नाम छुपाना, आखिर क्यों ?

दिसम्बर 2014 की एक सर्द सुबह अखबार के साथ घर के
अन्दर एक खबर दाखिल हुई. बीते रात भारत की राजधानी में टैक्सी के अंदर एक पच्चीस वर्षीय युवती के साथ टैक्सी ड्राईवर ने बलात्कार किया था. बलात्कार की घटना हमारे महान भारत के लिये कोई ख़ास खबर नहीं होती जब तक कि पाशविकता का अतिरेक न हो जाय, फिर बीती रात घटी उस छोटी (???) सी घटना का दिलोदिमाग पर छाने का मतलब देर तक नहीं समझ पाया और खासकर तब जब कि वह युवती शराब के नशे में धुत्त थी. रात के ग्यारह बजे पब से एक खुबसूरत महिला का नशे की हालत में निकल, अकेले टैक्सी में सफ़र करना और फिर लगभग बेहोशी की दशा में बेपरवाह सो जाने पर ड्राईवर अगर स्वयं को नियंत्रित कर पाने में असफल रहा तो ऐसा कौन सा बड़ा जुर्म हो गया ! आखिर वह इतनी बेपरवाह कैसे हो सकती है ? हया की प्रतीक इतनी बेहया कैसे हो सकती है ? उस पर अगर लड़कों से गलती हो जाय तो फांसी की माँग – यह कैसा न्याय ? जन प्रतिनिधि और अगर वे नेता जी हों फिर तो अपनों की भावना का ख्याल रखना एक नैतिक दायित्व बन जाता है. इसीलिए अपने दायित्वों का निर्वहण करते हुए भावनाओं की अभिव्यक्ति भी लाजिमी है –
       “लड़कों से गलती हो जाती है, फिर क्या इस गलती के लिये उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया जाय.”
सवालों और तर्कों के झमेले में देर तक उलझे रहने के बाद घर से निकल पास के चौराहे पर खड़ा हो गया. चौराहे के पास ही शराब की एक दुकान थी जहाँ से एक व्यक्ति निकला और सड़क पैदल पार करने की कोशिश में एक कार से टकराते – टकराते बचा. एक दुर्घटना होने से रह गई लेकिन कार वाला गाड़ी से उतर उस व्यक्ति से लड़ने लगा और जैसे ही उसे राहगीर के मुँह से शराब की गंध मिली वह उस पर बुरी तरह से हावी हो गया –
“शराब के नशे में सड़क पार करते हो ! शराबी कहीं के ! अभी गाड़ी से कुचल जाते तो मजा आ जाता.”
            वहाँ गलती दोनों में से किसी की नहीं थी. चौराहे की संरचना ही कुछ इस तरह की थी कि वहाँ अक्सर छोटे – मोटे एक्सीडेंट होते ही रहते थे, लेकिन एक पक्ष को दूसरे पर चढ़ जाने का मौका मिल गया था क्योंकि दूसरे ने तथाकथित कुछ सामाजिक मान्यताओं का उल्लंघन किया था. कुछ देर तक कार वाले के लम्बे चौड़े भाषण को चुपचाप सुनने के बाद शराबी ने धीर - गंभीर आवाज में कहा –
              “भाई साहब ! आपके क्रोध का नशा उतर गया हो तो एक बात कहूँ – हो सकता है शराब पीना गलत हो लेकिन किसी के शराब पीने मात्र से उस पर अपनी गाड़ी चढ़ा देने का हक आपको नहीं मिल जाता. जिम्मेदारी मेरी भी है, लेकिन आप अपनी जिम्मेदारी कैसे भूल रहे हैं. आप किस शराब के नशे में हैं?”
                उस आदमी का जवाब सुनने के साथ ही मेरी उलझन सुलझ गयी. सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप किसी महिला के लिए लाज, शर्म या हया के मानदंड निर्धारित हैं और इन मानदंडो का पालन न होने पर वह बेहया हो जाती है. थोड़ी देर के लिए उसे अगर बेहया मान लें तो भी क्या किसी को उसके साथ बलात्कार करने का हक मिल जाता है ? लेकिन धर्म व समाज की रक्षा हेतु समर्पित जाबांज अक्सर इस हक का इस्तेमाल करते हैं और हर अनैतिक कृत्य को उचित ठहराने लगते हैं. तभी तो निर्भया के साथ निर्दयता की हद पार करने वाली घटना पर एक धर्मगुरु कहता है –
       “बलात्कार में केवल बलात्कारी ही दोषी नहीं. वह लड़की उन्हें भाई कह सकती थी. गिड़गिड़ाते हुए उनसे कहती – तुम मेरे भाई हो, धर्म भाई और मैं अबला हूँ, तुम्हें ही मेरी रक्षा करनी है. इससे उसकी लाज और जान दोनों बच सकती थी. ताली एक हाथ से नहीं बजती.”
