विरोधी होना अपराधी होना नहीं है !

विरोधी होना अपराधी होना नहीं है. नि:संदेह समर्थन में बोलने वाले अच्छे लगते हैं और विरोध करने वाले अच्छे नहीं लगते. समझ कहती है ऐसा होना एक मानवीय कमजोरी है और हमें ऐसी प्रवृत्ति से बचना चाहिए. समझ कहती है, समर्थन व विरोध को तर्क की कसौटी पर कसते हुए विचार करते रहना. लेकिन जब विरोध करने वाले दुश्मन लगने लगें, अपराधी लगने लगें तो एक बर्बरता, एक मूढ़ता का जन्म होता है जो अंततः व्यक्तिगत स्तर पर व समाज के स्तर पर बड़ा घातक साबित होता है. हाँ में हाँ मिलाने की प्रवृत्ति के मुकाबले विरोध व सवाल करने की प्रवृत्ति के कारण ही इंसान अपनी यात्रा में कुछ बेहतर कर पाया है. इसके बरअक्स सवाल करने अथवा विरोध को बर्दाश्त न कर पाने की कमजोरी आदमी को हिंसक बनाती है, उसे बर्बर बनाती है. हमने धार्मिक मामलों में विरोध को पाप की श्रेणी में रखने की मूढ़ता की है और मानव जाति आज भी इस मूढ़ता के खतरनाक परिणाम झेलने के लिए अभिशप्त है.

21वीं सदी के न्यू इंडिया में सवाल करने वाले, विरोधियों के लिए नए-नए नाम गढ़े जा रहे हैं जो बेहद खतरनाक हैं व शर्मनाक भी. सवाल पूछने वाले, विरोध करने वालों को चुप करा देने की बढ़ती प्रवृत्ति अंततः भारत के मूल चरित्र का हरण कर लेगी. विश्वास करवा लेने की धूर्तता व विश्वास कर लेने की मूर्खता के खतरे को लेकर स्वामी विवेकानंद चेताते हुए कहते हैं -
       “दो तरह के खतरे दुनिया में हैं. एक तो धूर्तों से और दूसरा मूर्खों से. नब्बे प्रतिशत मूर्ख उसकी (धूर्तों की) बातों को मान लेंगे. बातों को मान भर लेना उनका काम है. ....बिना सोचे-विचारे विश्वास करना तो आत्मा का पतन है. तुम नास्तिक भले ही हो जाओ, परंतु बिना सोचे-विचारे किसी चीज में विश्वास न करो. तुम क्यों अपनी आत्मा को पशुओं के स्तर में ले जाओ ? ऐसा करके तुम केवल अपने को ही हानि नहीं पहुंचाते, बल्कि समाज तथा आने वाली पीढ़ी को भी. तनकर खड़े हो, अंधविश्वास छोड़कर तर्क करो.”
बुद्ध के हवाले से विवेकानंद आगे कहते हैं – “किसी बात में इसलिए विश्वास न कर लो कि उसे लोग अंधों की तरह मानते हैं. अपने आप सोचो, विश्लेषण करो और तब यदि निष्कर्ष तुम्हें बुद्धिसंगत तथा सबके लिए हितकर लगे, तो उसमें विश्वास करो और उसे अपने जीवन में डाल लो.”

विवेकानंद धार्मिक आस्थाओं को भी तर्क की कसौटी पर कसने का आग्रह करते हुए कहते हैं कि बिना सोचे-विचारे विश्वास करना आत्मा का पतन है. कहने का मतलब कि तर्को, सवालों, विरोधियों की संभावना को समाप्त करने की कोशिश अंततः व्यक्ति, समाज अथवा देश को पतनशील बनाने की कोशिश है.

