इक्कीसवीं सदी में अंधविश्वास का महाविज्ञापन

       हाल में एक प्रमुख अखबार पर नजर पड़ी. अखबार के मुखपृष्ठ समेत दो पृष्ठों पर समाचारों की शक्ल में अद्भुत घोषणाएं छपीं थीं - 
“आज से ही शुरू हो जायेगा सभी दुखों और कष्टों का अंत.
इस अद्भुत पाठ को सुनने-करने मात्र से दरिद्र भी महाधनवान बन जाता है.
प्रभु कृपा का सर्वशक्तिशाली महाविज्ञान.
विश्व के करोड़ों लोगों ने पाई असाध्य कष्टों से मुक्ति.”

      उपरोक्त बड़े हेडलाइनों के बाद समाचारों के छोटे टाइटल भी महत्वपूर्ण थे जो मंत्र अथवा दिव्य पाठ की महिमा प्रदर्शित कर रहे थे, उदहारणस्वरुप बिना ऑपरेशन के लीवर का गंभीर रोग ठीक / किडनी की पथरी समाप्त हो गई / 23 वर्ष बाद पक्ष में हुआ कोर्ट का फैसला / पांच साल पुराने मानसिक रोग से मुक्ति / 20 साल पुरानी बी पी की प्रॉब्लम से मुक्ति / चार वर्षों से अटका प्रमोशन हो गया आदि - आदि.
                यकीनन ऊपर जो लिखा है, वह समाचारों की शक्ल में विज्ञापन था. हम भांति-भांति के लुभावने विज्ञापन व लोगों के ध्यान आकर्षित करने के तरीकों से परिचित रहे हैं. रेलगाड़ी से यात्रा के दौरान राजधानियों के करीब आने पर रेलवे लाइन के दोनों ओर की दीवारें काली पृष्ठभूमि पर सफ़ेद उद्घोषणाओं का माध्यम बनती दिखती हैं, जैसे –
डॉ कुमार, मोबाइल नं. ***** /
मिलें हर इतवार को – 10 से 6 /
बवासीर / 1 – टीके में जड़ से ख़त्म /
होटल बाबा, निकट पुराना बस स्टैंड
या फिर
नामर्द रोगी मिलें / गुप्त रोगी मिलें
सोमवार – हकीम जुबैर / जुबैर दवाखाना, **** रोड, ###.

कुछ और भी उदाहरण आपके दिमाग में आ सकते हैं –
7 दिनों में ताकत /
डॉ बंगाली /
हर बुधवार, होटल शिव, ****.

केवल इलाज की बात ही नहीं, रिश्ते भी तय कराये जाते हैं –
मात्र 101 रुपये में रिश्ता करवाये (कोई अन्य खर्चा नहीं).

बदलते व आधुनिक होते दौर का अंग्रेज़ी में लिखा यह विज्ञापन भी ध्यान आकर्षित करता है –
‘फॉर लव मैरिज/ कांटेक्ट अस, मोबाइल नं. ****.’
     
