‘9 नवंबर’ में महात्मा गाँधी
पिछले हफ्ते महात्मा गाँधी व व उनके बड़े बेटे हरिलाल
का जिक्र निकला था. हम किसी भी मसले पर तत्क्षण ‘फाइनल जजमेंट’ देने लगते है. आसान है ऐसा करना लेकिन यह भी सच है
कि हम महात्मा गाँधी को जितना अधिक जानने का प्रयास करते हैं, उतना ही अधिक पता चलता है कि हम कितना कम जानते
हैं. फिर किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने की इतनी जल्दी क्यों, यात्रा का थोड़ा आनंद तो लिया
जा सकता है.
उपन्यास ‘9 नवंबर’ में महात्मा गाँधी के बैद्यनाथ धाम देवघर आने का
जिक्र आता है.
उस अंश को फिर से पढ़ते हैं....
रह – रह
कर उचटती नींद के बीच शेखर के दिन किसी तरह कट रहे थे कि ‘निश्चय’ में प्रकांड
विद्वान पंडित श्री हरि शंकर चौबे के पांव पड़े –
“शेखर बेटा ! ब्राह्मणों और अगड़ों के लिए आज दोहरी परीक्षा है. एक ओर
मुसलमानों के अनवरत तुष्टिकरण से सनातन धर्म पर खतरा बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर सरकार
दिनों – दिन अछूतों का दिमाग बिगाड़ती जा रही है. हमें अपने अस्तित्व की लड़ाई स्वयं
लड़नी है, लेकिन इसमें सबसे बड़ा अवरोध हमारे ही अंदर है. सवर्ण – ब्राह्मण आदि ही
जो कांग्रेसी रहे हैं या कांग्रेसियों के प्रभाव
में रहे हैं, आज की इस भयानक स्थिति के लिये जिम्मेदार हैं. इन्हीं बिभीषणों के
कारण हम हार रहे हैं. उदाहरण के लिए यहाँ के ‘मालिक’ – तुम्हारे बाबू जी. वैसे आज
मुझे आशा की एक किरण दिख रही है – कांग्रेसियों की अर्थी निकलने ही वाली है और
सबसे सुखद बात है कि आज के बच्चे और नौजवान अपनी अस्मिता को लेकर बड़े सचेत हैं. ये नौजवान ही अपनी जाति को भंवर से निकालेंगे.”
“क्या
बात है पंडित जी, इतने आकुल क्यों हैं ?”
“बेटा ! अब हद से ज्यादा हो रहा है. सारा ज्ञान,
सारी भक्ति, अध्यात्म इन पापियों के आगे व्यर्थ हो रहा है. रह – रह कर इस वृद्ध
काया में खून उबाल मारने लगता है. समूचे घोघा गाँव के ब्राह्मण – राजपूतों का खून
खौल रहा है, लेकिन हम लोग संयम से काम ले रहे हैं. यहाँ तुम्हारे पिता से मदद
मांगने आये तो उनका कहना है कि हम बेवकूफ और जाहिल हैं. उनके पास हमारी विपदा को
सुनने के लिए दो मिनट का समय भी नहीं. तुम जवान हो, हर तरफ तुम्हारे फैसले की
चर्चा है. तुम हमारी इज्जत बचा सकते हो.”
“क्या
हो गया पंडित जी; हमसे जो बन पड़ेगा जरुर करेंगे.”
“बेटा, स्वाभिमान और इज्जत से बड़ा कुछ नहीं होता.
पहले मंदिर फिर पोखर और कुआँ, सब कुछ हथियाने के बाद घोघा के दुसाधों को अब चौबे
टोले का कुआँ चाहिए. पूरे घोघा में एक यही कुआँ है जहाँ पंडितों की बहू – बेटियाँ
पानी भरती हैं, नहाती – धोती हैं. उन्हें अब ये कुआँ भी चाहिए.”
