ताकि मंदिर-मस्जिद पवित्र बना रहे !

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:.
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:.
                           -अथर्ववेद

       जिस कुल में नारियों की पूजा होती है, उस कुल में दिव्यगुण, दिव्य भोग और उत्तम संतान होती हैं और जिस कुल में स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वहां जानो उनकी सब क्रिया निष्फल हैं.

       धार्मिक प्रावधानों व धार्मिक लोगों की महिमा अपरंपार है. आसाम में स्थित कामाख्या मंदिर का नाम अवश्य ही सुना होगा. हमारी अलौकिक परंपरा कि इस मंदिर के गर्भगृह में स्त्री की योनि की प्रतिमा स्थापित है. यही नहीं इस मंदिर में बारिश के मौसम में एक मेला लगता है . हो सकता है इस मेले से आप परिचित हों- अंबुबाची मेला. यदि आपको पता नहीं तो आप चकित हो सकते हैं कि चार दिवसीय इस मेले का आयोजन कामाख्या देवी के मासिक धर्म का उत्सव मनाने के लिए होता है क्योंकि इस अवधि में ही देवी अपने मासिक धर्म से गुजर रही होती हैं.
       एक ओर अथर्ववेद का श्लोक तो दूसरी ओर कामाख्या देवी के योनि की पूजा और मासिक धर्म का उत्सव – भारतवर्ष का यह तथ्य तमाम नारीवादियों, जिसमें सीमोन द बोउवार भी शामिल हैं, की विवेचनाओं को गलत ठहराने के लिए काफी है. ऐसे में आपके मन में ख़याल आ सकता है कि इट हैपेन्स ओनली इन इंडिया.
       रुकिए, किसी नतीजे पर पहुँचने से पहले जरा आँख खोलिए और देखिए, कान से सुनिए – कुछ महिलाएँ चीख रहीं हैं. अगर आप देखना चाहते हों तो देखेंगे कि सच ही तो कहा था – इट हैपेन्स ओनली इन इंडिया. आपको दिखेगा कि भारत के जिस मंदिर में योनि की मूर्ति है, जहाँ मासिक धर्म के अवसर पर उत्सव मनाते हुए मेला लगता है वहाँ मासिक धर्म से गुजर रही नारी का प्रवेश प्रतिबंधित है.
       अथर्ववेद के कहे मुताबिक हम नारी की पूजा तो कर सकते हैं लेकिन उसे मंदिर या दरगाह में प्रवेश कर पूजा करने की आज़ादी नहीं दे सकते – यह एक ऐसा चरित्र है जिसे समझ पाना मुश्किल है और विशेषकर तब जब महिलाओं को सदियों से धर्म, ईश्वर, परंपरा, लोक-लाज के नाम पर तरह – तरह की बीमारियों से ग्रस्त कराया जाता रहा है. वह देख नहीं पाती, वह सुन नहीं पाती, वह समझ ही नहीं पाती कि क्या हो रहा है; और यदि देख भी लेती है तो उसे लगता है – इसमें क्या खास है, यह तो होता ही है. सालों पूर्व मेरी एक महिला मित्र शनि शिंगणापुर गई थीं. उस छोटे से गाँव से लौटने के पश्चात उन्होंने बड़े चाव से उसके बारे में बताया था. वे चकित थीं कि आज के जमाने में एक ऐसा भी गाँव है जहाँ लोग दरवाजे पर ताला नहीं लगाते, कोई वृद्ध बीमार नहीं पड़ता, कभी चोरी नहीं हुई. आपस में कोई लड़ता नहीं, सब प्रेम से और खुश रहते हैं. यह सब इस वजह से कि गाँव के रक्षार्थ एक काला पत्थर है. ये काला पत्थर कोई मामूली पत्थर नहीं बल्कि ये ही तो शनि भगवान हैं – शनि शिंगणापुर में .
