मैं पहुँची नहीं, आई हूँ !

सालों बाद वह टीकाचक में दिखी. लोगों ने कहा – आखिर तुम पहुँच ही गईं. अलका मुस्कराई – नहीं, मैं पहुँची नहीं, आई हूँ. लोगों को कुछ समझ में नहीं आया, उन्होंने ताने मारे – तुम सीधी बात क्यों नहीं करतीं और निर्लज्जता की हद तो देखो जरा – जब मातम मनाना चाहिये यह बेशर्म चहक रही है. वह फिर मुस्कराई लेकिन कुछ कहा नहीं और अपने घर की ओर मुड़ गई. वह घर का ताला खोल रही थी, दुनिया अपनी खीज उतार रही थी – किस्मत के मारों को कौन समझाये – रानी के ठाठ थे इसके, नौकर-चाकर, गाड़ी-बंगला सब छोड़-छाड़ यह करमजली फिर से अपनी झोपड़ी वापस आ गई.
लोगों की भीड़ में तमाम ऐसे भी थे जो उससे सहानुभूति रखते थे – बेचारी, हे भगवान ऐसा किसी के साथ न हो. बेचारी की कोई मजबूरी रही होगी; नहीं तो वैभव व समृद्धि कौन छोड़ना चाहेगा.
टीकाचक में, लोगों की भीड़ में मैं भी था – ब्लैंक सा, भाव-शून्य लेकिन अलका बड़ी आकर्षक लग रही थी, एक अबूझ आभा से भरी हुई. मैं अभिभूत सा उसे निहार रहा था, ठीक उसी तरह जब गुजरे इतवार हिंदी साहित्य का एक अनोखा सितारा निजी बातचीत में कह रहा था – जमीन पर सोता हूँ, कविता लिखता हूँ.
आज जब की-बोर्ड पर शब्दों के साथ खेल रहा हूँ तो जमीन पर हूँ – समझ की जमीन पर. अलका मुस्कराई थी – मैं पहुँची नही ! कहीं पहुँचने के लिए तैयारी करनी पड़ती है, ससुराल जाने के लिए तैयारी करनी पड़ी थी. वह सजी-धजी थी, गाजा-बाजा था और वह अपने राजकुमार के संग ससुराल पहुँची थी. यह अचीवमेंट था. इस अचीवमेंट पर नाज होता था. इसलिये पहुँचने पर लोग इतराते हैं, पार्टी देते हैं, जश्न मनाते हैं.
तो पहुँचने के लिए तैयारी करनी पड़ती है, कठिन परिश्रम करना पड़ता है  – कोई यूं ही नहीं पहुँच जाता. इसलिए लोगों ने पहुँच जाने की महिमा रची है, पहुँचने वालों के लिए कसीदे पढ़े जाते हैं. पहुँचे तो ठीक, नहीं तो जीवन व्यर्थ ! चूँकि पहुँचना महत्वपूर्ण है इसके लिए इसकी तैयारी जन्म के साथ हो जाती है. सजना है, संवरना है, सलीके सीखने हैं – ससुराल जाना है.
इस पहुँचने के बरक्स आना ! आने की भी कोई चर्चा होती है क्या ?? हर शाम थके से, बुझे से आने की एक घटना हमारे जीवन में रोजाना घटित होती ही रहती है. इसलिये इस बुझे से जीवन में एक किक की तलाश में हम कहीं पहुँचने का प्रयोजन करते रहते हैं. इसका मजेदार पहलू है कि बहुतायत में कोई कहीं पहुँचता भी नहीं, लेकिन पहुँच जाने का ढोंग चलता रहता है. पहुँचने के बाद क्या मिला, इससे कोई मतलब नहीं लेकिन पहुँचना जरुरी है क्योंकि हम सजे-धजे ही इसी उद्देश्य से थे. और ऐसे में ससुराल पहुँचने के बाद वापस होना पड़े तो करमजली की उपमा तो मिलेगी ही न ! सहानुभूति रखने वाले दर्द से कहेंगे – बेचारी, कितनी सुंदर है, सलीके वाली भी है फिर क्या कमी रह गई. कुछ लोग जो अधिक सहानुभूति रखते हैं और गुस्से से भरे होते हैं वे ससुराल वालों को कोसेंगे – अलका !! इतनी अच्छी !! उन बेवकूफों को उसकी अच्छाई नहीं दिखी !!
उस दिन टीकाचक में जब लोग दर्द से भरे थे, हवाओं में शिकायतों का बोझ भारी था; मुझे अलका बड़ी आकर्षक लगी थी क्योंकि वह श्रद्धा से भरी हुई थी, उसके ह्रदय में शिकायत नहीं धन्यवाद था. वह मानो कह रही हो – “तुम्हारी बात मान लेते हैं – जब कुछ टूटता है तो बुरा लगता है. लेकिन टूटने व जुड़ने से परे भी कुछ होता है. शिकवे-शिकायतों के पार बहुत कुछ बचा रहता है और हम शिकायतों के दलदल में डूबने से बचे रह सकते हैं. सितारों ने संकेत किया है. सितारे संकेत करते हैं, हमें समझना चाहिये. पहुँचने के नाम पर होने वाली कसरत में तुम्हारी ज़िन्दगी व जवानी निचुड़ रही होगी और तुम्हें इसका अहसास भी न हो इस हेतु समय-समय पर तुम गाजे-बाजे का इंतजाम करते हो किसी और स्टेशन पर पहुँचने के अनुष्ठान में जुट जाते हो. अंततः जब तुम पूर्णतया निचुड़ जाते हो, धकेल दिये जाते हो अंधेरे में और इस धकेले जाने की घटना को तुम्हारा घर आना कहते हैं. लेकिन मेरा घर आना भिन्न है, अभी पर्याप्त जिन्दगी बची है व जवानी भी. और सुनो फ्रेंच दार्शनिक रूसो की एक बात मैं कभी नहीं भूलती कि मैं औरों से बेहतर भले ही न हूँ, औरों से भिन्न अवश्य हूँ. फिर वह अनोखा साहित्यकार कहता तो है, समझ सको तो समझो उसकी बात – जमीन पर सोता हूँ, कविता लिखता हूँ. न समझे तो बस इतना समझना – घर आई हूँ, जवान हूँ, जिंदा हूँ और जिंदा ही रहूंगी – मरूंगी नहीं, कभी भी नहीं.”
(बर्षा परमानी मैम को समर्पित)

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय ब्लॉग

आदमी को प्यास लगती है -- ज्ञानेन्द्रपति

पैर'नॉइआ और प्रॉपगैंडा (Paranoia और Propaganda)

गिद्ध पत्रकारिता

हिन्दी में बोलना “उद्दंडता” है !