भगत सिंह को कितना जानते हैं ??

8 अप्रैल 1929 को असेम्बली हॉल में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बांटे गए पर्चे में एक पंक्ति थी–   
       व्यक्तियों की हत्या करना तो सरल है, किन्तु विचारों की हत्या नहीं की जा सकती.”

       लेकिन हम कमाल के बाजीगर लोग हैं. हम व्यक्ति विशेष को सदियों तक जिंदा रखने व उसके विचारों को आसानी से दफन करने का जादू जानते हैं. हमें ऐसा करने में बड़ी महारत हासिल है. व्यक्ति को जिंदा रखने का सबसे सरल उपाय है कि उस व्यक्ति विशेष की पूजा आरंभ कर दो और उसके विचारों को दफनाने का आसान तरीका है कि उसकी बातों/उसके विचारों को धर्म-ग्रंथ का दर्जा दे दो. इस तरह व्यक्ति देवदूत की भाति जीवित रहेगा लेकिन उसके विचार मर चुके होंगे, श्रद्धा के फूल व पवित्र अगरबत्ती की राख तले. लोगों को उसकी बातों से कोई मतलब नहीं होगा, हद से हद एकाध अधिक श्रद्धावान आदमी उसकी बातों को मंत्र अथवा आयत बनाकर, उन्हें बगैर समझे तोते की तरह दुहराता रहेगा.

       विचारों पर विचार करना होता है. उससे सहमत हुआ जा सकता है, उससे असहमत भी हुआ जा सकता है लेकिन धर्मग्रंथों अथवा देवदूत की बातों को तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश का दुस्साहस ? मार दिये जाओगे ! यकीन जानिये, तर्क की संभावना जीवित व्यक्ति से होती है, मुर्दों से नहीं. लेकिन हमें जीवित व्यक्ति से बड़ी समस्या होती है, वह हमारी मर्जी से नहीं चलता. बस इसीलिए हम मुर्दों को तरजीह देने लगते हैं. हमारी पूरी कोशिश रहती है कि ऐसे विचार जीवित न रहें, जिनमें क्रांति की संभावना हो. इस तरह की कोशिश चलती ही रहती है.

       भगत सिंह, ऐसे ही एक व्यक्ति का नाम है जिसके विचारों की परवाह किये बगैर उसे पूजे जाने का सिलसिला चल रहा है. हाल के सालों में ऐसे लोगों ने भगत सिंह के नाम का जाप करना आरंभ किया है जिनकी सोच, जिनके आचरण, जिनका इतिहास अथवा वर्तमान दूर-दूर तक भगत सिंह के विचारों से मेल नहीं खाता. मेल खाने की बात करना भी शायद ठीक नहीं. ये लोग ऐसी सोच के वाहक हैं जिनसे भगत सिंह लगातार भिड़ते रहे. इनमें ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु भगत सिंह का नाम लेना आरंभ कर दिया है. आज यहाँ भगत सिंह के नाम जपने की बजाय उनकी कुछ बातों को पढ़ लेते हैं. हो सकता है, कुछ लोग भगत सिंह का नाम लेना बंद कर दें, तब शायद सही तरीके से भगत सिंह के विचारों पर कुछ सार्थक विचार संभव हो सके.
भगत सिंह
 धार्मिक उन्माद, नेताओं और पत्रकारों पर :
       भगत सिंह का जून 1928 में छपा लेख लगभग नब्बे साल बाद भी आज के भारत पर अक्षरशः लागू होता है. उस लेख के कुछ अंश हैं–
       “........ ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई विरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी डंडे लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर फोड़कर मर जाते हैं. बाकी बचे कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं. जहाँ तक देखा गया हैइन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता, जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सर छुपाये बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं.
       दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गन्दा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटोव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिये दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो, बहुत कम हैं.
       अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेलमिलाप और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदयिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
       ... लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्गचेतना की जरूरत है. गरीब व मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिये तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए.
       ...इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं. यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं.”