“लेकिन
पंडित जी इसमें क्या परेशानी है ? कुएँ का पानी तो सबके लिए होता है.”
पंडित श्री हरि शंकर चौबे इस सदमे के लिए तैयार
नहीं थे –
“शेखर
बाबू ! आप लोग धर्म भ्रष्ट हो चुके हैं. ब्राह्मण कुल की ये दुर्दशा ? आपके यहाँ
की रसोई और स्नान घर में क्या सभी जा
सकते हैं ?”
“हमारे
यहाँ तो ऐसा कोई भेद नहीं.”
“मुझे मालूम था इस घर से कोई मदद नहीं मिलनी.
हमें अपनी लड़ाई अपने बूते पर लडनी है. मैं कभी भी यहाँ आकर बेइज्जत नहीं होना
चाहता था लेकिन मैं घोघा के कुछ बेवकूफ जवानों के कहने पर आपके पास चला आया.
उन्होंने आपको कचहरी में मुसलमानों का दिमाग ठिकाने लगाते देखा था; सब आपके जोश को
देख आपको हिन्दू धर्म और ब्राह्मणों का रक्षक समझने लगे थे, जबकि मुझे मालूम था ये
सब भ्रम है. आप चिंता मत कीजिये हम इन दुसाधों को एक बार में ही सबक सिखा देंगे.”
“पंडित
जी, ऐसा कुछ मत कीजियेगा जो कानूनन गलत हो. समय बदल चुका है – सरकार है, पुलिस, कचहरी है.”
“शेखर बाबू, क़ानून की किताब हमें मत पढाइए. मेरे
सामने की बात है, ये दुसाध, दाढ़ी – इनकी पूरी की पूरी जाति ‘क्रिमिनल’ थी. कानूनन
बारह साल से ऊपर का हर दुसाध क्रिमिनल था, समझे. पढ़ लीजियेगा ‘दि क्रिमिनल
ट्राइब्स एक्ट’. अब सरकार ने क़ानून बदल दिया तो सब क्या धर्म और शास्त्र से ऊपर हो
गये. हिंदूओं की सरकार आयेगी तो फिर सब बदल जाएगा. क़ानून के भ्रम में ज्ञानी नहीं
पड़ते क्योंकि हम सनातनी हैं और हमारा धर्म सनातन है, शाश्वत है.”
“फिर
भी विचार कर लीजियेगा. आज का कानून कुछ और है.”
“हमें उसका भय मत दिखाइये. अरे इज्जत – आबरू नहीं,
तो जीवन का क्या मतलब ? अपने पिता जी से कह दीजियेगा वे अपनी सरकार को सावधान कर
दें. घोघा में कुछ भी हो सकता है. बचाना चाहते हों तो बचा लें अपने ‘हरिजनों’ को,
सस्साले ईश्वर के पुत्र – हरिजन.”
पंडित श्री हरि शंकर चौबे फुफकारते हुए निश्चय से
निकल गए. पंडित जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और बाबू जी के विशेष आग्रह पर
शेखर को संस्कृत पढाने के लिए छः महीने निश्चय में रुके थे. बचपन में धोती पहन
शेखर बड़ी श्रद्धा से अपने गुरु का चरण स्पर्श करता. अलका छेड़ती –
“शेखर
भैया एक दिन बढ़िया पंडित होंगे. मैं इन्हीं से सत्यनारायण भगवान की पूजा
करवाऊँगी.”
आज गुरु नाराज हो कर चला गया लेकिन गुरु की
नाराजगी ने शेखर का जी हल्का कर दिया – गुरुओं को परेशान करने वाला वह अकेला ‘गुलीवर’
नहीं है, ‘गुलीवरों’ की संख्या बढ़ रही है. बेकार बैठे शेखर की आँखें चमक उठीं –
उसे महात्मा गाँधी की याद आयी और साथ ही अब उसे एक काम मिल गया था.