       पिछले दिनों तृप्ति देसाई और उनकी भूमाता ब्रिगेड के कारण जब शनि शिंगणापुर ने सबका ध्यान आकृष्ट किया तो मुझे अपनी उस महिला मित्र का ख्याल आया. मैंने उनसे पूछा कि सालों पूर्व जब वे वहाँ गईं थीं तो क्या उन्होंने शनिदेव की पूजा नहीं की थी. इस पर उन्होंने कहा उन्हें ध्यान नहीं, हो सकता है – वे बाहर ही रूक गईं हों. ध्यान तो तब आया होता, जब कोई नई बात हुई होती. सदियों से दिलो दिमाग में लगातार एक बात ही तो ठूँसी गई है कि उसका तन अपवित्र है – यही उसका संस्कार है. इसलिए किसी भी संस्कारी महिला को मंदिरों में प्रवेश से रोके जाने पर अटपटा नहीं लगता; यह तो आजकल की कुछ बिगड़ी हुई या नए संस्कार निर्मित करने की कोशिश करती कुछ महिलाएँ हैं जो शांति भंग कर रही हैं या उथल – पुथल पैदा कर रही हैं. इन महिलाओं की जिद (या दुस्साहस) के कारण चर्चा होने लगी है कि महिलाओं से भयभीत ईश्वर या उसके विविध रूप केवल शनि शिंगणापुर में ही नहीं रहते, वे केरल के सबरीमाला श्री अयप्पा मंदिर, हरियाणा के कार्तिकेय मंदिर, असम के बरपेटा मठ समेत अनेकों पवित्र धर्म स्थली में रहते हैं. ईश्वर को इन अपवित्र महिलाओं से बचाने के लिए भक्तगण डटे हुए हैं. भक्ति का आलम ये कि वे इसे सुनिश्चित करने के लिए अपनी जान दे सकते हैं, इन बिगड़ी महिलाओं की जान ले सकते हैं. लेकिन ये बिगड़ी महिलाएँ और भी अटपटे सवाल कर रही हैं – शंकराचार्य की पीठ पर महिला नहीं, पोप महिला नहीं, ग्रंथी महिला नहीं, मौलाना महिला नहीं, हाजी अली दरगाह में महिला नहीं.... भले ही इन बिगड़ी महिलाओं को प्रचार की भूखी कहा जा रहा हो, वे कहती हैं उनकी भी धार्मिक आस्था है जिसके कारण वे मंदिरों में पूजा – अर्चना करना चाहती हैं. शनि शिंगणापुर आंदोलन का नेतृत्व कर रही तृप्ति देसाई का कहना है –
       “मैं हर शनिवार उन्हें तेल चढ़ाती हूँ और उपवास करती हूँ. आखिर मेरे स्पर्श से वे (शनि देव) कैसे अशुद्ध हो जाएँगे ? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं एक औरत हूँ.”
       इसी तरह भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ी महिलाएँ मुंबई के हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी के विरुद्ध आवाज उठा रही हैं. इस संगठन की सह संस्थापिका ज़ाकिया सोमन एक अंग्रेज़ी दैनिक को दिये साक्षात्कार में कहती हैं –
       “...... आज से 1400 साल पूर्व कुरान ने महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिया लेकिन पुरुषीय वर्चस्व को बनाए रखने के लिए मुल्लाओं ने महिलाओं को उनके अधिकार नहीं दिये.”
       विरोध कर रही महिलाओं से धर्म व धार्मिकों को भले ही ख़तरा हो, ये महिलाएँ धार्मिक भावना से ओत – प्रोत ही दिखती हैं. तृप्ति देसाई, भूमाता ब्रिगेड व जाकिया सोमन सरीखी धार्मिक स्थलों में प्रवेश हेतु संघर्षरत महिलाओं की जब चर्चा निकली तो अनायास ही एक गुमनाम नारी का ख्याल आया. वह इन आधुनिक और झंडा बुलंद करती महिलाओं के विश्वास पर हँसती है. वह कोई प्रसिद्ध नारी नहीं है लेकिन......
