तुम्हारी माँ का नाम क्या है ?

मई 2016 के दूसरे पखवारे अखबारों में एक खबर आई थी. खबर यह थी कि दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में पासपोर्ट बनवाने के लिए पिता का नाम बताए जाने की बाध्यता समाप्त कर दी. फिर अगस्त 2016 में इससे जुड़ी एक और खबर आई कि महिला एवं बाल विकास मंत्री ने विदेश मंत्री को पत्र लिखा है कि पासपोर्ट जारी करने के नियमों में आवश्यक संशोधन किए जायें ताकि पिता का नाम बताए जाने की बाध्यता न रहे.
खबर आज की, इक्कीसवीं सदी की है. एक बच्चे को पासपोर्ट जारी करने से, एक दूसरे बच्चे को जन्म प्रमाणपत्र जारी करने से इंकार कर दिया जाता है क्योंकि वह या उसकी माँ, पिता का नाम नहीं बताना चाहते. सदियों पहले, रामायण/महाभारत काल में भी हमें पिता के नाम में ही दिलचस्पी थी. लव-कुश को देख पूरी जिज्ञासा यही है कि इन सलोने बच्चों के पिता कौन हैं. कर्ण अपनी सारी खूबियों के बावजूद जीवन भर अभिशप्त रहता है क्योंकि वह अपने पिता का नाम नहीं बता पाता. पिता के नाम के बगैर कैसी आइडेंटिटी, कैसा परिचय ? पिता की वजह से ही हम अस्तित्व में आये. और माँ ? माँ ! माँ का स्वयं कोई परिचय होता ही नहीं, कभी वह किसी की पुत्री या बहन होती है फिर किसी की पत्नी या माँ. शास्त्र सम्मत बातें हैं ये, धर्म यही तय करता है. स्त्री का वजूद भी तो मर्दों के कारण है और वे जिनके संरक्षण में होती है उसका नाम धारण करती हैं. इस दशा में वह भला किसी के परिचय का आधार कैसे बन सकती है ? यद्यपि वह गर्भ-धारण करती है लेकिन वह तो माध्यम मात्र है क्योंकि संतान होती तो पिता की ही है. कुरआन मजीद के सूरा 2 अल-बकरा में ईश्वर एलान करता है - “तुम्हारी स्त्रियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं. तुम्हें अधिकार है, जिस प्रकार चाहो, अपनी खेती में जाओ....” 
खेत का अपना कोई वजूद होता है, क्या ? खेत का मालिक न हो तो फिर खेत का क्या मतलब, वह तो बस बंजर जमीन है. यह खेत का मालिक ही है जो मेहनत करता है, खेत को उपजाऊ बनाता है, बीजारोपण करता है – खेत को परिचय प्रदान करता है. ऐसे में खेत में लगे पेड़, पौधे हुए तो उसी के. पिता नहीं तो सब लावारिस. 
लावारिस, हरामी, बास्टर्ड  – अवैध संतान. अमेरिका के फेडरल जज, लियॉन आर यांकविच ने अपने एक फैसले में कहा था – अवैध संतान होती ही नहीं, होते हैं तो केवल अवैध माता-पिता.[1] बगैर किसी विशेष बुद्धिमत्ता के, जज या बड़े विचारक बने बिना ही सहजता से इस बात का उत्तर मिल जाता है कि कोई संतान भला अवैध कैसे हो सकती है. कहने की जरूरत नहीं कि संतान उत्पत्ति का सहज प्राकृतिक ढंग है – नर मादा के मिलन से. अब नर- मादा अथवा स्त्री-पुरुष ने सात फेरे लिए हैं या नहीं, निकाह की रस्म पूरी हुई है या नहीं; इससे संतान उत्पत्ति की प्रक्रिया पर क्या असर पड़ेगा. लेकिन सांसारिक रीति से विवाह के पश्चात संतान ने जन्म लिया तो वैध अन्यथा अवैध. यदि थोड़ी देर के लिए मान लें कि औपचारिक विवाह के बगैर संतान को जन्म देना अनुचित है तो भी उस बच्चे की क्या गलती ? अब ऐसी कोई तकनीक ईश्वर ने बनाई ही नहीं कि बच्चा जन्म लेने से पूर्व मैरेज सर्टिफिकेट की जाँच करे और वैध शादी की अनुपस्थिति में जन्म लेने से इंकार कर दे. बेचारा माँ के गर्भ से पिता से कैसे संपर्क करे, वह कैसे तहकीकात करे – पंडित, मुल्ला, पादरी अथवा रजिस्ट्रार से कैसे कन्फर्म करे कि वह वैध संतान होगी या अवैध ? कुल मिला कर यह एक ऐसा मामला है जिसमें किसी और की गलती की सजा उस निर्दोष को दी जाती है जो चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता. यह बात किसी को भी समझ में आ सकती है और आती है. फिर नीति नियंता, समझदार लोग और धार्मिक लोगों के ईश्वर ने ऐसी व्यवस्था क्यों निर्मित की जिसके तहत एक बच्चा अवैध घोषित हो जाय.
