भीड़-भारत
गुज़रे
महीने यूरोप यात्रा के दौरान एक दिन हमनें गौर किया कि चिकनी सड़कों के दोनों ओर
करीने से सजे हुए खुबसूरत भवन तो हैं लेकिन लोग कहाँ हैं. चलती हुई गाड़ी से बड़ी
मुश्किल से एक या दो महिला-पुरुष के दिखने पर हममें से कोई अनायास ही बोल पड़ता – “दिखे
!!” इसके बरक्स हमारे यहाँ हर ओर लोगों का जत्था, लोगों
की भीड़. भीड़-भाड़ में भारत बसता है. भीड़-भाड़ में भारत बसता रहा है.
इस भीड़
में एक व्यक्ति भी होता है - एक व्यक्ति जिसकी अपनी निजता होती है, अपना
परिचय और जो अपने कृत्यों के लिए जवाबदेह होता है. तो जब तक किसी व्यक्ति की पहचान
बची रहती है और भरी भीड़ में वह अपनी अलग राय रखने व व्यक्त करने में सक्षम हो तब
तक उम्मीद बची रहती है. चिंता इसी बात की है कि बदले दौर में यह उम्मीद समाप्त
होती जा रही है. देखने में यह एक व्यक्ति, अकेला बड़ा
कमजोर मालूम पड़ता है लेकिन मजेदार पहलू है कि व्यक्ति के अकेले होने मात्र से, उसकी
निजता से, उसके अलग अस्तित्व के ख्याल मात्र से राजाओं,
तानाशाहों, धर्म-गुरुओं की नींद उड़ने लगती है. इसलिये राजाओं, धर्म, समाज
(व परिवार भी) के ठेकेदारों की पूरी कोशिश रहती है कि एक व्यक्ति की निजता,
विलक्षणता व उसकी व्यैक्तिक
विशिष्टता (इंडिविजुअलिटी) एक हद के अंदर ही रहे क्योंकि एक व्यक्ति की आज़ाद सोच
से तख़्त हिलने लगते हैं.
यद्यपि
घोषित तौर पर लोकतंत्र के केंद्र में व्यक्ति होता
है और लोकतांत्रिक माध्यम से शीर्ष पर पहुँचने वालों में कुछ (गिनती के ही सही)
ऐसे आदर्श लोग भी हुए हैं जिन्होंने व्यक्तिगत आज़ादी को तरजीह दी है,
लोकतांत्रिक माध्यम ने बहुतायत में तानाशाहों का ही निर्माण किया है. लोकतांत्रिक माध्यम
से चुने ये तानाशाह धर्म व पूँजी की जहरीली चाशनी से व्यक्तिगत विशिष्टता व उसकी
आज़ादी को मारने की निरंतर कोशिश में लगे रहते हैं. यह कोशिश लगातार चलती रही है,
बावजूद इसके जिसे हम भारत कहते हैं उसे इसी बात का तो गौरव रहा है कि हर दौर में
कुछ फक्कड़, कुछ फ़कीर, कोई
संत, कोई कवि, कोई कबीर, कोई
चार्वाक, कोई शंकर, कोई
रजनीश होते रहे हैं जिन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता/ इंडिविजुअलिटी की वकालत की व
इस कारण देश, धर्म व समाज के तात्कालीन ठेकेदारों के आँख की
किरकरी बने.
आज हमारे
साथ भारत के नाम पर जो हो रहा है उससे हर अकेला व्यक्ति जो अपनी निजी व कोई इतर
राय रखता है, आतंकित महसूस कर रहा है. नागरिक की व्यक्तिगत
स्वतंत्रता/ इंडिविजुअलिटी की बात करना इस कदर पाप हो जायेगा, यह
भारत की कल्पना से परे था. लेकिन धीरे-धीरे फिर बड़ी तेजी से भारत ने अपना नया रूप ‘भीड़-भारत’ धारण
किया है और यह भीड़-भारत निकल पड़ा है पूरी निर्ममता, पूरी
बेहयाई से एक अकेले व्यक्ति, उसकी
इंडिविजुअलिटी को मिटाने के लिए. एक अकेले व्यक्ति को घेर,
पीट-पीट कर मार देने की कायरतापूर्ण घटना को इतना सम्मान मिलेगा. अपने को आश्वस्त करते
हुए हम कह सकते हैं कि एकाध, छिटपुट घटनाओं
पर इतना हंगामा करने की जरुरत क्या है ? लेकिन यह एकाध
घटनाओं का सवाल नहीं है, जिस तरह से लोग ऐसी घटनाओं के समर्थन में उमड़
रहे हैं यह उस भारत के लिए सोच से परे है जहाँ लगभग सौ साल पहले चरम पर पहुँचे
आज़ादी के एक आंदोलन (असहयोग आंदोलन) को इस कारण रोक दिया जाता है कि चौरीचौरा नामक
छोटे से कसबे की एक उग्र भीड़ ने कुछ पुलिसकर्मियों (जो भले ही आततायी थे) को जिंदा
जला दिया था. उस आंदोलन को गाँधी ने क्यों वापस लिया, इस पर
तमाम अकादमिक बहस के बावजूद आज उस अधनंगे फ़कीर की घोषित भावना को रेखांकित करने की
जरुरत है कि ऐसी अमानवीय हिंसक घटना मेरे भारत, जिस
पर मैं गौरव करता हूँ, का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती. भीड़-भारत के लिए
गाँधी व उनकी अहिंसा भले ही उपहास के पात्र हों, अभी
भी एक व्यक्तिवादी भारत का स्वप्न शेष है और वह 1920 में गाँधी के द्वारा लिखे गए
लेख ‘The Doctrine of the Sword’ को
पढ़ता है –
“...मुझे कायरता व हिंसा के बीच किसी एक का
चुनाव करने के लिए कहा जाएगा तो निःसंदेह मैं हिंसा का चयन करुंगा. लेकिन मेरा यह
परम विश्वास है कि अहिंसा किसी भी हालत में हिंसा से श्रेष्ठतम ही रहेगा व दंडित
करने की बजाय क्षमा (माफ़) करना अधिक वीरतापूर्ण कार्य है. क्षमा वीरस्य भूषणं !