       एक अति पिछड़े देहात में उसने जन्म लिया. उसके घर में दिवाली की रात घर के कुलदेवता की पूजा की जाती थी. इस पूजा में घर की बेटियाँ शामिल नहीं हो सकती थीं और तो और इस पूजा को देखने तक की इजाज़त बेटियों को नहीं थी. जब वह थोड़ी बड़ी हुई तो इस पूजा को देखने हेतु ताका-झांकी करने लगी. माँ फटकारती, बड़ी बहनें समझाती लेकिन वह सवाल करती – “माँ इस पूजा में शामिल होती है, भाभी भी कुलदेवता की पूजा कर सकती हैं; फिर मैं क्यों नहीं. आखिर मैं तो इस घर की बेटी हूँ.”
       समझाने की कोशिशों का अंत डांट-फटकार या एकाध थप्पड़ के साथ हो जाता और वह अपना मुँह फुलाये दिवाली मनाती. लेकिन धीरे-धीरे उसे इस तरह के विरोध में मजा आने लगा. हो सकता है इसके पीछे यह भी हो कि इस विरोध के कारण पूरे परिवार में उसकी चर्चा होती. जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, घरवाले विशेषकर उसकी माँ उससे आतंकित रहने लगी क्योंकि वह ईश्वर व पूजा-पाठ के संबंध में वह जो सवाल करती उसका जवाब देना संभव नहीं था. लेकिन अचानक एक दिन उसने विरोध करना छोड़ दिया. उसका घर वालों से एक मूक समझौता हो गया वह अब किसी पूजा-पाठ या परंपरा का विरोध नहीं करेगी बशर्ते कोई उसे किसी पूजा-पाठ करने, व्रत रखने, मंदिर जाने का ज्ञान न बखारे.
       मंदिरों/दरगाहों में महिलाओं के प्रवेश हेतु संघर्ष की चर्चाओं ने जब ज़ोर पकड़ा तो मैं उस गुमनाम नारी से उसका मत जानने गया. तृप्ति देसाई व जाकिया सोमन की चर्चा निकली तो वह मुस्करायी और उसने कुछ कहा. यहाँ आगे उसकी कही बातों को ही कागज पर उतारा है.
       जब किसी चीज को करने से आपको रोका जाय तो अच्छा लगता है यदि आप उसका विरोध करें क्योंकि यह विरोध अथवा संघर्ष आपको कुछ विशेष करने का अहसास दिलाता है. कुछ विशेष करने का यह अहसास आपके अहंकार को पोषित तो कर सकता है लेकिन आवश्यक नहीं कि इस संघर्ष से समस्या का स्थायी समाधान निकले. प्रतीकात्मक तौर पर यह तो ठीक है कि किसी सार्वजनिक स्थल (मंदिर/मस्जिद) पर लिंग, जाति, धर्म के आधार पर भेदभाव ठीक नहीं और किसी को उस सार्वजनिक स्थल पर प्रवेश से इसलिए नहीं रोका जा सकता कि वह अमुक लिंग या जाति का है. अपनी मर्जी के मुताबिक यदि कोई इन धर्म-स्थलों पर जाना चाहे तो उसे इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए. यह स्वतंत्रता तब और भी अर्थपूर्ण हो जाती है जब भारत के एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री को किसी मंदिर में केवल इसीलिए प्रवेश नहीं मिला क्योंकि वह महिला थी.
