किशोर मन की मासूम जिद को बयां करती किताब

"दीपक की चमक में आग भी है
दुनिया ने कहा परवानों से
परवाने मगर ये कहने लगे
दीवाने तो जलकर देखेंगे..."

एक पुरानी फिल्मी गीत के इन पंक्तियों को राजेंद्र कृष्ण ने लिखा था कभी. ये बोल पुराने तो हैं, लेकिन कितने पुराने ?? साल-दो साल, दस साल, बीस-पचास, सौ साल  -- आखिर कितने पुराने !! फिर से सुनिये - 'परवाने मगर ये कहने लगे / दीवाने तो जलकर देखेंगे...'

'दीवाने तो जलकर देखेंगे !' - ये दावा आखिर कितना पुराना है. नि:संदेह पुरातन, सबसे पुराना. बेहोशी का अंधेरा जैसे ही छंटता है, होश की पहली किरण के साथ पहली घोषणा इसी बात की होती है कि 'देखेंगे !' इसमें जोखिम लेने एवं चुनौती की गूंज है लेकिन नफरत एवं घृणा जनित हिंसा अथवा आक्रमण की धमकी नहीं. इसमें प्रेममय सृजन हेतु कुर्बानी की जिद है.

झूठी शान, झूठी इज्जत का अहंकार लिए एक पिता अपने बच्चों को दुनियादारी, व्यवहारिकता व समझदारी के नाम पर जब नफरत का पाठ पढ़ा रहा होता है तभी उस नासमझ बच्चे अथवा किशोर के अंदर कोमल सी जिद आकार लेने लगती है जिसे वह किशोर 'प्रेम' कहता है और मन ही मन दुहराता है -'देखेंगे !' नीरज यादव के पहले उपन्यास '52 Seasons of Love' को पढ़ते हुए
किशोर मन की मासूम जिद के आगे झुकना पड़ता है, पाठक के रूप में अनायास ही हम थोड़े और विनम्र हो जाते हैं. पाठक की विनम्रता से मेरा आशय बहुत पढ़े-लिखे होने के अहंकार की हवा-हवाई से नीचे जमीन पर उतरना है जो एक किताब को पढ़ते हुए समानांतर रूप से पाठक हवा में उड़ने की कोशिश करने लगता है. इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक को अपनी धारणाओं, मान्यताओं के केंचुल को उतारना ही होगा और जैसे ही यह केंचुल उतरता है,  उसके सामने दो बच्चे स्वाभाविक रूप से खेलते-कूदते बड़े होने लगते हैं. दो बच्चे हैं - एक लड़का और एक लड़की. उनका स्कूल जाना, कुछ सालों के लिए बिछुड़ जाना और फिर कॉलेज में उनका मिलना - सब सहज रूप से आपके सामने घटित होता चलता है. बचपन की स्मृतियों से गुजरना, उनके बीच के आकर्षण को आप अनायास ही मुस्कुराते हुए अपने सामने देखने लगते हैं. नि:संदेह आपसे यानी पाठक से ऐसा करा लेना लेखक के रूप में नीरज यादव की सफलता है. 

सब यदि सहज ही है, आसान है तो फिर ऐसा क्या है जो इसे किस्सागोई के योग्य बनाता है अर्थात वह खास बात क्या है जो इसे सुनाने व सुनने लायक अथवा लिखने व पढ़ने योग्य बनाता है. नीरज यादव के दोनों मर्कज़ी किरदार भारत के ऐसे दो समुदायों से ताल्लुक रखते हैं जिनके बीच आज शक-शुबहा की खाई बड़ी गहरी हो चुकी है, उनके बीच नफरत की बड़ी सख्त दीवार खड़ी हो चुकी है. बिल्कुल सही, आप समझ गए - एक मुसलमान है तो दूसरा हिंदू. उपन्यास को तफ्सील में बताने का कोई मतलब नहीं. फिर भी यह क़ाबिले तहरीर है कि पाठक के रूप में शुरूआत से ही आप मर्कज़ी किरदारों के दो मुख्तलिफ मजहब के होने के कारण लगातार तशद्दुद और फसादों का इंतजार करते रहते हैं. लेकिन जैसा मैंने पहले कहा था, इसे पढ़ते हुए आपको अपनी धारणाओं को हाशिए पर ले जाना ही होगा क्योंकि जैसा इस किताब के टाइटल से साफ होता है - प्रेम साल के हर मौसम, हर दिन की घटना है और न्यू इंडिया के इस कठिन दौर में मोहब्बत ही एक नई सहर, एक नई सुबह लेकर आयेगी - तमाम शुब्हात के बीच नीरज यादव की किताब इस बात की तस्दीक करती है.
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टिप्पणियाँ

  1. कहने को शब्द नहीं ।जितनी भी तारिफ की जाय कम है।नीरज सर के सोच को सलाम ।
    इन्तजार रहेगा आगे भी की आप ऐसी ही सारगर्भित सोच को आगे बढ़ाते रहे यही मंगल कामना ।

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