झूठइ लेना झूठइ देना / झूठइ भोजन झूठ चबेना//
वह दिखता नहीं है. न दिखने के बावजूद
वह है और उसके होने मात्र की आशंका हमें डरा रही है. उसे देख पाने के लिए तकनीक की,
यंत्र
की, समझ की जरूरत पड़ती है. हमारे साथ होता रहता है यह सब कि होने के
बावजूद हमें नहीं दिख पाता क्योंकि हममें देख पाने के लिए आवश्यक क्षमता का विकास
नहीं होता.
नंगी आंखों से नहीं दिखने वाले
अतिसूक्ष्म जीव या कि विषाणु से बचने हेतु जब हमनें अपने-आपको कैद करने का फैसला
किया, लक्ष्मणरेखा न लाँघने की कसमें ली, तो शुरुआती
दिनों में ऐसा लगा कि हम कुछ-कुछ सोचने-विचारने लगे हैं. 'इबादतगाह में सन्नाटा' लिखते समय यह आशा थी कि खाली बैठा हुआ इंसान अपने अंदर एक तार्किक
दृष्टि विकसित करने की कोशिश करेगा क्योंकि शीघ्र ही सोशल डिस्टेंसिंग का सच हमें
दिखा था, जब न्यू इंडिया के हाईवे पर हजारों-लाखों बेबस भारतवासी अपने पूरे
परिवार के साथ निकल पड़े थे. हम विचलित होने लगे थे कि यह इंडिया और भारत के बीच
का डिस्टेंस है. हमने स्वीकारा यह डिस्टेंस ठीक नहीं है, हमें दूरी पाटने
की कोशिश करनी चाहिए. हमने महसूस करना शुरू किया कि सोशल डिस्टेंसिंग हमारे
सामाजिक जीवन का बेहद कड़वा यथार्थ है - हमारी कॉलोनी तो उनकी बस्ती, विकास
के उजले मोहल्ले तो गरीबी का स्याह स्लम; एक का मंदिर तो दूसरे का मस्जिद;
एक
का न्यू इंडिया तो दूसरे का पिछड़ा भारत. हमारे जीवन में सालों से व्यापत सोशल
डिस्टेंसिंग के पोल खोलने वाले नन्हे से वायरस ने अहसास कराया कि वह भेद नहीं करता
कि आप मंदिर जाते हैं कि मस्जिद, न्यू इंडिया के हैं या कि पिछड़े भारत
के. तो ख्याल आया कि दूर-दूर रहकर समाज की एकजुटता चाहिए, सोशल
डिस्टेंसिंग नहीं फिजिकल डिस्टेंसिंग चाहिए. फिजिकल डिस्टेंस को रखते हुए भी सोशल
डिस्टेंस को पाटने की जरूरत है.
कहने की जरूरत नहीं कि सोचने-समझने की
इस प्रक्रिया में सवालों का उठना लाजिमी
था, हम विचारने लगे कि कहाँ चूक रह गई और कहाँ अभी भी चूक हो रही है.
यकीनन सवाल रास नहीं आते तो इधर कुछ सालों में हमने अपने-आपको इस तरीके से
प्रशिक्षित किया है कि हम उनसे सवाल कदापि नहीं करेंगे, जिनकी
जिम्मेदारी बनती है. अनवरत जारी प्रशिक्षण के मुताबिक, हमें वही देखना
है, जो दिखाया जा रहा है; हमें उसी तरीके से सोचना है, जैसा
कहा जा रहा है. इसलिए ऐसी कोई परिस्थिति नहीं होनी चाहिए कि हम अपनी एक स्वतंत्र
दृष्टि विकसित कर सकें, तो आंखों के उन्मीलन की
संभावना मात्र बेचैन करती है और देखते-देखते हम सबको बेचैनी से बचाने के लिए अखिल
भारतीय मंच पर 'जमात' उतरता है. बस सब ठीक, सारे सवाल खत्म क्योंकि हमें अपनी
बेचैनियों का, सारे सवालों का जवाब मिल गया; अब तो पूरा का
पूरा जमात हमारे सामने था.