       सांकेतिक तौर पर तृप्ति देसाई या भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की जाकिया सोमन का संघर्ष बराबरी पाने का संघर्ष है. लेकिन इस संघर्ष के पीछे जिस धार्मिक आस्था के होने का दावा किया जा रहा है, ख़तरा उसी धार्मिक आस्था में है. तमाम धार्मिक मान्यताएं और उनके प्रति अंधी आस्था ही नारी के शोषण की बुनियाद तय करती है. दुनिया का कोई भी धर्म हो, नारी के मसले पर सबमें कमोबेश सहमति है. जाकिया सोमन जब हाजी अली दरगाह में प्रवेश की लड़ाई लड़ते हुए अपनी धार्मिक आस्था की दुहाई दे रही हों; उन्हें काले नकाब के पीछे अँधेरे में घुटती मुसलमान महिलायें नहीं दिखतीं. जब क़ानून और कोर्ट महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने की बात कर रहे हों, इस्लाम खतरे में है की दुहाई देकर मुसलमान औरतों को और अँधेरे में धकेल दिया जाता है. ऐसे में जाकिया कुरआन में बराबरी तलाशते हुए मुल्लाओं को कोस रही हैं. कुरआन की आयतें, जो पुरुषों को आगे रखने की बात करते हुए महिलाओं से आज्ञाकारी होने की अपेक्षा करता है और स्त्री को पुरुषों की खेती कह कर उनके उत्पीड़न को जायज ठहराता है, वे आयतें जाकिया सोमन को शायद नहीं दिखतीं. 
         इस तरह कुरआन या किसी अन्य धर्मग्रन्थ में समाधान ढूँढ़ने की बात करना एक ऐसी साजिश है जिसमें महिलायें बड़ी आसानी से बड़ी आसानी से शिकार हो जाती हैं. तमाम धार्मिक समारोहों, मंदिरों, मस्जिदों – गिरजों में स्त्रियों की बड़ी संख्या देखने को मिल जाएगी. घर व परिवार में धार्मिक व्रतों, परंपराओं के निभाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है. हर धर्म यदि फल-फूल रहा है तो इसमें महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान है. और इसी का मजेदार पहलू है कि अपनी अंधभक्ति के कारण महिलाएँ स्वयं ही महिलाओं के उत्पीड़न की वाहक हैं. वे भ्रूण हत्या में महत्वपूर्ण रोल अदा करती हैं, बचपन से ही बेटे व बेटी के बीच भेदभाव तय करती हैं, बेटी – बहू के वस्त्र व चाल- चलन पर नजर रखती हैं, विधवा को सती बनने के लिए प्रेरित करती हैं. तमाम धार्मिक बेवकूफ़ियाँ, धर्म गुरुओं का गोरख-धंधा इन्हीं आस्थावान महिलाओं के बूते ही चल रहा है. उसके चढ़ावे, उसकी कुर्बानी - उसकी अंधश्रद्धा के कारण धर्म का झंडा फहर रहा है. 
      राइट टू प्रे अभियान पर वह गुमनाम नारी कहती है – राइट टू प्रे बिल्कुल ही हास्यास्पद व बचकाना है. प्रार्थना करने का अधिकार न तो कोई दे सकता है और न कोई छिन सकता है. राइट टू प्रे से कहीं अधिक जरूरत है राइट टू पी की. आगे वह गुमनाम नारी और भी कुछ कहती है -
             “जरा रुको तो सही – ....कब तक पवित्रता सिद्ध करती फिरोगी. कब तक अपनी पात्रता का प्रमाण-पत्र लिये मंदिरों – दरगाहों में प्रवेश हेतु जिद करती रहोगी. उनका ईश्वर उन्हें वापस कर दो. अगर विचार कर सको तो करना, तुम्हारे बूते उनके पवित्रता व धार्मिकता की दुकान चल रही है और तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुम उनकी भक्त बन तमाम उम्र कमतर व अपवित्र होने की भावना के साथ घुटती रहती हो. शिंगणापुर, सबरीमाला श्री अयप्पा मंदिर, हाजी अली दरगाह के साथ-साथ उन्हें द्वारिका, रामेश्वरम, पूरी, काबा, वैटिकन सिटी, कुंभ, सब उन्हें वापस कर दो, व्रत भी दे दो, उपवास भी दे दो. कठिन है, लेकिन एक बार करके देखना, तुम्हारे शोषण की बुनियाद हिलने लगेगी. यह जीवन, अनंत आसमान तुम्हारी प्रतीक्षा में है. इस जीवन को जी लो और छोड़ दो उनके मंदिर- मस्जिद ताकि उनकी पवित्रता बनी रहे.”
                          *************
(वह नारी है... में संकलित)

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