धर्म के दावे और गो रक्षा पर विवेकानंद

कुछ दिनों पहले भक्तों के उत्पात ने मेरे इस विश्वास को और पुख्ता किया कि भक्त हमेशा की तरह इस दौर का भी सबसे खतरनाक प्राणी है. ये खतरनाक प्राणी, जिनका दिलो-दिमाग गजब की एक गुलामी के प्रभाव में आ जाता है, अपने ईश्वर, आका, नेता, देश, जाति, भाषा अथवा अपनी आस्था के नाम पर बातों-बात में अमानवीय  व बीभत्स कृत्यों को अंजाम देते रहे हैं. उनका अपना तर्क होता है, मरने-मारने को तैयार यह खतरनाक प्राणी हमारे परिवार का अहम हिस्सा है. इन खतरनाक प्राणियों की बड़ी उपयोगिता रही है देश, धर्म व समाज के बनने में, इसलिये इन भक्तों को तरह-तरह की भक्ति का ओवरडोज मिलता रहता है और भक्ति की महिमा का गीत गाता हमारा सभ्य समाज कभी थकता नहीं.
भक्तिमय इस माहौल में विवेकानंद की कुछ पंक्तियों को हूबहू यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. कहने की जरुरत नहीं कि विवेकानंद को जाने अथवा पढ़े बगैर भक्तगण उनके नाम पर भी मरने-मारने को तैयार रहते हैं, अपनी सुविधा के अनुसार अपने दानवी उपक्रमों में विवेकानंद के नाम का इस्तेमाल करते रहते हैं. खैर यहाँ उनके विचार हैं, दो महत्वपूर्ण मसलों पर – प्रथम धर्म के दावे पर और दूसरा गो रक्षा पर.

धर्म के दावे पर विवेकानंद
(अद्वैत आश्रम से प्रकाशित विवेकानंद समग्र साहित्य के भाग – 2 में संकलित)

दो तरह के खतरे दुनिया में हैं. एक तो धूर्तों से और दूसरा मूर्खों से. पर इससे हमें हताश न होना चाहिए, क्योंकि दुनिया की हर बड़ी चीज के मार्ग में खतरे रहते ही हैं. किन्तु हमें सावधानी बरतनी होगी. ऐसे लोगों से हमारी भेंट होती है, जो किसी चीज़ को तर्क की कसौटी पर कसने के लिए एकदम तैयार नहीं होते. कोई भी व्यक्ति आकर कह सकता है – मुझे अमुक देवता का सन्देश मिला है. क्या तुम इसे अस्वीकार करोगे ? क्या यह संभव नहीं कि अमुक देवता हैं और अपना सन्देश भेज सकते हैं ? नब्बे प्रतिशत मूर्ख उसकी बातों को मान लेंगे. बातों को मान भर लेना उनका काम है. अगर तुम इन दो तरह के खतरों (धूर्तों व मूर्खों के खतरों) से बच सको, तो तुम संसार में कहीं भी विचरण कर सकते हो.
सच्चे धर्म में अन्धविश्वास जैसा विश्वास या आस्था नहीं होती. किसी भी महान धर्मगुरु ने ऐसा उपदेश नहीं दिया है. मूर्ख लोग इस और उस आध्यात्मिक महापुरुष के अनुयायी होने का दंभ भरते हैं, और भले ही उनमें कोई शक्ति न हो, सारी मानवता को आँखें बंद करके विश्वास करने का उपदेश देते फिरते हैं. आखिर विश्वास किसमें किया जाय ? बिना सोचे-विचारे विश्वास करना तो आत्मा का पतन है. तुम नास्तिक भले ही हो जाओ, परन्तु बिना सोचे-विचारे किसी चीज़ में विश्वास न करो. तुम क्यों अपनी आत्मा को पशुओं के स्तर में ले आओ ? ऐसा करके तुम केवल अपने को ही हानि नहीं पहुँचाते, बल्कि समाज तथा आनेवाली पीढ़ी को भी. तनकर खड़े हो, अंधविश्वास छोड़कर तर्क करो. धर्म मान्यताओं का नहीं, होने तथा बन जाने का विषय है. बुद्ध ने कहा है – “जो तुमने सुना है, उसमें विश्वास न कर लो, न इसीलिए विश्वास कर लो कि ये सिद्धांत तुम्हें पिछली पीढ़ियों से प्राप्त हुए हैं, किसी बात में इसलिये विश्वास न कर लो कि उसे लोग अंधों की तरह मानते हैं; न इसलिये विश्वास करो कि कोई वृद्ध महर्षि कुछ कह रहे हैं; न उन सत्यों में विश्वास कर लो, जिनसे अभ्यासवश तुम्हारा संबंध हो गया है; और न अपने गुरुओं अथवा वृद्धजनों के प्रमाण मात्र पर विश्वास कर लो. अपने आप सोचो, विश्लेषण करो और तब यदि निष्कर्ष तुम्हें बुद्धिसंगत तथा सबके लिए हितकर लगे, तो उसमें विश्वास करो और उसे अपने जीवन में ढाल लो.”