विद्यार्थी और राजनीति पर भगत सिंह
           हाल के वर्षों में जेएनयू के मसले पर देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे लोगों के लिए भगत सिंह के विचार बड़े दिलचस्प रहेंगे. मजेदार बात है कि यही लोग भगत सिंह की पुरजोर दुहाई भी देते फिरते हैं. भगत सिंह के लेख का कुछ अंश–
       इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढने वाले नौजवान (विद्यार्थी) राजनीतिक या पॉलिटिकल कामों में हिस्सा न लें. पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है. विद्यार्थियों से कॉलेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि वे पॉलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे. आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा मंत्री है, स्कूलों कॉलेजों के नाम एक सर्कुलर भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ाने वाला पॉलिटिक्स में हिस्सा न लें.
       ...जिन नौजवानों को देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज ही अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा, वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिये. यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं ? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए हासिल की जाय. ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है ? कुछ ज्यादा चालाक आदमी कहते हैं– ‘काका, तुम पॉलिटिक्स के पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो. तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमंद साबित होगे.’ बात बड़ी सुन्दर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है. दूसरी बात यह भी है कि व्यवहारिक राजनीति क्या होती है ? ...कहा जाएगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज. फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का ही हुआ. क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए?
       ...वे पढ़ें. जरूर पढ़ें. साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन इसी काम में लगा दें. अपने प्राणों का इसी में उत्सर्ग कर दें. वरन् बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता.”

धार्मिक बेवकूफियों को नकारते भगत सिंह :
       महज तेईस बरस की उम्र में 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फाँसी दे दी गयी. फाँसी को गले लगाने से छः महीने पूर्व (5 – 6 अक्टूबर 1930 को) जेल में उन्होंने एक बेहद सशक्त लेख लिखा था, ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ ?’ इसमें तमाम धार्मिक आस्था व मान्यताओं पर प्रहार करते हुए व धार्मिक विश्वासों को नकारते हुए उन्होंने नास्तिकता पर जोर दिया. इस लेख का अंतिम पैराग्राफ बड़ा मार्मिक है, सर्वप्रथम उसे यहाँ उतारते हैं; फिर कुछ और अंश पढेंगे–
       “...मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा. जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी. स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों, मेरे दोस्तों, क्या यह अहंकार है ? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ.”
       कहने की जरूरत नहीं कि भगत सिंह अंतिम पल तक अपनी बात पर टिके रहे. इक्कीसवी सदी के वैज्ञानिक युग में धार्मिक मूढ़ताओं से भरे भारत के लिए यह आवश्यक है कि जिस भगत सिंह को पूरा भारतवर्ष अपना हीरो कहता है, वह भगत सिंह के इस लेख (मैं नास्तिक क्यों हूँ ?) को अवश्य पढ़े. कुछ अंश यहाँ हैं–
               “मैं सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ. ...मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है. मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था. ...1926 के अंत तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात– जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन किया, दिग्दर्शन और संचालन किया– एक कोरी बकवास है.
               तुम जाओ, और किसी प्रचलित धर्म का विरोध करो; जाओ और किसी हीरो की, महान व्यक्ति की– जिसके बारे में सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि वह आलोचना से परे है क्योंकि वह गलती नहीं कर सकता, आलोचना करो, तो तुम्हारे तर्क की शक्ति हजारों लोगों को तुम पर वृथाभिमानी होने का आक्षेप लगाने को मजबूर कर देगी. ऐसा मानसिक जड़ता के कारण होता है. आलोचना तथा स्वतंत्र विचार, दोनों ही एक क्रांतिकारी के अनिवार्य गुण हैं. क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा (सर्वशक्तिमान ईश्वर) के प्रति विश्वास बना लिया था; अतः किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जो उस विश्वास की सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व ही को चुनौती दे, विधर्मी, विश्वासघाती कहा जाएगा. यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खंडन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखाकर दबाया नहीं जा सकता, तो उसकी यह कहकर निंदा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है, उसकी प्रकृति पर अहंकार हावी है. तो इस व्यर्थ विवाद पर समय नष्ट करने का क्या लाभ ?
               प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढिगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी. प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदिजैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की ? कष्टों और आफतों से भरी यह दुनिया, असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबन्धनों से ग्रसित ! एक भी प्राणी पूरी तरह से सुखी नहीं ! कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी तरह गुलाम है. कृपा कर यह भी न कहें कि यह उसका शगल है. नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने तो थोडा दुःख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए. और उसका इतिहास में क्या स्थान है ? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं ? जालिम, शैतान, निर्दयी जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ के पृष्ठ रंगे पड़े हैं.  इसलिये मैं पूछता हूँ – ‘उस परम चेतना और सर्वोच्च सत्ता (ईश्वर) ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया ? आनंद लूटने के लिए ? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है ?’
               मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है, जब वह पाप या अपराध कर रहा होता है ? ये तो वह आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया ?
               तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है. तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्म में साधू पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं. मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे. उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है. लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बाटें कहाँ तक टिकती हैं. ... सभी धर्म, संप्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएं अंत में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं. राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव पाप रहा है.
               मेरे दोस्तों ! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना, जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ, मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी. मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ.”

