रेड कारपेट वेलकम
बीते दिनों वे लखनऊ की धरती पर उतरे थे और हमनें
उनके लिए लाल कालीन बिछाया था. पूरे शहर को सजाया था. इस सजावट के लिये उपमा भी भक्ति
वाली ही होनी चाहिये. इसीलिए एक प्रमुख अख़बार ने मूड सेट करने के लिए लिखा –
“जैसे
कभी राम के लिए अयोध्या सजी थी, योगी सरकार ने निवेशकों के लिए लखनऊ को भी उसी तरह सतरंगी चुनरिया
उढ़ा दी है.”
उधर
सरकार के प्रतिनिधि चहक रहे थे – “लखनऊ नहीं देखा तो इंडिया नहीं देखा...”
बिल्कुल,
यहाँ कोई गरीब नहीं दिखा, कोई दुखिया नहीं दिखा; राम राज्य की तरह. आपको मालूम होना चाहिये राम
राज्य में कोई दुखिया नहीं था !! कोई रोता नहीं था. हाल के सालों में ‘न्यू इंडिया’ में भी कोई दुखिया नहीं, कोई रोता नहीं सिवाय
इक्के-दुक्के सिरफिरे अ-भक्तों के. वैसे ये अ-भक्त नहीं, कु-भक्त हैं और सही कहें
तो इनके लिए भक्त शब्द का इस्तेमाल ही ठीक नहीं, असल में ये द्रोही हैं-
विकासद्रोही, देशद्रोही, समाजद्रोही, धर्मद्रोही आदि आदि. निगेटिविटी फैला रहे ये
सिरफिरे लोग अखबार भी तो नहीं पढ़ते जो भक्ति की सही तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं.
अखबारों को पलटिये; उनका हर पृष्ठ लखनऊ
में उतर आये मसीहों के अहसान की खबर से पटा हुआ है –
“उत्तर प्रदेश पर
तोहफों की बारिश !!”
“यूपी में 4.28 लाख
के निवेश से आयेगी रोजगार की बहार.”
ये
मसीहा पुष्पक विमान में सवार हो हर गरीब प्रदेश में उतर रहे हैं और तोहफों की
बारिश कर रहे हैं; ये बात दूसरी है कि
बारिश के अभाव में या बारिश के अतिरेक में अपनी बर्बादी को बर्दाश्त न करने के
कारण लोग बगैर किसी पुष्पक विमान के ही ऊपर चलते चले जा रहे हैं, सदा के लिए. अभी कुछ महीने पहले चमकते भारत के
ये देवदूत झारखंड में उतर थे तो प्रख्यात कवि ज्ञानेन्द्रपति ने एक कविता लिखी थी.
यह कविता वागर्थ के अक्टूबर 2017 के अंक में छपी है. बहार का आनंद लेते रहिये,
मसीहों को आसमान से उतरते व फिर उड़ते देखते रहिये, निःसंदेह वे हमारा उद्धार
करेंगे, भरोसा रखिये और
अपने प्रिय कवि की उस कविता को कभी भी मत पढिये जो वागर्थ में छपी थी और जिसकी कुछ
पंक्तियाँ मैं यहाँ उतार रहा हूँ. अब आगे पढ़ने की जरुरत नहीं, इसे पढ़ना व्यर्थ है – बिल्कुल व्यर्थ. फिर मैं
उसे यहाँ क्यों उतार रहा हूँ. अरे भाई, मुझ जैसे निकम्मों के पास कोई काम नहीं
इसलिये वे उस कविता को पढ़ रहे हैं, जिसे पढ़ना मना है. खैर मुझे पढ़ने दीजिये –
लुटेरों
के लिए लाल कालीन बिछाने का चलन नया है
ये
लुटेरे हैं भी तो अलग पिछले लुटेरों से
इनके
हाथों में कहाँ हैं लपलपाती तलवारें, नुकीले बल्लभ, भरी हुई बंदूकें
इनके
हाथों में तो अभी-अभी पकड़ाए पुष्प-गुच्छ हैं जिन्हें उन्होंने
थाम रखा है कितनी शाइस्तगी से कितनी नफासत से
...........
.............
नहीं, ये वे लुटेरे नहीं जो अपने पीछे छोड़ जाते थे लहू-रंगी धरती
ये वे हैं जिनके कदमों के आगे-आगे लाल कालीन खुलता जाता है
लहू-रंगी धरती की तरह
राजकीय अतिथि हैं ये
शाही मेहमान
दूर-दूर से आये, देश-देशांतर से
इनके स्वागत में इस .... राज्य की राजधानी को
रगड़-पोंछ कर शीशमहल-सा चमका दिया गया है
जिन सड़कों से गुजरना है एअरपोर्ट से आता उनका
कार-कारवाँ
उनके मुहानों पर
उठाये गए हैं सजीले तोरण-द्वार
.......
.......
पूंजीधर पधारे हैं देश-विदेश से
विजेताओं की सम्मोहक निर्मम मुस्कान लिये चेहरे
पर
और लिए चमचमाते ब्रीफकेसों में बंद अनुबंधों के
मसौदे
जिनके बदनीयत शब्दों के बल
..... क्षितिज उलांघती उपजाऊ-खनिजाऊ भूमि
खरीदी जाएगी कौड़ियों के मोल कि ठगी जायेगी जनता
फिर-फिर
विकास के बदले लोगों को मिलेगा विस्थापन
छिनेगा जल जंगल जमीन का अपनापन
बस, बदहाली को ढंकेगा खुशहाली का विज्ञापन
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