसते रहे और हमारी कुंठा, हीन-भावना बढ़ती रही.
हम बड़े उदार लोग हैं और वे कितने आतताई !
उनका आतंक बढ़ता जा रहा – इतना कि अब अपने अपने-आप को बचा पाना मुश्किल है. हमारा
संस्कार, हमारा धर्म कितना उदार है. इसके बरक्स वे ? वे फैलते जा रहे हैं और हम
सिकुड़ते जा रहे हैं.
उदारता की दुहाई देकर संकीर्णता को कोसते
रहे और हमारी कुंठा बढ़ती रही.

“कुछ अफवाहें लम्बे समय तक बनी रहती हैं
वे समय के घोड़े की पीठ पर सवारी करती हैं
अफवाहें बेचेहरा होती हैं किसी सुनामी से
कम नहीं होतीं
उनके गुजर जाने के बाद इंसान के बदले चीजें
बिखरी मिलती हैं”
चंद्रेश्वर आगाह करते हैं - अफवाहों से
नहीं बनता देश और सचेत करते हैं –
“अफवाहों के जरिये खेले जा रहे
गंदे सियासी खेल से
न तो देश बनता है
न बचता है
धर्म !”
लेकिन चिंता किसे है. हमनें अपनी कुंठा पर
विजय पाने का फैसला किया है और अपनी हीन-भावना को दूर करने के लिए उस राजा के पीछे
पागल हो चुके हैं जो हर घड़ी अपनी नाक के सवाल पर मरने-मारने की बात करता है.
‘सामने से मेरे’ में राजा जी का सिर दिखता है,
भुजाएँ दिखती हैं. साथ ही उनके दो कान भी हैं जो अक्सर बंद रहते हैं और खुलते हैं बस
अपनी तारीफ़ सुनने के लिए. राजा जी के दो आँखो का भी जिक्र आता है लेकिन नाक !!! राजा
जी के नाक की तो बात ही निराली है –
“राजा जी की एक ही नाक थी
पर नाक बेहद लंबी थी
राजा जी के राज में उठ खड़ा होता था
बात-बात पर नाक का सवाल
कई बार तो हो जाते थे दंगे-फसाद
कई बार तो आये अवसर ऐसे भी कि
कट गयी नाक राजा जी की
पर जैसे ही कटती एक
उग आती दूसरी उतनी ही लंबी
प्रजा थी अलमस्त
पक्की राजभक्त
रीझ उठती फिर
नकली नाक पर भी !
असल बात नाक की है और इसे भली-भांति हमें
याद रखना चाहिये. नाक नहीं तो जीने का कोई मतलब नहीं. लेकिन कुछ लोग भटक जाते हैं
और पूरे माहौल को कमजोर करने की खातिर जोर से चिल्लाने की असफल कोशिश करते हैं –
सोचो; अरे कुछ तो सोचो ! वे भटकाने की कोशिश करते हैं
इसलिए आवश्यक है कि आज के मंत्र का पाठ अनवरत जारी रहे –
“तुम रोटी के बारे में नहीं
सोचो तुम देश के बारे में
तुम सोचो और सिर्फ सोचो
अगर सोच सकते हो तो
देश के नक़्शे के बारे में
आरती उतारो उसकी
फटा सुथन्ना पहने
भूखे रहकर
दूखे रहकर भी
वर्ना तुम्हारी कर ली जायेगी शिनाख्त
एक देशद्रोही के बतौर !”
वैसे चंद्रेश्वर एक सुझाव भी देते हैं, जोखिम
लेने की जरुरत क्या है. वे इस खिचड़ी समय को नियंत्रित करने वाले का आश्वस्ति भरा पैगाम
देते हैं –
“तुम सोचना बंद कर दो, मैं
तुम्हें देवता बना दूँगा
तुम गऊ बन जाओ, मैं
तुम्हें माता बना लूँगा.”
यद्यपि यह समय दबंगों का है, दबंगई
का है; हीन-भावना से उबरने का है फिर भी कमजोरों की जुबान से इतनी घबराहट क्यों है, इतना
भय क्यों व्याप्त है कि सारे दबंग मिलकर जुटे हैं कमजोरों की जुबान को बंद या चुप
कराने के लिए. कुछ तो है कि खिचड़ी समय में पक रही खिचड़ी पच नहीं रही और अपच के
संभावित खतरे से दबंगों की घबराहट बढ़ती जा रही है.
Bahut achha !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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