सामाजिक/राजनीतिक विरोध : विरोध करने व विरोध सुनने के लिए साहस की जरूरत होती है. यहां विरोध से आशय है जो मजबूत स्थिति में है, उसके विरुद्ध खड़ा होना. जो मजबूत है वह तो कायदे-कानून बनाता है और अपेक्षा करता है कि उसके बनाए कायदे-कानून के मुताबिक सभी बगैर किसी विरोध के बस चुपचाप चलते रहें. भले ही कानून बनाने का अधिकार उसे प्राप्त हो, भले ही कानून लागू करने का अधिकार उसे हो, यदि कोई कानून अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण हो या फिर कानून को लागू करने का तरीका गलत हो तो उसका विरोध करना एक व्यक्ति का, व्यक्तियों के समूह अथवा आम जनता का अधिकार है. विवेकानंद इससे जुड़े एक दिलचस्प अंतर्विरोध को रेखांकित करते हुए कहते हैं –
       राजा जो प्रजा-समष्टि का शक्ति केंद्र है, वह बहुत जल्दी भूल जाता है कि शक्ति उसमें इसलिए संचित हुई है कि वह फिर लोगों में हजार गुनी बँट जाए. ......वह सब देवत्व अपने में ही आरोपित कर दूसरों को हीन मनुष्य समझने लगता है. उसकी इच्छा का, चाहे वह भली हो या बुरी, विरोध करना ही महापाप है. यदि समाज बलहीन रहा तो सब कुछ चुपचाप सह लेता है और राजा-प्रजा दोनों ही हीन से हीनतर अवस्था को प्राप्त होकर शीघ्र ही किसी दूसरी बलवान जाति के शिकार बन जाते हैं. पर यदि समाज-शरीर बलवान रहा, तो शीघ्र ही अत्यंत प्रबल प्रतिक्रिया उपस्थित होती है - जिसकी चोट से छत्र, दण्ड, चँवर आदि बड़ी दूर जा गिरते हैं और सिंहासन अजायबघर में रखी हुई पुरानी अनूठी वस्तुओं के सदृश हो जाता है."

विवेकानंद की उपरोक्त पंक्तियों को बार-बार पढ़ने व दुहराने की जरूरत है. वे सत्ता के बरक्स समाज-शरीर के बलवान होने की बात करते हैं. सत्ता में बैठे लोगों को यह बात नहीं सुहाती है. आजकल एक बात अक्सर दोहराया जाती है - "आप हमारा विरोध तो कीजिए लेकिन देश का विरोध मत कीजिए." यह तर्क प्रत्येक सवाल के विरुद्ध खड़ा किया जाने लगा है - "....लेकिन देश का विरोध तो मत कीजिए." इस तर्क में ही छुपा है कि उनके विरोध का मतलब देश का विरोध है. यह नैरेटिव लगातार गढ़ते हुए सरकार के किसी भी विरोध को राष्ट्र विरोधी साबित करना बेहद खतरनाक है. सत्ता में नागरिकों का विलीन हो जाना अंततः गुलामी की ओर ले जाता है। नागरिकों से सब कुछ मान लेने की अपेक्षा करना एक खतरनाक दुराग्रह है. विवेकानंद की ही एक पंक्ति है, "यदि मनुष्य को सब कुछ मानने और करने पर बाध्य किया जाए तो उसे पागल हो जाना पड़ेगा."

संख्या बल का भय रचकर आज के भीड़-भारत में मनवा लेने की बढ़ती प्रवृत्ति डर पैदा करती है. जबरन मनवाने की ज़िद व मान लेने की मूढ़ता अंततः राष्ट्र को कमजोर बनाती है क्योंकि तब सोचने समझने की तर्कशील शक्ति मरने लगती है और हाँ में हाँ मिलाने वाली चाटुकारी शक्तियां सत्ता के केंद्र में आ जाती हैं. यह बार-बार साबित होता रहा है कि भक्ति पसंद/ चाटुकार पसंद सरकारों ने देश को कमजोर किया है. यही कारण है कि विवेकानंद जिस मजबूत समाज-शरीर की बात कर रहे हैं उसे संविधान निर्माताओं ने संविधान में अनुच्छेद 19 के रूप में शामिल किया. संविधान नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकार देते हुए सुनिश्चित करता है कि नागरिक अपनी बात रखने के लिए संगठन बना सकते हैं, कहीं भी एकत्रित हो सकते हैं. कहने का आशय है कि विरोध करना, बोलना न केवल संविधान प्रदत्त अधिकार है बल्कि नैतिक भी है और यह राष्ट्र विरोधी न होकर देश को, देश के लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए आवश्यक भी है.