नेशनल सिलेबस से चंद रोज के भटकाव के
बाद ही सब कुछ पटरी पर आ गया. जानलेवा वायरस तो दिखता भी नहीं, लेकिन
गुजरे कुछ सालों के प्रशिक्षण से हमने जो दिव्य दृष्टि प्राप्त की है उससे साफ-साफ
दिखने लगा कि इस अवसर पर कौन हमारी जान लेना चाहता है, कौन हमारे भारत
को बर्बाद करना चाहता है; लिहाजा उसके खिलाफ जंग होने लगी. फैलने
लगे ढेरों वीडियो एवं न्यूज आइटम - सच की शक्ल में अफवाह व झूठ. कहते हैं, झूठ
के पांव नहीं होते, लेकिन इस दौर की सबसे बड़ी सच्चाई है कि झूठ ने चीते का पाँव धारण कर
लिया है और यह चीता कभी थकता नहीं; बगैर रुके, दौड़ता रह सकता
है लगातार. कुछेक हैं, जो झूठ के चीते से भिड़ने की कोशिश करते रहते हैं. वे करते हैं -
फैक्ट चेक ! लेकिन फैक्ट से किसे मतलब, फैक्ट कुछ भी हो; हमारे
पूर्वाग्रहों, धारणाओं के किले पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए. तो कुछ सनकी करते रहें,
फैक्ट
चेक ! क्या फर्क पड़ता है. सच वही है, जो हम मानते हैं; बस
इसीलिए जानना जरूरी नहीं है.
झूठ की इतनी जरूरत है क्या ? जरूरत
हो न हो, धीरे-धीरे यह स्वभाव में रच-बस जाता है; फिर एकबार
स्वभाव में शामिल होने के बाद औचित्य का कोई सवाल नहीं बचता. तुलसीकृत रामचरितमानस
के उत्तरकाण्ड में भगवान राम संत और असंत के स्वभाव की चर्चा करते हुए कहते हैं-
"झूठइ लेना झूठइ देना / झूठइ
भोजन झूठ चबेना//"
अब यदि झूठ ही चरित्र हो जाय, स्वभाव
हो जाए तब ? फिर धर्म ? भगवान राम उत्तरकाण्ड में ही आगे कहते
हैं, "पर हित सरिस धर्म नहिं भाई / पर पीड़ा सम नहिं अधमाई //" भगवान
राम धर्म के मर्म समझाते रहें, लेकिन हमारे समझने का एक तरीका है. हम
वही समझेंगे, जो हम चाहते हैं; जो हमारे स्वभाव के अनुकूल हो. ऐसे में
एक अलग ही धर्म पनपता है - जहालत का. जहालत का यह धर्म सार्वभौमिक है, पूरी
धरती पर फैला हुआ है. मंदिर जाने वाले हों, मस्जिद या गिरजा
जाने वाले हों; पढ़े-लिखे हों या निरक्षर; डॉक्टर हों या इंजीनियर; ब्यूरोक्रेट
हों या वकील; साहित्यकार-फिल्मकार हों या मीडियाकर्मी; राजनेता हों या
फिर शासनाध्यक्ष - सब मिलकर जहालत के धर्म के झंडाबरदार होते हैं और अलग-अलग समय
में, अलग-अलग ढंग से अपनी सुविधानुसार जहालत के इस धर्म को बढ़ावा देने
में लगे रहते हैं. एक गजब की प्रतिस्पर्धा होती है, इनके अनुयायियों
में - एक दूसरे को कोसते हुए, एक दूसरे को जाहिल कहते हुए वे जहालत
में एक-दूसरे को मात देने की कोशिश में निरंतर लगे रहते हैं. जैसे आजकल हम लगातार
पाकिस्तान को मात देने की कोशिश में लगे हुए हैं. उसी पाकिस्तान की मशहूर शायरा हुईं - फहमीदा रियाज. जिया उल हक के
शासनकाल में उन्हें पाकिस्तान से निर्वासन का सामना करना पड़ा और वे करीब 7 साल तक
भारत में रहीं.
