सीवर व सेप्टिक टैंक के शहीद
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे
हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा
तिरंगे में लिपटे शव को कंधा देने की होड़ मची है. यह शहीद की
शवयात्रा है. श्रद्धा से सिर अनायास ही झुके जा रहे है. सबकी आँखें नम हैं और बंद
जुबानों में उसकी परम वीरता व अतुलनीय कुर्बानी की कहानी है. उसने देश की खातिर
देश के दुश्मनों व आतंकवादियों की गोलियाँ झेली. लता मंगेशकर जब प्रदीप की पंक्तियों
को गाती हैं तो पूरा देश रो पड़ता है –
जब देश में थी दीवाली
वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में
वो झेल रहे थे गोली
कृतज्ञ राष्ट्र जानता है, उसके वलिदान की कीमत अदा नहीं कर सकता;
फिर भी नम आँखों से उसके आश्रित को
चेक, नौकरी अथवा पेंशन आदि देकर उसके अपनों की आर्थिक चिंता को दूर करने का थोड़ा
प्रयास करता है. उसकी चिता पर हर वर्ष मेले लगते हैं, लगे भी क्यों नहीं वह देश का
सिपाही रहा है. सिपाही, जो जीते जी और मरकर भी देश को बचाता है.
मौत हो तो ऐसी !! (जो किसी के, खासकर देश के काम आ सके !)
लेकिन कुछ मौतें भी कितनी गलीज़ होती हैं – बजबजाते सेप्टिक टैंक
और सीवर के मेनहोल में भी मरता है कोई भला. हे भगवान, इन सेप्टिक टैंकों अथवा गटर
से निकाली जा रही उनकी बदबूदार, बजबजाती लाश का बीभत्स फोटो कुछ अखबार वाले छाप क्यों
देते हैं. मन खराब हो जाता है और चूँकि हमारा मन खराब हो जाता है, अखबार वाले
कभी-कभार ऐसे फोटो छाप चुप हो जाते हैं और देशभक्ति को बढ़ावा देने वाले तमाम टीवी
चैनलों पर ऐसी गलीज़ मौतों की चर्चा का तो मतलब ही नहीं बनता. वैसे भी तो इनका जीवन
भी तो व्यर्थ ही होता है, फिर इनकी मौत पर व्यर्थ चर्चा का मतलब क्या ? चुप रहो,
मत बोलो ! अरे, उधर मत देखो ! दिन ख़राब हो जायेगा !
‘वह बजबजाती लाश किसी गलीज़ सफाईकर्मी की थी !’
रुकिये ! भले ही मन खराब हो जाय, थोड़ी देर के लिए इस निकृष्ट
बकवास में शामिल हो जाइये और यदि साहस हो तो अपने स्वच्छ मकान व पवित्र मंदिर
परिसर के जमीन तले बने सेप्टिक टैंक अथवा साफ़-सुथरी गलियों के नीचे बह रही सीवर के
मेन होल के ढक्कन को हटाकर खड़े होने की कल्पना मात्र कीजिये. इसके बाद यदि थोड़ा
होश बचा रहे तो अपने सभ्य होने पर विचार कीजिये. जिसकी कल्पना मात्र से आपको उबकाई
आने लगती है, आपके अंदर की पवित्रता मलिन हो जाती है – उस सेप्टिक टैंक अथवा गटर
में एक जीता जागता जिंदा इंसान घुसता है, उसे साफ़ करता है और इसके बाद प्रदीप के
बोल को याद कीजिए, जिसे लता मंगेशकर गाती हैं.
जब आप साफ व स्वच्छ वातावरण में पवित्र मन से पावन मंदिर में
घंटा बजा रहे होते हैं और भक्ति भाव से ग्रहण किये प्रसाद के दोने को नाली में बहा
गटर को चोक कर रहे होते हैं अथवा अपनी समृद्धि, अपनी सफलता, अपने प्रियजन के
जन्मदिन का जश्न मना रहे होते हैं या फिर अपने प्रिय त्यौहार अथवा देशभक्ति के
उत्सव से धरती को रंग रहे होते हैं, उस घड़ी कुछ लोग अपने हिस्से के मोर्चे पर एक
ऐसी लड़ाई लड़ रहे होते हैं जिसकी ओर सभ्य लोगों का ध्यान नहीं जाता. भले ही ध्यान न
जाता हो, सोचियेगा जरा. शहादत व कुर्बानी के तमाम नारों व गीतों के महान सैनिकों
के महान वलिदानों के बरक्स हमें यह ख्याल क्यों नहीं आता कि बजबजाती नालियों को
यदि साफ़ किये बगैर छोड़ दिया जाय तो सभ्य लोगों की बस्ती को फिर कौन बचाएगा, बीमारी
व महामारी से. तो समझदार व सभ्य लोगों की बस्ती को बचाये रखने के लिए तमाम गलीज़
लोग जीते जी असाध्य बीमारियों की गोलियों को झेलते हैं तो कुछ इन्हीं
गटरों/सेप्टिक टैंकों में होली खेलते हुए शहीद हो जाते हैं. यदि आपकी आँख में थोड़ा
पानी शेष हो तो प्रदीप की ऊपर उद्धृत पंक्तियों को लता मंगेशकर के साथ इन शहीदों
को याद करते हुए फिर से गुनगुनाइये –
जब देश में थी दीवाली
वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में
वो झेल रहे थे गोली
लेकिन
इन शहीदों की सम्मानजनक शव यात्रा व इनकी चिताओं पर लगने वाले मेले की कल्पना भी इनकी
हंसी उड़ाना प्रतीत हो सकता है. कुछ लोगों को इनकी तुलना देशभक्त सैनिकों से करना
भी आपत्तिजनक लग सकता है. यहाँ सैनिकों की महत्ता को कम करने का कोई आशय नहीं है.