इसके पीछे एक गहरा षडयंत्र रहा है. ध्यान से देखें तो जिसे हम धर्म की व्यवस्था कहते हैं वह पूर्णतया ताकतवर लोगों के लिए बनी है और यह ताकतवर लोगों के द्वारा कमजोर लोगों के शोषण की बुनियाद तय करता है. कोई तकलीफ में है, व्यवस्थाजनित कारणों से नारकीय जीवन जी रहा है लेकिन धर्म की माया देखिये वह कितनी खूबसूरती से यह भ्रम पैदा कर देता है कि वह अपने कर्मों (इस जन्म का नहीं तो पिछले जन्म का) का फल भोग रहा है. स्त्री के गर्भ धारण की क्षमता ने उसे कमजोर बनाया, इसके बरक्स पुरुषों को उसकी शारीरिक स्वतंत्रता ने ताकत दी. इसी के साथ धार्मिक लोगों के देवताओं ने ताकतवर पुरुषों के हाथों स्त्री के शोषण की बुनियाद रखी. पुरुष जबरदस्ती करे, प्रेम का नाटक करके करे, साथ छोड़ दे; हरेक परिस्थिति में जिम्मेदारी स्त्री की. वह सफाई देती फिरे, साक्ष्य ढूँढती रहे, डी एन ए टेस्ट कराती फिरे. स्त्री के शरीर की पवित्रता का भाव इस कदर हावी होता है कि इससे उबरना बेहद कठिन हो जाता है. फिर अवैध संतान की परिकल्पना, माँ व उस संतान की जिल्लतभरी जिंदगी स्त्री के मन में यह दहशत पैदा करने के लिए काफी है कि उसे संभलकर रहना है, अन्यथा उससे अनाचार होगा और एक अनाचारी के जीवन का क्या मतलब !
यद्यपि समय के साथ चीजें बदल रही हैं; कानून व सुप्रीम कोर्ट के प्रयास बदलाव का संकेत दे रहे हैं. उदाहरणस्वरूप जुलाई 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में ईसाई धर्म की अनब्याही माँ को बच्चे का अभिभावक होने का हक प्रदान किया. इसके पूर्व बगैर पिता की सहमति के एक ईसाई माँ बच्चे का अभिभावक नहीं बन सकती थी. ईश्वर की घोषणा कि स्त्री तुम्हारी खेती है के बरक्स सुप्रीम कोर्ट का फैसला उल्लेखनीय है -  “केवल संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया से गुजरने व तकनीकी दृष्टि से पिता होने मात्र से कोई माँ के बराबर अभिभावक होने का अधिकारी नहीं हो जाता.” अप्रैल 2011 में सुप्रीम कोर्ट के एक बेंच ने हिन्दू अवैध बच्चे को माता-पिता की संपत्ति में हक़ प्रदान करते हुए कहा – “कानून की दृष्टि में किसी स्त्री – पुरुष के बीच का रिश्ता अवैध हो सकता है लेकिन इस रिश्ते की वजह से जन्मे बच्चे के संबंध में अलग से विचार की जरूरत है. जन्मा बच्चा पूर्णतया निर्दोष है, वह अवैध नहीं हो सकता और इस कारण उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हैं जो वैध विवाह से जन्मे अन्य बच्चों को प्राप्त हैं.” लेकिन दुखद पहलू है कि ये फैसले धर्म आधारित समुदाय विशेष पर लागू हैं. ये फैसले सब पर लागू नहीं होते क्योंकि उनका ईश्वर बीच में आ जाता है. साथ ही कानून की किताबों, सुप्रीम कोर्ट की चाहरदीवारी के परे जो असली दुनिया है उस पर ईश्वर का कानून ही चलता है और ईश्वरशासित यह दुनिया आज भी स्त्री के मौलिक अस्तित्व को नकारती है.   
 अवैध संतान की चर्चा को यहाँ विराम देते हुए आरंभ की कुछ पंक्तियों की ओर लौटते हैं. बात निकली थी पिता के नाम बताने की बाध्यता पर और जैसे ही पिता का नाम न बताये जाने का जिक्र आया, चर्चा तत्काल बच्चे के वैध या अवैध होने की ओर मुड़ गयी. इस तरीके से चर्चा की शुरुआत अपने आप में हमारी संस्कारित मानसिकता का परिचायक है. याद कीजिये बात बस इतनी सी थी कि किसी बच्चे के पिता के नाम की जगह माँ का नाम बताया जा रहा है फिर तो हमनें लंबा चौड़ा भाषण दे डाला – तथाकथित अवैध बच्चे के पक्ष में, बच्चा अवैध हो नहीं सकता इत्यादि इत्यादि.
