चलो प्रेम पर लिखते हैं !

वे मुझसे प्रेम करते थे.
प्यार में उन्होंने मेरी किताबें पढ़ डालीं. किताबों को पढ़, वे कुनमुनाये लेकिन कुछ कहा नहीं. बाद में कुछ और रचनाएं पढ़ीं, फिर और ज्यादा कुनमुनाये; लेकिन कुछ कहा नहीं.
वे मुझसे प्रेम करते हैं.
वे अब मुझे नहीं पढ़ते हैं. अब कुनमुनाते नहीं हैं लेकिन कुछ कहते हैं – क्या लिखते हो !!! कुछ सकारात्मक लिखो. जो बढ़िया है उस पर लिखो, हमेशा कमियों – निगेटिव आस्पेक्ट पर लिखते हो. उजाले पर लिखो.
वे अब भी मुझसे प्रेम करते हैं.
वे आगे मुझे पढने के बारे में कभी सोचेंगे भी नहीं – यह तय करने के बाद उनका प्यार बढ़ गया है. अब वे मुझे और ज्यादा समझाते हैं –
“प्रेम पर लिखो !  
कभी प्रेम पर लिखो, मैं पढूंगा नहीं; लेकिन लिखो तो सही.”

तो चलिए प्रेम पर लिखते हैं – यह जानते हुए भी कि प्रेम पर लिखा नहीं जा सकता. प्रेम ओढ़ा जा सकता है, प्रेम बिछाया जा सकता है, प्रेम धड़क सकता है, प्रेम हवाओं में फ़ैल सकता है, प्रेम मौन में मुखरित हो सकता है, प्रेम बोला जा सकता है - लेकिन प्रेम पर बोलना अथवा लिखना ?? प्रेम पर ?? प्रेम में होना पर्याप्त है – शब्दों की सीमा से परे. फिर भी हम प्रेम पर बोलते हैं, प्रेम पर विचार करते हैं – प्रेम पर किताबें लिखते हैं. क्या करें - जो होता नहीं, जिसका अभाव होता है – उसकी खूब चर्चा होती है, उस पर अनेकों किताबें लिखी जाती हैं.
दुहराव की जोखिम लेता हूँ - प्रेम से भरे लोग प्रेम ही बोलते हैं. विवेकानंद भी बोलते हैं. प्रेम की बात निकलने पर त्रिकोण की बात करते हैं.
प्रेम में त्रिकोण ! डर गए न ! किसी तीसरे की उपस्थिति की कल्पना मात्र से घबराहट हो गई. तो कभी प्रेम में पड़ियेगा, कभी विवेकानंद से मिलियेगा. प्रेम में भय नहीं होता, प्रेम में डरते नहीं. खैर विवेकानंद त्रिकोण की बात करते हैं - Triangle of Love.

आप प्रेम में त्रिकोण की अपनी डरावनी व घुमावदार परिकल्पना से बाहर निकलिये. सीधी-सरल नजर से त्रिकोण को देखिये – एक त्रिकोण को बनाने के लिए आवश्यक है तीन कोणों का मिलना. विवेकानंद जिस त्रिकोण की बात करते हैं, उसका पहला कोण है – ‘Love knows no bargaining’.  

