किताब एक खतरनाक चीज है !
प्रख्यात
कवि ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता है – टेलीविजन को देखो. इस कविता की कुछ पंक्तियाँ
अनायास ही झकझोरने लगती है –
‘किताब
एक खतरनाक चीज है.
आदमी
के हाथों में उसके जाते ही
सल्तनत
के पाये डगमगाने लगते हैं
किताब
की चुप्पी में बंद चीखें और ललकारें
किताब
को खोलते ही
बारूद
की गंध की तरह उठने लगती हैं
रक्त
संचार में घुलने लगती हैं
.....................’
कहते
हैं किताबें अँधेरे दूर करती हैं. इसके शब्द बोध व समझ की ज्योति लेकर आते हैं, ऐसे
में किताब को खतरनाक चीज कहना क्या वाजिब है ? कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं –
'फेंको
पुस्तक
देखो
अब शुरू होता है हमारा सबसे दिलचस्प कार्यक्रम
उसके
बाद है फिर एक उससे भी दिलचस्प कार्यक्रम
पुस्तक
को अब उठा नहीं पाओगे
बेहतर
है उसे उठाकर अलग रख दो
शेल्फ
पर टिका दो
उसमें
फँफूद लगने दो.'
लगता
है कवि की असल मंशा कुछ और है और वह तंज कसते हुए किताब बनाम टी वी की बहस में टी वी
को कोसने की कोशिश कर रहा है तो भी टीवी, जो बदलते वक्त की जरुरत है, की महत्ता को
कैसे इंकार कर सकते हैं. साथ ही टेलीविजन देखने में क्या बुराई है, यह किताब का
एक्सटेंशन ही तो है. जो काम किताबें सुस्त गति से करती थीं, टेलीविजन उसे तेजी से
करने में सक्षम है और अब तो टीवी से भी आगे का दौर है – जब पलक झपकते इंटरनेट के
माध्यम से व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्वीटर पर आधुनिक सोच का प्रसार हो जाता है. व्हाट्सएप्प,
फेसबुक, ट्वीटर पर जो है वह किताब के फड़फड़ाते पन्ने ही तो हैं. किताबों में भी
शब्द होते हैं, यही शब्द अब टेलीविजन, व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्वीटर के माध्यम से
फ़ैल रहे हैं.
गौर
कीजियेगा ज्ञानेन्द्रपति किताब की चुप्पी में बंद जिन चीखों और ललकारों का जिक्र
करते हैं, वह हवा में गूंज तो रहीं हैं. रात के अँधेरे में, सुबह के उजाले में
कागज़ पर न सही व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्वीटर पर जो खुलता है, वह बारूदी गंध ही तो
फैलाता है. सूरज ढलने के बाद बेडरूम व ड्राइंगरूम में टेलीविजन से उतर कर आज का
मसीहा हमें बारूद का बूस्टर डोज ही तो दे रहा है. पल प्रतिपल हमारी नसें उत्तेजना
में फड़फड़ाने लगती हैं. हमारी आवाज में बारूद आ चुका है, हम चलते-फिरते बम हो गये
हैं. कागज़ पर लिखे किताबों के शब्द जो न कर पाये, वह सब अतिआधुनिक स्मार्ट इंसान के
स्मार्ट मोबाइल पर उगते शब्दों ने करना आरंभ कर दिया है. रुकिये ! ठहरिये ! आज के
दौर के मुताबिक़ हड़बड़ी में निष्कर्ष पर मत पहुँचिये. ज्ञानेन्द्रपति जिस किताब की
बात कर रहे हैं, वह अभी बंद ही है और पूरी कोशिश इसी बात की है कि वह बंद ही रहे
क्योंकि -
आदमी
के हाथों में उसके जाते ही
सल्तनत
के पाये डगमगाने लगते हैं
यदि
आप देखना चाहते हों तो आप देख सकते हैं कि आपको पता नहीं चला आपकी हाथों से किताब
ले उसे फँफूद के हवाले कर आपको स्मार्ट फोन देकर किस कदर नशेड़ी बना दिया गया है.
