जेएनयू और विष के दाँत
‘न्यू
इंडिया’ बनने के दौर में जेएनयू अनायास ही चर्चा के केंद्र में आ जाता है और इसके
संबंध में तमाम अनर्गल बातें करते हुए हम अपनी महान सोच को व्यक्त करने लगते हैं.
तमाम गलत चीजों से जोड़े जाने के बावजूद आज भी यह गिनती के उन चंद
शिक्षण-संस्थानों में है जिसका उल्लेख भारत की सरकार अथवा भारतवासी विदेश में अथवा
अपने विदेशी मित्रों से गर्व के साथ करते हैं कि हमारे पास भी एक विश्वस्तरीय
संस्थान है. हालिया चर्चा जिस कारण से उपजी है, उसमें होना तो यह चाहिए था कि हर एक आम भारतीय जेएनयू के साथ खड़ा होता
क्योंकि इस बहाने देशभर में शिक्षा के नाम पर चल रही लूट व शिक्षा क्षेत्र की
दुर्दशा पर बड़े सवाल खड़े हो सकते थे. लेकिन हमेशा की तरह उसका ध्यान दूसरी ओर भटक
ही गया.
अब एक
ही स्कूल में, एक ही कॉलेज में, एक ही जेएनयू में ठेले वाले, फेरी वाले, गरीब
किसान, चपरासी, क्लर्क के बच्चे बड़े साहबों के बच्चों के साथ बैठकर पढ़ाई करें तो
बुरा लगना लाजिमी है –“...भिखमंगा कहीं का ! बराबरी करता फिरता है !”
देखते-देखते
शिक्षा के सारे केंद्र - स्थानीय स्तर पर प्राइमरी स्कूल से लेकर उच्चतम पढ़ाई के
संस्थान लाभ कमाने के केंद्र या कि लूट के अड्डे बन चुके हैं. यह सब हमारी आँखों
के सामने घटित हुआ है. हम अपने गांव-शहर के सरकारी स्कूलों-कॉलेजों को तो बर्बाद
होने से नहीं बचा पाये; ऐसे
में एकाध बचे हुए संस्थान, जहाँ एक आम आदमी की संतति अपने
सपनों को साकार कर सके, को अपनी पहुंच से दूर करने अथवा
पूंजीपतियों के हाथों लूटे जाने की कोशिश का विरोध करने की बजाय हमने
तरह-तरह से तंज कसना शुरू किया –
“दस
रूपये में पानी का बोतल नहीं मिलता, उतने में...”
एक कर्मचारी ने फेसबुक पोस्ट पर तंज कसा –
“इतनी
कम पेंशन में कैसे गुजारा होगा ? सोचता हूं रिटायरमेंट के बाद जेएनयू में एडमिशन ले लूं !”
होना तो
यह चाहिए था कि एक आम भारतीय यह सवाल करता कि पीने के पानी की यह दशा क्यों है और
जेएनयू के लड़कों के साथ खड़ा हो जाता. कर्मचारी ‘इतनी कम पेंशन में कैसे गुजारा
होगा ?’ के सवाल के साथ डंडों से
पिट रहे लड़कों के आगे खड़े हो जाते. लेकिन नहीं...
लेकिन
नहीं, नव-निर्माण के लिए पुराने
को मिटाना है और हम बहुत कुछ नया बनाने के लिए पुराने को मिटा रहे हैं. बस देखते
जाइए नया क्या बन रहा है और पुराना क्या मिट रहा है.
न्यू
इंडिया की नवनिर्माण गाथा को छोड़कर सब्सिडी के लगातार बजते ढोल को तथ्यपरक नजर से
देखने पर साफ़ दिखता है कि बड़ी सब्सिडी/छूट जिन्हें मिलती है, विकास के नाम पर उसकी कोई चर्चा नहीं
होती. पूंजीपतियों के लिए किसानों की जमीन औने पौने कीमत पर अधिग्रहित किया जाना -
सब्सिडी या छूट की श्रेणी में तो आता ही नहीं. इस पाखंडी प्रवृत्ति पर विस्तार से
दो लेख लिखे थे - 'चमकते भारत में दुखिया का दुख.' यद्यपि ये लेख थोड़े पुराने हो गए हैं, इन्हें पढ़ा
जा सकता है. स्थिति और बदतर हुई है.