यदि कोई आकांक्षा है, यदि कोई अपेक्षा है, यदि कुछ पाने की चाहत है तो वहां प्रेम नहीं हो सकता. विवेकानंद कहते हैं – It becomes a mere matter of shop-keeping. यदि ऐसा है तो यह महज दुकानदारी है, प्रेम नहीं. इस पैमाने पर अपने आपको परखने का सवाल ही नहीं होता. ईश्वर से प्रेम तो बस इसलिये है कि वह कुछ करेगा अथवा कुछ नहीं भी करेगा तो किसी विपदा से बचाएगा. और रही किसी इंसान से प्रेम की बात – तो वह तो बस इसलिये कि वह मेरा बड़ा ख्याल रखता है, अच्छे से बोलता है इत्यादि इत्यादि. बचपन से प्रेम का जो पाठ पढ़ाया जाता है उसकी बुनियाद हमारी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं की पूर्ति में है. प्रेम इसलिये कि... प्रेम इसलिये है क्योंकि....... हम भूल जाते हैं कि विवेकानंद के त्रिकोण का पहला कोण यही है कि प्रेम के पीछे कोई ‘क्योंकि’ नहीं होता. हो भी नहीं सकता. पाने की चाहत हमें भिक्षुक बनाती है, प्रेमी नहीं.
विवेकानंद के इस त्रिकोण का दूसरा कोण है – ‘Love knows no fear.’ प्रेम की बुनियादी शर्त है, भयमुक्त होना. जहाँ भय है, वहां प्रेम नहीं हो सकता. अब हमारा प्रेम ? ईश्वर से हमारे प्रेम की बुनियाद में ही भय है – ईश्वर यदि नाराज हो गया तो ??? इस कल्पना मात्र से हमारी रूह काँप उठती है और ध्यान देने पर ख्याल आता है डरी हुई आत्मा कभी भी प्रेम नहीं कर सकती. फिर भी हम ईश्वर-प्रेम में सब कुछ – सब कुछ यानी सब कुछ करने का दावा करते रहते हैं. ईश्वर को छोड़ भी दें तो जिस इंसान से मैं प्रेम करने का दावा करता हूँ, वहां भय तो रहता ही है कि कहीं उसे बुरा न लग जाए. त्रिकोण का यह दूसरा कोण बड़ा विचित्र है – डरा हुआ इंसान प्रेम नहीं, दुकानदारी (shopkeeping अथवा bargaining) करता है. भय से बचने के लिए सुरक्षा के लिए हमारा दिमाग मोल-तोल (Bargaining) करता है, प्रेम नहीं. यानी दूसरे कोण से पहले कोण का मिलना हो गया.

और अंततः तीसरा कोण – ‘Love knows no rival.’ प्रेम में कोई प्रतिद्वंदी नहीं. कोई अन्य तीसरा नहीं, किसी त्रिकोण (!!) का भय नहीं. आखिर जिससे मैं प्यार करता हूँ, वह अप्रतिम है और फिर उसके और मेरे बीच तीसरा कौन ? प्रेम में कैसी तुलना ? प्रेम में किसी तीसरे का अस्तित्व – असंभव ! मैं इस तीसरे कोण को समझ नहीं पाता हूँ क्योंकि मैं डरा होता हूँ, क्योंकि मेरी अपनी मान्यताओं के अनुरूप कुछ अपेक्षाएं होती हैं.

तो तीन कोणों के मिलन से जो त्रिकोण घटित होता है उसे प्रेम कहते हैं. इस प्रेम को आसमानी अथवा अति-आदर्श की बात कह कर नकार देने की कोशिश भले ही की जाय, यह घटित होता ही है; भले ही कभी-कभार – पल भर के लिए ही सही. लेकिन यह घटित होता ही है हमारे जीवन में और तब हम सबकुछ भूल प्रेम को जी रहे होते हैं, बस !       

तब हम प्रेम पर बोल नहीं रहे होते है, प्रेम पर लिखी किताबों को पढ़ नहीं रहे होते हैं – बस प्रेम को जी रहे होते होते हैं. मैं जानता हूँ, उनके साथ भी ऐसा हो जाया करता है जिन्होंने मेरे प्रेम में मेरी किताबों को पढने का जोखिम उठाया था.

वे अब मुझे पढ़ने की कोशिश नहीं करते हैं. वे मुझसे प्रेम करते हैं.

और मैं प्रेम पर लिख रहा हूँ – बगैर किसी अपेक्षा के, अपने उन मित्रों के लिए जो मुझे नहीं पढ़ते.



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