सालों पहले की घटना है (हो सकता है आज भी घटित हो रही हो). हमारे गाँव के स्कूल में एक युवा व तेज तर्रार मास्टर साहब आए. स्कूल में सरस्वती पूजा के आयोजन पर बच्चों ने अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन किया. बच्चों के घरवालों के संग- संग गाँव के गणमान्य लोग भी स्कूल में थे. अंत में सबसे बढ़िया प्रदर्शन करने वाले बच्चों को पुरस्कृत करने के कार्यक्रम का संचालन तेज तर्रार मास्टर साहब के हाथ में था. एक बच्चे के अच्छे प्रदर्शन की तारीफ करते हुए उन्होंने उससे उसके पिता का नाम पूछा. बच्चे ने पिता का नाम बताया और संग में इशारों से बताया कि उसके पिता भी वहाँ उपस्थित हैं. पिता जी गौरव मिश्रित खुशी से भर गए. तभी अनायास ही मास्टर साहब बच्चे से पूछ बैठे -
“तुम्हारी माँ का नाम क्या है ?”

बच्चा माँ का नाम नहीं बता पाया. बहुत संभव है उसे पता ही न हो क्योंकि उसकी माँ को उसके नाम से संबोधित करने का कोई रिवाज नहीं था और हो सकता है नाम मालूम भी हो तो वह स्टेज पर अकबका कर भूल गया हो क्योंकि इससे पूर्व किसी ने माँ का नाम पूछा नहीं था.
मास्टर साहब को क्या सूझी, उन्होंने फिर पूछा, बेटा, माँ का नाम बताओ. माँ का नाम तुम्हें नहीं मालूम ? बच्चा कुछ सकपका सा गया. आगे बैठे गाँव के बुजुर्गवार ने कुछ मजाकिया अंदाज में कहा – बेटा, मास्टर साहब को अपनी मैय्या का नाम तो बता दो. नहीं तो मास्स्सब, कभी आप ही इसके घर जाकर सीधे नाम क्यों नहीं पूछ लेते!
बुजुर्गवार की बात सुन सब ठहाके मार हँस पड़े. बच्चा भागकर अपने पिता के पास चला गया और इससे पहले कि मास्टर साहब कुछ समझ पाते, बच्चे का पिता गरजने लगा –
“मास्साब, आपको घर की औरतों, बहू-बेटियों के नाम से क्या मतलब ? ये नहीं चलेगा....... आप चिट्ठी लिखेंगे क्या ???..... आपकी हिम्मत कैसे हुई, लल्ला से उसकी माँ का नाम पूछने की !!!”
देखते-देखते मसले ने तूल पकड़ लिया. लेकिन थोड़ी देर में ही हर मसले की तरह यह मसला भी रफा-दफा हो गया. ऐसे में माँ के नाम पूछे जाने को हमनें अन्यथा लिया और पिता का नाम न बताने पर अर्थ का अनर्थ निकाला. इसलिए नारी जो सती नहीं है, कहती है –
“पिता का नाम न बताये जाने पर यह कैसे समझ लिया कि कोई बच्चा या बच्ची अवैध है. मेरी शादी भी वैध है और बच्चे के संग मैं व उसके पिता बड़े प्रेम से रह रहे हैं. तुम शायद भूल जाते हो या बहुत संभव है कि जान-बूझ कर भूलने का नाटक करते हो कि संतान केवल अपने पिता की नहीं, मेरी भी है. यद्यपि तुम सदा से यही स्थापित करते रहे हो कि मैं माध्यम मात्र हूँ और असल में संतान होती तो पिता के कारण ही है. क्या यह मुझे कहने की जरूरत है कि संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में बराबर की भागीदार हूँ और रही मेरे किसी पुरुष की खेती होने की बात तो मैं निर्जीव खेत नहीं हूँ. तुम्हारे ईश्वर को शायद खबर नहीं कि मैं जिंदा हूँ और मेरे सीने में दिल है जो धड़कता भी है; एक दिमाग भी है जो ठीक-ठीक काम करता है. तुम चाहते तो हो खेतों की भांति मेरा उपभोग करना लेकिन बहुत हुआ, अब और नहीं. यह दौर मेरे स्वतंत्र अस्तित्व की स्थापना का दौर है. मुझे किसी संरक्षण की दरकार नहीं. मैं सक्षम हूँ. इसलिए दया नहीं, कमतर-बेहतर का प्रश्न नहीं. हम मित्र हो सकते हैं, हमारे बीच प्रेम होता है, यह सच है. साथ ही यह भी सच है कि दो स्वतंत्र, सक्षम लोगों का प्रेम अधि खूबसूरत होगा. समादर की भावना लिए हम दोनों मिलकर इस दुनिया को और सुन्दर बना सकते हैं. फिर जब हम साथ हैं तो हमारी संतान मेरा नाम लें या अपने पिता का, क्या फर्क पड़ेगा. पिता के नाम की अनुपस्थिति मात्र से कोई हरामी, बास्टर्ड या अवैध नहीं हो सकता. मेरा नाम उसे सम्पूर्ण परिचय देगा. यह समझौता नहीं, सच है जो अब तक किसी एक के वर्चस्व में दबा रहा. तो आगे से एक नए चलन का आरम्भ करते हैं जिसमें लोग पूछेंगे – तुम्हारी माँ का नाम क्या है ? चाहे तो पिता का नाम भी पूछ लें, मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं क्योंकि मैं जानती हूँ कि अतीत की गलतियों का बदला वर्तमान से नहीं लिया करते.”
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[1] There are no illegitimate children, only illegitimate parents.

'वह नारी है...' में संकलित


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