वे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, वे कठिन परिस्थितियों में जान की बाजी लगाकर देश
की सुरक्षा में जुटे हैं. यहाँ सवाल बस इतना सा है कि यदि हमारे लिए स्वच्छता
आवश्यक है, महामारियों से बचने के लिए सफाई आवश्यक है; यदि यह काम महत्वपूर्ण है तो इस काम को करने
वाले गलीज़ अथवा निकृष्ट कैसे हो सकते है. उनके जीने अथवा मरने से हमारे ऊपर फर्क
क्यों नहीं पड़ता.
निःसंदेह यह हमारे पाखंडी व दोहरे चरित्र का प्रमाण है. जहाँ एक
ओर हम प्रेममय व श्रद्धावान होने का दावा करते हुए किसी पशु विशेष को माँ का दर्जा
देते हुए उसकी रक्षा हेतु मरने-मारने को तैयार होते हैं, वहीँ पूरे समाज को स्वस्थ
व साफ़ रखने में अपने को कुर्बान करनेवाले इंसानों के प्रति इतनी संवेदनहीनता. यदि
आप देखना चाहते हों तो सभ्य समाज के इस बर्बर चरित्र को देख सकते हैं जो सामूहिक
रूप से सफाईकर्मियों की नारकीय जिंदगी के लिए ज़िम्मेदार है. यदि आप सुनना चाहते
हों तो बेज़वाडा विल्सन की कराह सुन सकते हैं – “सीवर में होने वाली मौतों की
ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता.” 15 जुलाई 2017 के टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी एक छोटी सी
खबर में उनका एक बयान है – ‘पिछले सौ दिनों में भारतवर्ष में सीवर की सफाई के
दौरान 39 जीते जागते इंसानों ने अपनी जान गंवाई है.”
फिर भी कोई चर्चा नहीं, कहीं कोई बहस नहीं. सब चुप हैं, जैसे कुछ
हुआ ही नहीं. ये आँकड़े तो मौत के हैं. अधिक नहीं, बस थोड़ा सोचने पर ही समझ में आने
लगता है जो जीवित बचे हैं, उनकी दशा क्या है. हम कभी जानने का प्रयास क्यों नहीं
करते कि समृद्धि व पवित्रता का डंका पीटने वाले समाज में ये किस हाल में हैं, वे
सामान्यतः कितने साल जी पा रहे हैं. सीवर अथवा सेप्टिक टैंक में न सही, उनकी
सामान्य कही जाने वाली मौत का जिम्मेदार कौन है. अपने जश्नों, धार्मिक अथवा
राष्ट्रीय त्योहारों में पैसे को पानी की तरह बहाने वाले समृद्ध भारत के पास इन
लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए पैसों का अकाल क्यों पड़ जाता है. यह एक
सामूहिक साजिश के तहत है कि इनकी आर्थिक स्थिति को कभी भी इतना बेहतर न होने दिया
जाय कि चाहकर भी वे इस नारकीय जीवन से निकल पायें और पीढ़ी दर पीढ़ी मरने के लिए
अभिशप्त रहें. वैज्ञानिक तरक्की का ढोल पीटने व मंगल ग्रह पर जाने के लिए पैसे
बहाने वाले भारत के पास इतना पैसा व तकनीक अथवा मशीन क्यों नहीं कि किसी सीवर अथवा
सेप्टिक टंकी की सफाई हेतु किसी इंसान को मजबूर न होना पड़े. कभी तह में जाने की
कोशिश में हमारे दिमाग में यह सवाल क्यों नहीं आता कि स्वच्छ भारत बनाने की
प्रक्रिया में सफाई से जुड़े लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए हम क्या कर रहे
हैं.
कुल मिलाकर यह उपेक्षा हमारे राष्ट्रीय चरित्र का हिस्सा है. हम
बड़े धार्मिक लोग हैं और हमारी धार्मिकता के गहरे में सदियों से गंदगी करने वालों की
बजाय सफाई करने वालों के प्रति घृणा का भाव रहा है. हमारी पवित्रता इतनी कच्ची रही
है कि किसी के स्पर्श मात्र से अपवित्र हो जाती है. तो ऐसे में यदि सफाई करना
घृणित कार्य है तो इस घृणित कार्य को करने वाले लोग नहीं होने चाहिये. सभी महान
कार्य क्यों न करें.
ऐसे में थोड़ी देर के लिए अपने संस्कारित दिमाग से सोचने की बजाय
सहज भाव से विचार करने की जरुरत है कि सफाई व स्वच्छता की लड़ाई में सीवर अथवा
सेप्टिक टैंक में मरने वाले इंसान को शहीद का दर्जा क्यों नहीं ? यद्यपि इसे स्वीकार कर
पाना उतना सहज नहीं है, हम कैसे भूल सकते हैं कि यह धरती उसकी भी है, भले ही धरती
पर राज करने वाले लोग मानें या न मानें.
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