      विज्ञापनों को देखने की व उनसे अभिभूत हो वशीभूत होना बड़ी सामान्य सी बात रही है. इसलिये अख़बार में छपे उपरवर्णित विज्ञापनों में क्या ख़ास बात हो सकती है. लेकिन अखबार के मुखपृष्ठ पर छपे कुछ बड़े टाइटलों से जुड़े व फोटोग्राफों में दिख रहे जिम्मेदार लोगों को उक्त विज्ञापन के ब्रांड एम्बेसडर के रूप में प्रस्तुति को बदलते भारत की मनोदशा के संकेतक के रूप में देखना इसे खास बनाता है. उदाहरणस्वरुप विज्ञापन में भारत के प्रधानमंत्री का संदेश, भारत के गृह मंत्री समेत तमाम वर्तमान व निवर्तमान मुख्यमंत्रियों व राज्यपालों के आशीर्वाद लेते फोटोग्राफ इस विज्ञापन को ख़ास बनाता है. साथ ही एक बड़े टाइटल कि ‘महामहिम राज्यपाल होंगे मुख्य अतिथि/ माननीय उपमुख्यमंत्री भी ग्रहण करेंगे प्रभु कृपा’ इस विज्ञापन की ताकत का अहसास कराता है.
      आस्था रखिये, पूजा-पाठ कीजिए, आस्थाओं पर ठेस लगने के नाम पर जान लेते रहिये, निजी हैसियत में सब कुछ करते रहिये लेकिन यदि आप किसी जिम्मेदार पद पर हों तो आपसे इतना अपेक्षित तो है कि आप अपनी आस्था के प्रदर्शन में थोड़ी सावधानी बरतेंगे. उल्लेखनीय है कि उक्त विज्ञापन मंत्र पाठ अथवा दिव्य पाठ के माध्यम से तमाम बीमारियों, कष्टों के दूर करने, मुक़दमा जीतने, प्रमोशन कराने का दावा करते हुए लोगों को संपर्क करने के लिए कहता है.
      बचपन में हमें कम्प्यूटर का नाम लेकर इक्कीसवीं सदी के भारत का सपना दिखाया गया था. आज कंप्यूटर है, इंटरनेट है, तकनीक के अनोखे साधन हैं, सब कुछ वैज्ञानिक है; लेकिन हमारा दिमाग ? हमें स्मृति-लोप की तो पुरानी बीमारी रही है लेकिन अब पूर्वाग्रहों, जड़-धारणाओं के साथ वैज्ञानिक तकनीक का ऐसा समागम हुआ है कि हमारे ह्रदय ने धडकना बंद कर दिया है; बची हैं फड़फड़ाती भुजाएं व हवा में लहराते हाथ, पूर्णरूपेण विवेकहीन रोबोट की भांति जिनका रिमोट कंट्रोल है उन कर्णधारों के हाथ जो दिव्य व मंत्र पाठों के माध्यम से बीमारी व दुःख-दर्द को मिटाने वालों का दावा करने वालों का ब्रांड अम्बेसडर बने दिखते हैं. जब एक आदमी मंत्र पाठ से मुक़दमा जीत लेता है और हमारे नीति नियंता मुक़दमा जिताने वाले इस ईश्वरीय दूत से प्रभु कृपा प्राप्त करते दिख रहे हैं तो उम्मीद है वे देखते-देखते मंत्र पाठ के माध्यम से देश की भुखमरी, बेरोजगारी की समाप्ति के साथ-साथ देश के दुश्मनों का नाश भी करा देंगे; आतंकवादियों को मिटा देंगे.
      नामर्द को मर्द बनाते हकीम साहब, सात दिनों में कमजोरी दूर करने वाले डॉ बंगाली भी अपने तरीके से इक्कीसवीं सदी की भारत में जगह बनाने की कोशिश में हैं. उम्मीद की जा सकती है, हकीम साहब या डॉ बंगाली भी एक दिन महाविज्ञापन जारी करें और हमारे किसी तारणहार का फोटोग्राफ यह दावा करते हुए दिखे कि सालों की उनकी कमजोरी सात दिनों में दूर हो गई.
      खैर दिव्य व मंत्र पाठ से कष्ट निवारण के दावे पर उँगली उठाने पर लोग आस्था का प्रश्न उठा सकते हैं. लेकिन यह आस्थामात्र का प्रश्न नहीं है. कल्पना कीजियेगा नीम हकीमों के तमाम दावों के बावजूद एक विवेकवान समाज क्या नीम हकीमी को अपनी मान्यता दे सकता है. फिर दिव्य पाठ ?
      यद्यपि आस्था के नाम पर समझ व विवेक को धकेले जाने की कोशिश पुरातन रही है, हर दौर में समझ की बात करने वाले रहे हैं. लेकिन इक्कीसवीं सदी के आज के भारत में समझ की बात करने वाले डरने लगे हैं. अनायास ही विवेकानंद (जिनके प्रति तमाम आस्थावान लोगों की आस्था रही है, शायद इसलिए कि वे विवेकानंद को पूजते अधिक हैं, समझते कम है.) की एक चिट्ठी हाथ लगी है जिसे पढ़कर अनायास ही सोचने लगा कि आज के महान भारत में यदि विवेकानंद उस चिट्ठी को लिखते तो हमारे आधुनिक भारतवासी उनके साथ क्या सुलूक करते. विदेश यात्रा पर निकले विवेकानंद ने 10 जुलाई 1893 को ओरिएंटल होटल, याकोहामा से आलासिंगा पेरूमल को अपने पत्र में जो लिखा था, उसे पढ़ने का विवेक इक्कीसवी सदी के भारत में शेष है, इस बात पर संदेह है. फिर भी उस पत्र के एक अंश को बोल-बोल कर पढने का दुस्साहस कर रहा हूँ (ध्यान रहे, नीचे लिखी बातें विवेकानंद कह रहे हैं, मैं नहीं.). भारत को संबोधित करते हुए वे लिखते हैं –
      “... और तुम लोग क्या कर रहे हो ? जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद करनेवालों, तुम लोग क्या हो ? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो. सठियाई बुद्धिवालों, अपनी खोपड़ी में वर्षों के अंधविश्वास का निरंतर वृद्धिगत कूड़ा-करकट भरे बैठे, सैकड़ों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटनेवाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो ? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो ?
      आओ, मनुष्य बनो ! उन पाखंडी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके ह्रदय कभी विशाल न होंगे. उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अंधविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है. पहले पुरोहिती पाखंड को जड़-मूल से निकाल फेंको. आओ, मनुष्य बनो !      

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