“हरिजनों
के हित के लिए यदि मेरी जान चली जाती तो अच्छा होता” – आहत गाँधी जी ने देवघर में
पीड़ा के साथ कहा था. 26 अप्रैल 1934 को रात के करीब दो बजे गांधी जी जसीडीह स्टेशन
पर पहुँचे. देवताओं की धरती वैद्यनाथधाम देवघर में इस अधनंगे फकीर का स्वागत काले
झंडों के साथ हुआ –
“धर्मद्रोही गाँधी का बहिष्कार करो !”
“गाँधी का क्षय हो !”
“गाँधी देवघर मत जाओ !”
गाँधी जी जब स्टेशन से बाहर निकल कार में बैठ रहे
थे, उनकी कार पर पथराव किया गया और लाठियाँ पटकी गईं. कार की खिड़की का शीशा टूट
गया. बाल – बाल बचे गाँधी जी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के घेरे में स्टेशन से एक मील
दूर बम्पास टाउन में ठहरे. सुबह आठ बज कर पांच मिनट पर देवघर में शुरू हुई जन सभा
में एक दर्द उभरा –
“जसीडीह
में मैं मौत के मुँह से बाल – बाल बचा हूँ. हरिजनों के हित के लिए यदि मेरी जान
चली जाती तो अच्छा होता. वैद्यनाथधाम
की पवित्र भूमि पर इस तरह का आचरण कर सनातनियों ने हिंदू धर्म की मर्यादा को क्षति पहुँचाई है.”
धरती के सबसे ताकतवर साम्रज्य को ललकारने वाला
अधनंगा फकीर वैद्यनाथधाम मंदिर को छोड़ बदलाव की मशाल ले आगे निकल गया; लेकिन ये
पंडे नहीं बदले. उन्नीस साल बाद 19 सितम्बर 1958 को उस फकीर का शिष्य ‘विनोबा’ कुछ
हरिजन बच्चों के साथ भगवान शंकर के दर्शनार्थ पहुँचा तो पंडे फिर टूटे –
“धर्म की रक्षा करो”
आज भी धर्म की रक्षा हेतु फुफकारते पंडित श्री
हरि शंकर चौबे निकल चुके थे जबकि दरवाजे पर इक्कीसवीं सदी दस्तक दे रही थी. अनायास
ही शेखर फिर से धार्मिक लोगों की फुफकार के सामने खड़ा हो गया –
“ग्यारह
जुलाई को घोघा के चौबे टोले के कुएँ की मुक्ति हेतु जुलूस निकलेगा.”
घोषणा हो गई कि शेखर के नेतृत्व में दुसाधों,
मुसहरों का जुलूस निकलेगा और चौबे कुआँ को मुक्त कराया जाएगा. दुसाध व मुसहर के हर
टोले में खबर पहुँच गयी कि वे शेखर के साथ इस मुक्ति यात्रा में शामिल हों, लेकिन
अक्सर मुक्ति यात्रा सहज नहीं होती. यह भी नहीं थी. मुक्ति यात्रा शुरू होने से
चार दिन पहले ही 7 जुलाई 1986 की रात घोघा के दुसाध टोले पर बिजली गिरी – सत्रह
दुसाधों को रस्सी से बांध कर जिन्दा जला दिया गया. दहशत में जब महिलायें और बच्चे
भागने लगे तो उन मासूमों पर गोली बरसी. यह आग निश्चय तक पहुँची, बदहवासी की दशा
में शेखर बाबा नागार्जुन की एक कविता दुहराने लगा –
“.......
दिल
ने कहा – दलित माँओं के
सब
बच्चे अब बागी होंगे
अग्निपुत्र
होंगे वे, अंतिम
विप्लव
में सहभागी होंगे
दिल
ने कहा – अरे इस शिशु को
दुनिया
भर में कीर्ति मिलेगी
इस
कलुए की तदबीरों से
शोषण
की बुनियाद हिलेगी”
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