कम कीमत
या सब्सिडी पर सुविधाओं की उपलब्धता और इनके और इनके औचित्य के शोर के बीच समझने
की सहूलियत हेतु एक उदाहरण पर विचार किया जा सकता है. हम सब ने सरकारी विभागों, कंपनियों आदि के ट्रांजिट हाउस,
गेस्ट हाउस अतिथि गृह देखे होंगे. इस अतिथि गृह में ठहरने खाने आदि
की सुविधा कितने रुपए में उपलब्ध है और इन सुविधाओं का उपभोग कौन करता है ?
क्या यह सुविधा किसी चपरासी, क्लर्क अथवा आम
किसान के लिए उपलब्ध होती है ? तो नगरों-महानगरों यथा लखनऊ
दिल्ली मुंबई में दस रूपये या सौ रूपये में तीन सितारा अथवा पांच सितारा सुविधाओं
की उपलब्धता, वह भी आर्थिक दृष्टि से कई गुना संपन्न चंद
लोगों के लिए क्यों !! हमने कभी इस सब्सिडी पर विचार किया ??
क्या कभी चर्चा की है कि टैक्सपेयर की मेहनत का पैसा किन पर लुटाया जा रहा है और
उसके लाभार्थी कितने लोग हैं ? इसके (अथवा इस बर्बादी के)
औचित्य पर कहीं कोई सवाल नहीं उठता, कहीं कोई शोर नहीं मचता
क्योंकि सब ठीक है. सब ठीक है के इस मिथक/भ्रम को तोड़ती है - एक अच्छी शिक्षा.
असमानता की गहरी होती खाई को शिक्षा से ही पाटा जा
सकता है. अवसर की समानता उपलब्ध कराकर ही चंद प्रतिशत लोगों के वर्चस्व को कम किया
जा सकता है और शिक्षा ही वह माध्यम है जो पीढ़ियों की असमानता को प्रभावी ढंग से
दूर कर सकती है और संसाधनों पर काबिज वर्चस्वशाली संपन्न वर्ग इस असमानता को खत्म
नहीं होने देना चाहता. वे कभी नहीं चाहते कि उनके अपने बच्चों के दाँत -'विष के दाँत' टूटे.
नलिन विलोचन शर्मा की कहानी 'विष के दाँत की याद है न. सेन
साहब कैसे चाहेंगे भला कि आउटहाउस में रहने वाले किरानी (क्लर्क) गिरधरलाल का बेटा
उनके बेटे (खोखा) की बराबरी कर ले - '...भिखमंगा कहीं का !
खोखा की बराबरी करता फिरता है !'
तो
शिक्षा को महंगा करना क्यों जरूरी है इस षड्यंत्र को समझते हुए उसे नितांत सस्ते
दर पर उपलब्ध कराने की जिद पर अड़े रहना अपनी आजादी को सुनिश्चित करना है जिसकी
बुलंद आवाज जेएनयू से सुनाई पड़ती है.
अपनी
जिंदगी में एक आम आदमी अपनी कमाई का एक अंश (सवा रूपये, ग्यारह, इक्कीस,
इक्यावन रूपये...) मंदिर में प्रसाद के रूप में चढ़ाते हुए कामना करता है कि उसका
बच्चा पढ़ ले, तरक्की कर ले. कहने का मतलब निजी जिंदगी में उसे शिक्षा चाहिए,
तरक्की चाहिए और इसी की पूर्ति हेतु वह मंदिर में प्रसाद चढ़ाता है. प्रसाद भी
अपनी कमाई का एक अंश मात्र, सर्वस्व नहीं. तो सार्वजनिक जीवन में, सरकारों की
प्राथमिकता में शिक्षा की जगह कुछ और हो जाए - मंदिर या मूर्ति हो जाए तो संविधान
प्रदत्त नागरिक अधिकारों के ऊपर खतरा मंडराने लगता है.
