दूधनाथ सिंह व विवेकानंद को याद करते हुए...

हिंदी के वरिष्ठ व विशिष्ट साहित्यकार दूधनाथ सिंह नहीं रहे. इस रविवार दूधनाथ सिंह व विवेकानंद को साथ-साथ पढ़ रहा हूँ. 2003 में एक महत्वपूर्ण किताब आई थी – आख़िरी कलाम. इस किताब की प्रस्तावना में दूधनाथ सिंह ने कितना सच लिखा था –
       “...हमें इस बात का डर नहीं है कि लोग कितने बिखर जायेंगे, डर यह है कि लोग नितांत गलत कामों के लिए कितने बर्बर ढंग से संगठित हो जायेंगे. हमारे राजनीतिक जीवन की एक बहुत-बहुत भीतरी परिधि है, जहाँ सर्वानुमति का अवसरवाद फल-फूल रहा है. वहाँ एक आधुनिक बर्बरता की चक्करदार आहट है. ऊपर से सबकुछ शुद्ध-बुद्ध, परम पवित्र, कर्मकांडी, एकान्तिक लेकिन सार्वजनिक, गहन लुभावन लेकिन उबकाई से भरा हुआ, ऑक्सीजनयुक्त लेकिन दमघोंटू, उत्तेजक लेकिन प्रशान्त – सारे छल एक साथ.”
       सब कुछ फल-फूल रहा है. नितांत अकेलेपन में भी एक व्यक्ति भीड़ की तरह सोचने लगा है, भीड़ की तरह बोलने लगा है, भीड़ के खतरनाक कृत्यों को अंजाम देने लगा है. सब सही व कुछ भी गलत नहीं लगने के इस युवा दौर में हमनें अभी परसों ही विवेकानंद का नाम लिया है. आज से एक सौ सोलह साल पूर्व महज 39 साल की युवा उमर में इस धरती को छोड़कर चले जानेवाले विवेकानंद को आज के युवा भारत को पढ़ना चाहिये. 3 सितंबर 2017 के अपने ब्लॉग में धर्म के दावे व गोरक्षा पर विवेकानंद के विचारों को उद्धृत किया था. चक्करदार आधुनिक बर्बरता को साकार करने की कोशिश में लगे लोग भी जब विवेकानंद का नाम जोर-शोर से लेने लगते हैं तो किताबों में बंद विवेकानंद के शब्द फड़फड़ाने लगते हैं. 3 फरवरी 1900 को शेक्सपियर क्लब, पसाडेना, कैलिफोर्निया में दिये भाषण का एक अंश है –
      “... तुममें से जो जो किसी एक विशेष अवतार में ही सत्य एवं ईश्वर की अभिव्यक्ति देखते हैं और दूसरों में नहीं, उनके विषय में मेरा स्वाभाविक निष्कर्ष यही है कि वे किसी भी अवतार के ईश्वरत्व को नहीं जानते. ऐसे व्यक्तियों ने केवल कुछ शब्द मात्र निगल लिए हैं और जिस प्रकार राजनीतिक दलबंदी में व्यक्ति सत्यासत्य की चिंता न कर किसी एक दल का साथ देने लगते हैं, उसी प्रकार ऐसे व्यक्तियों ने भी एक संप्रदाय विशेष को ही अपना सर्वस्व मान लिया है. पर यह धर्म नहीं है. संसार में ऐसे अंधे और मूढ़ भी कई हैं, जो समीप में शुद्ध और मीठे पानी का कुआँ होने पर भी खारे कुएँ का ही पानी पियेंगे, क्योंकि उस कुएँ को उनके पूर्वजों ने खुदवाया था ! ......... धर्म ने कभी मनुष्यों पर अत्याचार करने की आज्ञा नहीं दी, धर्म ने कभी स्त्रियों को चुड़ैल और डाइन कहकर जीवित जला देने का आदेश नहीं दिया, किसी धर्म ने कभी इस प्रकार अन्यायपूर्वक कार्य करने की शिक्षा नहीं दी. तब लोगों को ये अत्याचार, ये अनाचार करने के लिए किसने उत्तेजित किया ? राजनीति ने – धर्म ने नहीं, और यदि इस प्रकार की कुटिल राजनीति धर्म का स्थान अपहरण कर ले, धर्म का नाम धारण कर ले, तो यह दोष किसका है ? अतः जब एक व्यक्ति खड़ा होकर यह कहता है कि केवल मेरा धर्म ही सच्चा है, मेरा पैगम्बर ही सच्चा है, तो वह झूठ बोलता है – उसे धर्म का ’, भी मालूम नहीं.”
    विवेकानंद भले ही कहें कि ऐसे लोगों को धर्म का ’, नहीं मालूम, ऐसे लोग बर्बर तरीके से संगठित हो चुके हैं – जिसकी ओर दूधनाथ सिंह 2003 में इशारा कर रहे थे. कोशिश तो है कि खान-पान, लिबास, बोलने, सोचने-समझने का तरीका सब एक हो. एक में एका है, एकता है, शक्ति है. पूर्वाग्रहों के बाज़ार में दुराग्रही घूम रहे हैं. ऐसे में अद्वैत आश्रम से प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य के तीसरे भाग में दुराग्रह नाम से एक चैप्टर है. इस चैप्टर की शुरूआती पंक्तियाँ हैं –दुराग्रही कई प्रकार के होते हैं. कुछ लोग शराब पीने के कट्टर विरोधी होते हैं, तो कोई सिगरेट पीने के. कुछ लोग सोचते हैं कि यदि मनुष्य सिगार पीना छोड़ दें, तो संसार में फिर से सतयुग लौट आएगा. इस अध्याय को व्यापक अर्थों में देखते हुए पढ़ना चाहिए. विवेकानंद कहते हैं – एक ऐसी स्त्री हो सकती है, जो चोरी करती हो और किसी दूसरे की थैली लेकर चम्पत होने में न हिचकती हो; पर शायद वह सिगरेट नहीं पीती. वह सिगरेट की कट्टर विरोधिनी हो जाती है और किसी को सिगरेट पीते देखकर केवल इसी कारण से तीव्र निंदा करने लगती है. इसी प्रकार एक मनुष्य दूसरों को ठगता फिरता है, पर शायद वह दुष्ट शराब नहीं पीता और इसीलिए शराब पीनेवालों में वह कुछ भी अच्छाई नहीं देखता. वह जो इतनी दुष्टता करता है, उस पर उसकी दृष्टि नहीं जाती. इन पंक्तियों को बड़े अर्थों में पढने की जरुरत है.
       इस अध्याय के अंतिम पैराग्राफ की शुरूआती पंक्तियाँ हैं – “मनुष्य में केवल विश्वास ही नहीं, वरन् युक्तिसंगत विश्वास होना चाहिए. यदि मनुष्य को सभी कुछ मानने और करने के लिए बाध्य किया जाय, तो उसे पागल हो जाना पड़ेगा.”
      माना एक में एका है, एकता है, शक्ति है लेकिन इस एक के लिए आग्रह, दुराग्रह पशुवत करने की कोशिश है. सब कुछ मानने व मनवाने के पागलपन से बचने की जरुरत है. लोग अधिक संगठित हो रहे हैं; संगठित लोगों की बर्बरता, उनके दुराग्रह से एक व्यक्ति को बचाने की जरुरत है क्योंकि भीड़ से अलग इसी एक व्यक्ति से सृजन की उम्मीद है – संगठित लोगों के हाथों होने वाले संभावित विनाश के बरक्स.

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