जहालत की प्रतिस्पर्धा में सायरा
फहमीदा रियाज की कविता 'नया भारत' की याद आ जाती है -
"तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गँवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई ।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिन्दू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिन्दू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी-तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिन्दूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा !
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नज़र न आई ?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आई
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई ।
मश्क करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आए
बस, पीछे ही नज़र
जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना ।
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप-सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
'कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत'
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना ।"
यकीनन एक दिन हम खतरनाक, बेहद
खतरनाक वायरस से चल रही जंग को जीत लेंगे और जिंदगी फिर से एक बार खिलखिलाएगी;
लेकिन
दिमाग में बैठे जहालत के वायरस का अंत कब होगा, अंत होगा भी या
नहीं - मालूम नहीं.
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अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें.
बेहतरीन; काश यह आम लोगों को समझ में आ जाता.
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद
हटाएंExcellent. It's Eye opener
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद
हटाएंSir bahut acchha likha hai...regards
हटाएंधन्यवाद
हटाएंSir,
जवाब देंहटाएंIt's our reality that we never realised.
धन्यवाद सर
हटाएंJhooth ke paaoN cheete ke ho gaye haiN,waaqai..jahaalat se bahut lambi ladaai chalni hai balki antheen kahna theek hoga..umdah tahreer hai sir.. Shukriya.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अभिषेक जी
हटाएंबहुत बढ़िया। सामयिक लेख, सबके पढ़ने योग्य
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंविवेक को जगाने वाला लेख है। ऐसे लेखों की आवश्यकता बनी हुई है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंIT सेल के गड़बड़झाले से बचाव के लिए ऐसे blog बहुत महत्वपूर्ण है। तर्कों के स्थान पर तथ्यों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
जवाब देंहटाएं💐💐
हटाएं130 crore logon ke desh me yeh sambhav nahi ki sab ek jaisi rai rakhein, magar aajkal ki samasya ye hai ki koi dusra paksh ki baat sunna hi nahi chahta aur yahin se saari aafat shuru hoti hai. Aur aag me ghee dalta hua social media ka adhkachra gyan bhi bhayaawah roop le chuka hai.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंसर्,
जवाब देंहटाएंशानदार, सीधा, सरल।
मैं समझ नहीं पाता हूँ, कि इंसान इतनी सी बात समझने में सक्षम नहीं है कि आखिर क्यों न केवल मानव शरीर की संरचना अपितु बुनियादी आवश्यकताएं भी, अखिल विश्व के किसी भी कोने में समान है।
सादर
प्रखर
प्रखर जी, बेहतरीन प्रतिक्रिया। बिल्कुल सच कहा आपने कि इतनी सीधी, सरल बातें हमें समझ में क्यों नहीं आतीं।
हटाएंसादर
हमारे समझने का एक तरीका है. हम वही समझेंगे, जो हम चाहते हैं; जो हमारे स्वभाव के अनुकूल हो. ऐसे में एक अलग ही धर्म पनपता है - जहालत का. और हम अपनी समझ के अनुसार किसी को काफ़िर एवं किसी को जेहादी की संज्ञा दे देते हैं। तत्पश्चात् हमारा कर्म भी हमारे द्वारा समझे गए धर्म का अनुसरण करता है।
जवाब देंहटाएंसायरा फहमीदा रियाज भारत के अलावा इस ग्रह पर कहीं भी जातीं तो वहां भी उक्त कविता, जो कि उनके समझ के अनुसार ठीक है, लिखतीं।
प्रतिक्रिया के लिये धन्यवाद। जुड़े रहिएगा।
हटाएंसादर
सत्यता का बेवाक बखान! बधाई एवं नमन!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर। ब्लॉग अपलोड की नियमित सूचना पाने के लिए कृपया Subscribe करें।
हटाएंसादर