सालों पहले मार्क्स ने कहा था – धर्म आम जनता के लिए अफीम है. आज टेलीविजन व
इंटरनेट के माध्यम से व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्वीटर पर हर पल अफीम का एक डोज मिल
रहा है. देखते-देखते हम सिपाही होते चले जा रहे हैं – अंधे सिपाही, संवेदनहीन
सिपाही. सिपाही जो मार सकते हैं किसी को भी सरेआम, कोई नहीं पूछेगा. सवाल करना तो
दूर, सवालों का ख्याल भी देशद्रोह होगा. सवाल नहीं, भक्ति चाहिए. सवाल किस लिए,
सवाल क्यों ? भक्ति के हर बूस्टर डोज में चौबीसों घंटे यही बोध दिया जा रहा है –
सवाल क्यों पूछते हो, देशद्रोही ? संदेह क्यों करते हो, धर्मद्रोही ? हर घड़ी किसी अलौकिक
विश्वरूप का दर्शन कराया जा रहा है.
तो
ऐसे में किताब याद दिलाती है कि किताबों की बुनियाद में ही सवाल है. किताबों का
जन्म ही सवालों से होता है. सवाल कुर्सी पर बैठे लोगों से, सवाल व्यवस्था से, सवाल
जड़ सोच से, सवाल गुरुओं से, सवाल पिता से, सवाल ईश्वर से भी. अर्जुन के सवाल ही तो
हैं तो जो गीता का रूप लेते हैं. श्रीकृष्ण जवाब देते जा रहे हैं लेकिन अर्जुन
सवाल पर सवाल पर करता जा रहा है. श्रीकृष्ण ने तो नहीं कहा – बदतमीज धर्मद्रोही,
संदेह क्यों करते हो ? अष्टावक्र सवाल करता हैं, नचिकेता प्रश्न पूछता है. मंडन
मिश्र शंकराचार्य से बहस करते हैं. गौतम बुद्ध का जन्म सिद्धार्थ के सवालों से ही होता है. नचिकेता
पूछता है राजा से – बूढ़ी व बीमार गायें दान में क्यों देते हो.
तो किताबों
में प्रश्न हैं, किताबों में क्रांति है. इसी क्रांति की संभावना से कुर्सी पर
काबिज आदमी घबराता है, वह नचिकेता की संभावना से घबराता है. वह घबराता है कि लोग
सवाल न पूछ बैठें. वह घबराता है कि लोग यह दावा न करने लगें कि यह देश व दुनिया
उनकी भी है. वह डरता है इस बात से कि आम आदमी की अपनी स्वतंत्र सोच भी हो सकती है.
किताबों में संभावनाओं का हाइवे न सही, एक उजली पगडंडी तो है जिसपर समझ की
प्रेमपूर्ण यात्रा संभव है. इसी समझ को मारने हेतु सारे उपक्रम सक्रिय हैं और हम
प्रेम की जगह किसी अमुक संप्रदाय, जाति अथवा किसी अमुक देश से नफरत को देशप्रेम
समझ रहे हैं.
तो
अनेकों ऐसे उदहारण मिल जायेंगे जब किताब से घबराये बादशाहों, आक्रांताओं, जड़ सोच
के झंडाबरदारों ने किताबों को जलाया हो, किताबों पर प्रतिबंध लगाया हो लेकिन
मौजूदा दौर में किताबों को अथवा उनपर प्रतिबंध लगाने की जगह एक अलग ही तरह के हथियार
का इस्तेमाल किया है और यह है – शब्द, जो अनवरत उग रहे हैं स्मार्टफ़ोनों की
स्क्रीन पर और जिन्हें स्वतंत्र, निष्पक्ष व प्रबुद्ध कहे जाने टीवी के मसीहा
लगातार दुहरा रहे हैं. पूरी कोशिश है कि मूलभूत मसलों पर सवाल न उठें, इसलिये हवाई
मसलों, आभासी व फर्जी दुश्मन का सृजन कर एक आम आदमी अपनी बुनियादी समस्या को छोड़
अपनी तरह के दूसरे आम आदमी को शक की निगाह से देखे – इसका पूरा इंतजाम है. आज जड़ता
जिस ताकत के साथ शब्दों का इस्तेमाल अपने पक्ष में कर रही है वह अनोखा है. वे फ्री
वाई-फाई, फोर जी, अनलिमिटेड डाउनलोड का अफीम बाँट रहे हैं लगातार ताकि खतरनाक
किताब ख़त्म हो जाय, हमेशा के लिए.
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