किसी असहाय अथवा मजबूर प्राणी के द्वारा क्षमा की कल्पना नहीं की जा सकती. बेचारा चूहा
किसी बिल्ली को क्या माफ़ करेगा भला ! इसलिये मैं एक मजबूर भारत की कल्पना नहीं कर
सकता, मैं कभी भी एक मजबूर प्राणी नहीं होना चाहूँगा. (I do not believe India to be helpless, I do not believe myself to be a helpless creature...)
...
.....
रुकिये, मुझे गलत मत समझिये. ताकत शारीरिक क्षमताओं से
नहीं आती, यह हमारे अंदर की अदम्य इच्छा शक्ति से आती है. इसलिये
जब मैं भारत के लिए अहिंसा के मार्ग की बात करता हूँ तो इसलिये नहीं कि वह कमजोर
है; बल्कि इसलिये कि वह अपनी ताकत व सामर्थ्य को
पहचान सकता है.
....
तो इस तरह एक अकेला अहिंसक व्यक्ति इतना सामर्थ्यवान हो सकता है कि वह एक आततायी
साम्राज्य (unjust empire) को चुनौती दे
सके. (It does not mean meek submission to the will of the evil-doer, but it means the putting of one’s whole soul against the will of the tyrant. Working under this law of our being, it is possible for a single individual to defy the whole might of an unjust empire....)”
इस तरह
स्वाभाविक है कि भारत एक अकेले व्यक्ति को अभय,
भयमुक्त व सामर्थ्यवान बनाने की परिकल्पना का नाम है लेकिन इस अकेले व्यक्ति से
तख़्त पर काबिज व्यक्ति (जो अपने को महामानव समझता है) घबराता है. इसलिये भय का, डर का
माहौल लगातार रचा-बुना गया और लगातार रचा-बुना जा रहा है. भय किससे ?
निःसंदेह एक दुश्मन से. हमारे ऊपर खतरा है – दुश्मनों का ! पैटर्न देखते जाइये –
पाकिस्तान तो दुश्मन था ही, हमारे गाँव, हमारे
मुहल्ले में सालों से संग रहने वाले – दुश्मन ! कविता लिखने वाले दुश्मन, गीत
गाने वाले दुश्मन, फिल्म बनाने वाले दुश्मन. बच्चा चोर भी दुश्मन !
हमारे चारो ओर दुश्मन ही दुश्मन हैं. दुश्मन आज के भारत की परम आवश्यकता है. तो
दुश्मन बेहद जरुरी हो गया है – देशभक्ति के लिए,
राष्ट्र की सुरक्षा के लिए, धर्म की रक्षा
के लिए. लेकिन ठहरो ! दुश्मनों की बढ़ती महत्ता के साथ हमारा बहुत कुछ खो रहा है.
वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति ‘संशयात्मा’ में
संकलित अपनी कविता में लिखते हैं –
‘जब कभी दोस्त
से ज्यादा जरूरी हमारे लिए हो उठता है एक दुश्मन
पता
नहीं किसके किये किसके लिए
कहीं
कुछ हो जाता है
हमारे
भीतर कुछ खो जाता है.”
आज रोजाना
सुनियोजित तरीके से हमें हमारे दुश्मनों से मिलाया जाता है, अब तो
ऐसा हो गया है कि हर मोड़ पर, कहीं भी, कभी
भी हमारे लिए दुश्मनों की व्यवस्था कर दी गई है. अब जीवन में दोस्तों के साथ का
आनंद नहीं, उसकी जरुरत नहीं क्योंकि दुश्मनों से भिड़ने की
कल्पना मात्र ही जीवन में अनोखा रोमांच भरने लगा है. अब हम रोज अपनी विजयगाथा लिख
रहे हैं. लेकिन इस बीच हमारा बहुत कुछ खो रहा है- करुणा
की जगह क्रोध ने ले ली, प्रेम की जगह नफरत ने; भरोसे
की जगह संदेह. खो रही है – हमारी संवेदना और अंततः मिट रहा है एक व्यक्ति का अस्तित्व
व संभावनाओं से भरा उसका परिचय और बिलीन होता जा रहा है व्यक्ति – भीड़-भारत में.
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