आओ, प्रेम पर लिखते हैं ! - भाग - दो

वागर्थ के अक्तूबर अंक में वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति की एक बड़ी प्यारी कविता छपी है – ‘दो से शुरू करें’. कविता का सन्दर्भ दूसरा है. इसलिये उस कविता को अपनी सुविधानुसार उद्धृत करने की गुस्ताख़ी पर माफी मांग लेते हैं. वैसे भी कविताओं व शब्दों को अपनी समझ के अनुसार समझने की स्वतंत्रता तो रहती ही है, भले ही समझदार होने का दावा करने वाले विद्वान फतवा जारी करते रहें. और बात जब प्रेम की हो तो वैसे भी हर ओर प्रेम ही नजर आता है. तो ऐसे में प्रेम से भरे एक हृदय को यह कविता अलग ढंग से छूती है –

       “छाती से लगा लूं
       उर में भर लूँ शीतलता
       तृप्त कर लूँ तल तक स्वयं को”

यह जानते हुए भी कि सब कुछ मेरे ही अंदर है – प्यास भी, अमृत घट भी; तुमसे लिपटने की चाहत रहती है –
       “दुर्लभ अवसर क्यों छोडूँ
       .......... गले मिलने का
       गले-गले गलने मिलने का
       जानता हुआ भी कि उर में इंदु सबके है
       बिंदु-भर इंदु सबके है.”

तुम शिकायत करते हो – भूलने की, न मिलने की जबकि तुम्हें भी मालूम है कि हम तो सदा तुम्हारे साथ ही रहे. मिलने की संभावना पर तो विचार तब करते, जब तुमसे दूर कहीं गए होते. फिर भी तुम शिकायत करते हो –
       “दो दिन में लौटने को कहा था
       और बिता आये इतने दिऽऽन”
    
और तब मौन में मुखरित कुछेक शब्द फूटते हैं –
      
       “और क्या कहता, मैंने बस यही कहा :
       हाँ, दो दिन ‘दो शब्द’ की धारा में थे
       दो ही शब्दों तक महदूद नहीं जो
       अनेकानेक शब्दों तक फैले – आशय के जलाशय तक
       क्योंकि ‘दो’ हिंदी में बहुवचन का आरंभ है
       आइये, हम दो यहीं से शुरू करें
       असंख्य तक जाता अपना बहुवचन !”


तो चलिए – दो से शुरू करें ! बस दो पर्याप्त हैं.

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