भाई या पिता समान ! यदि सच देखने व सुनने की इच्छा हो तो बगैर किसी विशेष प्रयास के इन भाई व पिता समान भद्र इंसानों की आँखों में उतराते रंगीन सपने दिखेंगे व सच्चाई की खूँटी पर लटके पर्दे की ओट में इनकी ताकतवर हथेलियों तले दबती कातर चीखें भी सुनाई पड़ेंगी. यह कहने की जरुरत नहीं कि हमारे महान भारत में इन बातों की औपचारिक चर्चा नहीं होती और सभ्य भारतवासी परदे की बात परदे में ही रहने देना चाहते हैं. अपनी इस महान परंपरा के बावजूद कुछ ऐसी बेहया औरतें हैं जो बेपरदा हो बेशर्मी पर उतारू हो जाती हैं और अगर इन्हीं निर्लज्ज महिलाओं (जो कि मजबूरी में बनी असंख्य लाजवंतियों के मुकाबले काफी कम हैं) की आपबीती सुनें तो पायेंगे कि भारत में हर दिन 93 बलात्कार की घटना होती है (वर्ष 2013 में, नेशनल क्राइम ब्यूरो द्वारा जारी आँकड़ा). उल्लेखनीय है कि तमाम चीखें मर्यादा और लाज की ओट में दफ़न हो जाती हैं; बावजूद इसके हर दिन 93 महिलायें लाज और मर्यादा तोड़ जब थाने तक पहुँचती हैं तो एक और चौंकाने वाली बात सामने आती है कि इन 93 महिलाओं में 87 (अर्थात 94%) के साथ उनके “अपने जाननेवालों (जिनमें पिता समेत अन्य रिश्तेदार भी शामिल हैं)” ने ही जबरदस्ती की थी. ऊपर से यही लोग उसकी रक्तरंजित देह को मंच बना मर्यादा का भाषण देना शुरू कर देते हैं.
हमारे आदर्श – साधू – संत ! मोह – माया से ऊपर उठ चुके इन महात्माओं का क्या कसूर ? यह तो इंद्र की शरारत या भय है, जो स्वर्गलोक से खुबसूरत अप्सरायें इन महात्माओं के सामने प्रस्तुत करता है. इनका क्या कसूर, अगर मेनका और उर्वशी पथभ्रष्ट करने आ जाये. हमारे भारत की सनातन परंपरा आज भी जारी है. व्यंग्यात्मक लहजे में पिछली कुछ पंक्तियाँ लिखते – लिखते मन भर आया है. घिन आने लगी है, इसीलिए कुछ सीधी – सपाट बात. ब्रह्मचारी होने के पाखंड का पोल खुलने पर उर्वशी व मेनका पर दोषारोपण करते – करते यह देश पाखंडियों का देश होकर रह गया है. सोचना जरा, पंद्रह साल की एक बच्ची है लेकिन एक कामातुर आसाराम को उस बच्ची में उर्वशी नजर आने लगे तो ? फेहरिश्त लंबी है – कभी आसाराम बापू, कभी स्वामी नित्यानंद, टुन्नू बाबा, इच्छाधारी संत स्वामी भीमानंद महाराज, स्वामी विकासानंद....
बड़ी परेशानी है. किस पर भरोसा करें ? धर्म – गुरु, शिक्षक, बॉस, नेता – अभिनेता, रिश्तेदार, भाई, पिता, प्रेमी से बचती – बचाती वह बच्ची देर तक कोने में दुबके रहने के बाद आज बेहयाई का परचम लिए खड़ी है –
“सुनो ! अरे, ध्यान से सुनो ! तुम बीमार हो; जी हाँ तुम सदियों से बीमार हो और तुम्हारी बीमारी बढ़ती ही चली जा रही है. तुम इंसान बनने की जितनी अधिक कोशिश करते हो, उतने अधिक बीमार होते चले जाते हो. समझो, जाओ किसी मनस्विद से इलाज कराओ. सच को इतना क्यों छुपाते हो – सेक्स तुम्हारी सोच के केंद्र में है. तुम संयम, मर्यादा, आचार – विचार, ब्रह्मचर्य, सनातन परंपराओं की जितनी दुहाई देते हो, सेक्स तुम्हारे दिलोदिमाग पर उतने ही जोर से छाता चला जाता है और अंततः तुम हमारे तन को ही नहीं भावनाओं, मान – सम्मान को लहू – लुहान करते चले जाते हो. उसके ऊपर इंतहा कि आततायी होने के बावजूद तुम न्यायाधीश बन जाते हो...
और मैं पतिता... इज्जत के नाम पर मेरा असली नाम भी छुपाने को कहते हो; तुम जानते हो मैं अबला हूँ लेकिन तुम मेरा निर्भया के रूप में महिमामंडन करना शुरू कर देते हो. लेकिन अब नहीं. लहूलुहान ही सही, मैं जी रही हूँ... और मेरी जीजिविषा बढ़ती जा रही है. मैं अभी रहूँगी. पतिता ही सही, मैं अपने नाम – बिल्कुल अपने असली नाम और अपनी देह के साथ बार – बार आती रहूँगी तब तक जब तक कि तुम अपना नाम छुपाने न लगो. इसी देह के पीछे पड़े हो न तुम, लेकिन केवल देह नहीं हूँ मैं और मान लो देह मात्र ही हूँ तो भी यह देह मेरा ही तो है केवल मेरा. मालकिन मैं ही हूँ.”      
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                         (वह नारी है... में संकलित)

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