नए भारत में गुरुदेव की कविता ‘इंडियन प्रेयर’ की जरुरत

Where
the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom,
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom,
My Father, let my country awake.
नए भारत को लगता है कि वह
भय-मुक्त हो अपने उन्नत भाल के साथ पूरी ऊर्जा के साथ दौड़ रहा है. वह दहाड़ रहा है,
उसे लगता है उसकी दहाड़ से दूसरे भय के मारे काँप रहे हैं. दूसरों को भय से काँपता
देखता उसे खूब अच्छा लग रहा है. उसका सीना और चौड़ा हो जाता है. वह और दहाड़ने लग
रहा है, उसके संग और भी लोग दहाड़ने लग रहे हैं; फिर सब मिल कर भारत से भीड़-भारत बन
जाते हैं. इस भीड़-भारत के मन में कोई कनफ्यूजन नहीं, कोई
संशय नहीं, कोई विषाद नहीं, कोई सवाल नहीं. उसका मन अब कोई
सवाल नहीं पूछता, उसे अब कोई कनफ्यूजन नहीं, अब वह संशय या
विषाद की दशा में नहीं रहता. अर्जुन भी गजब का कनफ्यूजड चरित्र था, जब लड़ने की
बारी थी अपने ढेरों सवाल लेकर खड़ा हो गया और कृष्ण जवाब पर जवाब देते जा रहे थे
लेकिन उसके सवालों का अंत नहीं हो रहा. कृष्ण ने अपनी पूरी गीता बाँच दी, फिर
विश्व-रूप दिखाया तब जाकर अर्जुन शांत हुआ.
अर्जुन और कृष्ण
की बात पुरानी हो गई. आज के भीड़-भारत को ईश्वर के अवतार ने सीधा विश्व-रूप ही दिखा
दिया है. इसलिये अब मन में संशय,
सवाल के होने का मतलब द्रोह है – देशद्रोह, धर्म-द्रोह. बचपन
में किसी ने बताया था मन में सवाल न होने का आशय दुर्योधन होना है, समझ से पहले की
दशा या कि पशु होना है. सरकारों को सवाल से दिक्कत होती रही है और उनकी पूरी कोशिश
रहती है कि सवाल पूछने की प्रवृत्ति ही मर जाय. लेकिन लोकतंत्र में सरकारें सवाल
के केंद्र में होती हैं और नागरिकता का पहला धर्म है कि नागरिक अपने अधिकारों के
प्रति कितना सजग है, वह अपनी आज़ादी के लिए कितना सजग है क्योंकि सरकारों को
नागरिकों की आज़ादी से परेशानी होती है. इस अर्थ में बीते कुछ सालों में जो हुआ है
और जैसा हो रहा है, वह ‘इंडियन प्रेयर’ व भारत की स्वाधीनता
के लिए लड़ रहे हमारे नेताओं की कामना के बिल्कुल उल्टा है. भारत तेजी से भीड़-भारत
में बदल रहा है और उससे भारतवासी डर रहे हैं, डरे हुए हैं;
भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को मारकर नागरिक दिन प्रतिदिन प्रजा (गुलाम) बनता जा
रहा है जहाँ अपेक्षा है कि ‘मुँह खोलो तो जय-जय बोलो’. और
‘जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जायेंगे / कठघरे
में खड़े कर दिये जायेंगे / जो विरोध में बोलेंगे / जो सच-सच बोलेंगे, मारे जायेंगे.’
दिलचस्प बात है कि
‘मुँह खोलो तो जय-जय बोलो’ लिखने वाले कवि ने आगे
लिखा था ‘.... वरना तिहाड़ का ताला है’ जिसकी जरुरत नए भारत को नहीं है. कहने का
मतलब यह कि जय-जयकार न करने पर अब तिहाड़ भेजने की जरुरत नहीं, अब पुलिस की जरुरत
नहीं, अब भीड़-भारत है, वह आयेगा और अपने हिसाब से न्याय
करेगा. जाने माने चिंतक और अशोका यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रताप भानु मेहता ने
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में कहा कि
‘.... मुझे ऐसा लग
रहा है कि हमारे लोकतंत्र के साथ कुछ ऐसा हो रहा है जो लोकतांत्रिक आत्मा को खत्म
कर रहा है. हम गुस्से से उबलते दिल, छोटे दिमाग और संकीर्ण आत्मा वाले राष्ट्र के
तौर पर निर्मित होते जा रहे हैं.’
क्रोधित भीड़-भारत
की संकीर्ण आत्मा, कि वह राष्ट्रवादी है और दूसरे देशद्रोही, अंततः भारत को मार
डालेगी. इसलिये बेबस भारत जो भयभीत है गुरुदेव की प्रार्थना में शामिल हो रहा है
कि ‘ओ मेरे पिता, मेरे देश को जागृत करो जो नफरत व संकीर्णता से मुक्त हो, तार्किक हो, सत्यान्वेषी हो’ –
ओ मेरे पिता !
भयहीन मन हो जहाँ,
और जहाँ सर ऊंचा रहे सदा;
ज्ञान हो मुक्त जहाँ;
और संकीर्ण अपनी-अपनी दीवारों से
टुकड़ों में बंटी नहीं हो दुनिया जहाँ;
जहाँ शब्द आते हों सत्य के अंतस्तल से;
अश्रांत आकांक्षा जहाँ बाहें फैलाती हैं पूर्णता की ओर;
जहाँ मरे-मिटे रिवाजों के अंतहीन मरुस्थल में
सूख न चुकी हो मनीषा की निर्मल धारा;
जहाँ ले चलते तुम मन को
निरंतर-विस्तारित कर्म ओर विचारों की ओर;
स्वाधीनता के उसी स्वर्ग में
ओ मेरे पिता
जागरित हो मेरा देश !
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(गुरुदेव
की कविता का अनुवाद डॉ मंगलमूर्ति के द्वारा)
बहुत ही अच्छा लिखा है और बहुत ही समय बात कही है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंसामयिक
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंसंजय गुप्ता की ओर से धन्यवाद
जवाब देंहटाएंधनयवाद
हटाएं🙏🙏
जवाब देंहटाएंरविंद्र नाथ टैगोर की यह कविता मैंने रामशरण जोशी द्वारा लिखित एक छोटी सी पुस्तिका में आज से लगभग 10 - 12 साल पहले पढ़ी हुई थी और मुझेयह कविता बहुत पसंद आई थी। साथ ही गांधी जी का यह कथन कि मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के दरवाजे खिड़कियां हमेशा बंद रहे और उसमें बाहर की हवा ना पाए । हमारे घर की दीवारों को कोई बाहर की हवा हिला जरूर ना सके। यह 2 वाक्यांश एक कविता और एक गांधी जी का कथन, दोनों मेरे मन पर छाप की तरह थे। आज आपने इन का जिक्र किया तो मुझे बहुत अच्छा लगा। खैर एक चीज की तरफ इशारा करना है,आपने मारे जाएंगे कविता को कोट किया है; वह राजेश जोशी की कविता है । तो मेरे ख्याल से नाम भी करना चाहिए। बहुत अच्छा लेख । बहुत बधाई। शुक्रिया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद.
हटाएंVery good website, thank you. visit our site
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