विरोध का तरीका क्या हो ?
       नि:संदेह अहिंसक सत्याग्रह ! महात्मा गांधी के इस प्रयोग के सिवाय अन्य कोई भी तरीका सफल नहीं हो सकता. महात्मा गांधी किसी भी अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण कानून को मानने से इनकार करते हुए पूर्णतया अहिंसक रहने की बात करते हैं. मशहूर फिल्म ‘गांधी’ का एक डायलॉग उल्लेखनीय है जिसमें गांधी कहते हैं -
".... हमारे साथ जो करना है, वो करें; मगर हम वार नहीं करेंगे, हत्या नहीं करेंगे. लेकिन उंगलियों के निशान भी नहीं देंगे, कोई भी नहीं देगा. वो कैद में डालेंगे, वो जुर्माना करेंगे, वो हमारा सामान जब्त करेंगे; पर किसी की इच्छा के विरुद्ध उसका आत्मसम्मान हरगिज़ नहीं छिन सकेंगे वो लोग.
..... वो हमें पीटेंगे, सतायेंगे - ऐसी हालत में हमें सामना करना होगा उनका; उनके गुस्से का सामना. लेकिन उसे भड़कायेंगे नहीं हम. कोई वार नहीं करेंगे पर उनको झेलेंगे जरूर हम; और यूं दुःख पाकर उनको समझायेंगे कि यह सरासर अन्याय है. इससे तकलीफ जरूर होगी जो हर लड़ाई में होती है. पर हम हारेंगे नहीं, हरगिज़ नहीं. वो मुझे यातना पहुँचायें, मेरी पसलियां तोड़ डाले या जान भी ले लें; इससे उन्हें मेरी लाश तो मिलेगी, मेरी हुक्मबरदारी नहीं।"

प्रतिक्रिया में हिंसक हो जाना सरल है, सहज है. लेकिन अहिंसक रहना क्यों आवश्यक है, महात्मा गांधी 1931 में भगत सिंह के साथ फांसी पर चढ़ने वाले शहीद सुखदेव के एक पत्र के जवाब में समझाते हैं -

(1) इससे (हिंसा से) कोई भला होने की बजाय सरकार को सख्त कदम उठाने का बहाना मिला है.
(2) ..... कुछ समय के लिए वहां के लोगों को मुसीबतें झेलनी पड़ी हैं और उनका मनोबल गिरा है.
(3) इनसे (हिंसा से) लोगों में जागृति पैदा करने में किसी भी तरह से कोई मदद नहीं मिली है.
(4) इन गतिविधियों का जनता पर दोहरा बुरा प्रभाव पड़ा है क्योंकि बढ़े हुए खर्चों का भार और सरकार के गुस्से को अप्रत्यक्ष रूप से जनता को ही झेलना पड़ता है.
(5) .....हिंसा की बजाय अहिंसा से उन्हें (सरकार को) ज्यादा खतरा महसूस होता है. उसे (सरकार को) हिंसा से निपटना आता है, लेकिन अहिंसा से वह बहुत ज्यादा बौखलाई हुई है जिसने उसकी चूलें हिलाकर रख दी हैं.

जैसा पहले कहा था प्रतिक्रिया में हिंसक हो जाना सरल है लेकिन अहिंसक रहना, अहिंसक रहते हुए टिके रहने के लिए एक समझ, एक नैतिक बल चाहिए, अदम्य साहस चाहिए व चाहिये पर्याप्त सावधानी ताकि सत्ता को दमन व विरोध को बदनाम करने का बहाना न मिल सके. यह मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं. बीसवीं सदी में भारत के आम, कमजोर, बेबस, डरे-सहमे लोगों ने अपने अंदर उस साहस का संचार किया था जो अन्याय का प्रतिकार कर सके.

कुल मिलाकर अपनी आजादी - नागरिक आजादी को बचाए रखने के लिए विरोध - अहिंसक विरोध आवश्यक है. विरोध लोकतांत्रिक राष्ट्र को  जीवित रखता है; उसकी व्यवस्था को और न्यायपूर्ण व समतामूलक बनाता है. अतः  लोकतांत्रिक राष्ट्र को बचाए रखना है तो सवाल करने, विरोध करने की शक्ति को बचाए रखिए और उसका इस्तेमाल करते रहिये. फिर कहने की जरूरत नहीं कि विरोधी होना अपराधी होना नहीं है.

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