इसलिए
जेएनयू के साथ खड़ा होना संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों के लिए खड़ा होना है;
इन्हीं अधिकारों के कारण हमारी आजादी है. इस तरह जेएनयू के संघर्षरत उन लड़कों के साथ साथ खड़ा होना अपनी आजादी के लिए खड़ा होना है. भारत भारत के लोगों से बनता है और इसीलिए भारत की
आजादी भारत के आम लोगों की आजादी से तय होती है - सरकार व सरकार के सिस्टम, परंपरागत दृष्टि से मजबूत लोगों के बरक्स एक
अकेले आम आदमी की आजादी कितनी है।
हम बड़ी मोहब्बत से एक सरकार चुनते हैं; नि:संदेह लोगों के भरोसे से चंद लोगों को सरकार बनाने व चलाने का मौका मिलता है। किसी दल अथवा व्यक्ति विशेष का समर्थक होने में कोई बुराई नहीं लेकिन अपने आपको सरकार का एजेंट बना लेना या एजेंट मान लेना, अंततः लोकतंत्र के खात्मे व व्यक्तिगत स्वतंत्रता की समाप्ति की ओर ले जाता है। भूलने की जरूरत नहीं कि चुने हुए लोग हमारे एजेंट अथवा प्रतिनिधि होते हैं, हम सरकार के एजेंट नहीं। सरकार का अपना सिस्टम होता है उसे हर घड़ी जांचते-परखते रहना, कसौटी पर कसते रहना उस आम आदमी अथवा आम नागरिक का प्रथम व सबसे महत्वपूर्ण दायित्व है जिसने बड़ी मोहब्बत से उस सरकार को चुना है। इसलिए कसौटी पर खरे न उतरने की दशा में सवाल करना व विरोध करना एक आम नागरिक का पहला धर्म है। किसी का समर्थन करने व उसे सरकार बनाने का मौका देने का मतलब यह कतई नहीं कि हम उसके खूंटे से बंध गए, उसकी गुलामी करने के लिए मजबूर हो गए। इसलिए आवाज उठाने वाले छात्रों, पुलिस के द्वारा डंडे खाने वाले इन बच्चों के साथ खड़ा होना अंततः अपने आप को बचाना है, अपने नागरिक धर्म को बचाना है.
हम बड़ी मोहब्बत से एक सरकार चुनते हैं; नि:संदेह लोगों के भरोसे से चंद लोगों को सरकार बनाने व चलाने का मौका मिलता है। किसी दल अथवा व्यक्ति विशेष का समर्थक होने में कोई बुराई नहीं लेकिन अपने आपको सरकार का एजेंट बना लेना या एजेंट मान लेना, अंततः लोकतंत्र के खात्मे व व्यक्तिगत स्वतंत्रता की समाप्ति की ओर ले जाता है। भूलने की जरूरत नहीं कि चुने हुए लोग हमारे एजेंट अथवा प्रतिनिधि होते हैं, हम सरकार के एजेंट नहीं। सरकार का अपना सिस्टम होता है उसे हर घड़ी जांचते-परखते रहना, कसौटी पर कसते रहना उस आम आदमी अथवा आम नागरिक का प्रथम व सबसे महत्वपूर्ण दायित्व है जिसने बड़ी मोहब्बत से उस सरकार को चुना है। इसलिए कसौटी पर खरे न उतरने की दशा में सवाल करना व विरोध करना एक आम नागरिक का पहला धर्म है। किसी का समर्थन करने व उसे सरकार बनाने का मौका देने का मतलब यह कतई नहीं कि हम उसके खूंटे से बंध गए, उसकी गुलामी करने के लिए मजबूर हो गए। इसलिए आवाज उठाने वाले छात्रों, पुलिस के द्वारा डंडे खाने वाले इन बच्चों के साथ खड़ा होना अंततः अपने आप को बचाना है, अपने नागरिक धर्म को बचाना है.
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