नौजवान भारत सभा, लाहौर के घोषणापत्र का एक अंश :
               11, 12, 13 अप्रैल, 1928 को अमृतसर में नौजवान भारत सभा के सम्मलेन के लिए सभा का घोषणापत्र तैयार किया गया. भगत सिंह इस सभा के महासचिव थे. सभा के घोषणापत्र का एक अंश आज के भारत के लिए बड़ा प्रासंगिक है–
               हम भारतवासी, हम क्या कर रहे हैं पीपल की एक डाल टूटते ही हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं चोटिल हो उठती हैं. बुतों को तोड़ने वाले मुसलमानों के ताजिये नामक कागज़ के बुत का कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है और फिर वह ‘नापाक’ हिन्दुओं के खून से कम किसी वास्तु से संतुष्ट नहीं होता. मनुष्य को पशुओं से अधिक महत्व दिया जाना चाहिए, लेकिन यहाँ भारत में लोग पवित्र पशु के नाम पर एक-दूसरे का सर फोड़ते हैं. धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं. वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिए. जो चीज आज़ाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए.”

 सुभाषचंद्र बोस बनाम जवाहरलाल नेहरू पर भगत सिंह :
               जुलाई 1928 के ‘किरती’ में छपे लेख में भगत सिंह ने सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों की बड़ी बेबाक तुलना की है. सुभाष बाबू व पंडित नेहरू के विचारों/वक्तव्यों को उद्धरित करते हुए भगत सिंह स्पष्टरूपेण पंडित नेहरू से प्रभावित नजर आते हैं और उनके पक्ष में खड़े होते हैं. उस लेख के कुछ अंश (इसलिये कि अर्ध-सत्यों के सहारे एक मुहिम छिड़ी है, पंडित नेहरू को गिराने की):-
               “....पंडित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं. सुभाष भावुक हैं, दिल के लिए. नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए. दूसरा (पंडित नेहरू) युगांतरकारी है जो दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है.
               अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों (सुभाष बाबू व पंडित नेहरू के) विचार आ गए हैं– हमें किस ओर झुकना चाहिए. सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे. इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पंडित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है. जहाँ तक विचारों का संबंध है, वहाँ तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिएताकि वे इन्कलाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान के इन्कलाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्कलाब का स्थान क्या है, आदि के बारे में जान सकें.” 
अंत में  आज जब कुछ कॉरपोरेट घरानों ने सरकार का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया है और नेतागण भगत सिंह की दुहाई देकर क्रांति की बात करते हुए भगत सिंह को अपने रंग में रंगने की कोशिश में लगे हैं, भगत सिंह की बातें उल्लेखनीय हैं– क्रांति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है. इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है– जनता के लिए, जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना. वास्तव में यही है ‘क्रांति’बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं. भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते. हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते. ...राष्ट्र स्वयं को राष्ट्रवाद के विश्वास पर ही हरकत में लाएगा, यानी साम्राज्यवाद और पूंजीपति की गुलामी से मुक्ति के विश्वास दिलाने से.”
       आज जब पूँजीवादी शक्तियाँ शोषण की बुनियाद को मजबूत करने के लिए छद्मराष्ट्रवाद का सहारा लेते समय भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल कर रही होती हैं अथवा धार्मिक राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करने की कोशिश में लगा मंच का कोई कवि अथवा राजनेता जब दहाड़ता है तो बस यह पूछियेगा, भगत सिंह को कितना जानते हो ?? भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल करना और भगत सिंह को जानना दो अलग बातें हैं. भगत सिंह को जानने पर हमें अहसास होता है कि इक्कीसवी सदी की ‘न्यू इंडिया’ को जो शक्तियाँ दिशा दे रही हैं, उनकी सोच का दायरा कितना संकीर्ण है; उस नौजवान की सोच के बरक्स, जो लगभग एक सदी पूर्व गुलाम व पिछड़े भारत में महज तेईस साल रह पाया था. 
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संजय चौबे

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सही विश्लेषण जानकरी सारगर्भित लिखा है लेकिन भारत जैसे देश में सबको समझना बहुत मुश्किल काम है

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    उत्तर
    1. भगत सिंह को जानते हैं ?? का यह पहला पार्ट था। अन्य दो पार्ट पढ़ने के लिये Index पर जायें। पढ़ें, आपको अच्छा लगेगा।

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