गोरक्षा पर विवेकानंद

अद्वैत आश्रम से प्रकाशित विवेकानंद के समग्र साहित्य के छठे भाग में वार्ता एवं संलाप नामक अध्याय के एक वाकये को यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ :-
गोरक्षण सभा के एक उद्यमी प्रचारक स्वामी जी (विवेकानंद) के दर्शनों के लिए आये. वे साधु-संन्यासियों का सा वेष धारण किये हुए थे. मस्तक पर गेरुए रंग की एक पगड़ी थी. देखते ही जान पड़ता था कि वे पश्चिमोत्तर अंचल के हैं. इन प्रचारक के आगमन का समाचार पाते ही स्वामी जी (विवेकानंद) कमरे से बाहर आये. प्रचारक ने स्वामी जी का अभिवादन किया और गो माता का एक चित्र उन्हें दिया. स्वामी जी ने उसे ले लिया और पास बैठे हुए किसी व्यक्ति को देकर प्रचारक से वार्तालाप करने लगे.
विवेकानंदआप लोगों की सभा का उद्देश्य क्या है ?
प्रचारक - हम देश की गोमाताओं को कसाई के हाथों से बचाते है. स्थान-स्थान पर गोशालाएँ स्थापित की गयी हैं, जहाँ रोगग्रस्त, दुर्बल और कसाइयों से मोल ली गउओं का पालन किया जाता है.
विवेकानंदबड़ी उत्तम बात है. सभा की आय कैसे होती है ?
प्रचारकआप जैसे धर्मात्माओं की कृपा से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से सभा का कार्य चलता है.
विवेकानंद – आपकी जमा पूँजी कितनी है ?
प्रचारक – मारवाड़ी वैश्य वर्ग इस कार्य में विशेष सहायता देता है. उन्होंने इस सत्कार्य में बहुत सा धन दिया है.
विवेकानंद – मध्य भारत में इस वर्ष भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा है. भारत सरकार ने घोषित किया है कि नौ लाख लोग अन्न-कष्ट से मर गए हैं. क्या आपकी सभा ने इस दुर्भिक्ष में कोई सहायता करने का आयोजन किया है ?
प्रचारक – हम दुर्भिक्षादि में कुछ सहायता नहीं करते. केवल गो माता की रक्षा करने के उद्देश्य से ही यह सभा स्थापित हुई है.
विवेकानंद – आपके देखते-देखते इस दुर्भिक्ष में आपके लाखों भाई कराल काल के चंगुल में फँस गए. पास में बहुत सा नकद रूपया होते हुए भी क्या आप लोगों ने एक मुट्ठी अन्न देकर इस भीषण दुर्दिन में उनकी सहायता करना अपना कर्त्तव्य नहीं समझा ?
प्रचारक – नहीं, मनुष्य के पाप कर्मफल से यह दुर्भिक्ष पड़ा था. जैसे कर्म, वैसा फल.

प्रचारक की बात सुनते ही स्वामी जी (विवेकानंद) के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और ऐसा मालूम होने लगा कि उनके नयनप्रान्त से अग्निकण स्फुरित हो रहे हैं. परन्तु अपने को संभालकर उन्होंने कहा –
“जो सभा-समिति मनुष्यों से सहानुभूति नहीं रखती, अपने भाइयों को बिना अन्न मरते देखकर भी उनकी रक्षा के निमित्त एक मुट्ठी अन्न की सहायता न दे, पर पशु-पक्षियों के निमित्त हजारों रुपये व्यय कर रही है, उस सभा-समिति से मैं लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं रखता. उससे मनुष्य समाज का विशेष कुछ उपकार होगा, इसमें मुझे विश्वास नहीं. ‘अपने कर्म-फल से मनुष्य मरते हैं !’ इस प्रकार सब बातों में कर्म-फल की दुहाई देने से जगत में किसी विषय में कोई भी उद्यम करना व्यर्थ प्रमाणित हो जाएगा. पशु-रक्षा का काम भी इसी के अंतर्गत आता है. कहा जा सकता है कि गो-माताएं भी अपने कर्म-फल से ही कसाइयों के पास पहुंचती हैं और मारी जाती हैं; अतएव उनकी रक्षा का उद्यम करना भी निष्प्रयोजन ही है.”

प्रचारक कुछ झेंपे, फिर मूल प्रसंग पर लौट कर उन्होंने कहा, “इस समिति की ओर से आपके सम्मुख भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ हूँ.”
विवेकानंद – मैं ठहरा फ़कीर आदमी, रूपया मेरे पास कहाँ है कि मैं आपकी सहायता करूँ ? परन्तु यह भी कहे देता हूँ कि यदि कभी मेरे पास धन आये तो मैं उस धन को पहले मनुष्य-सेवा में व्यय करूँगा. सबसे पहले मनुष्य की रक्षा आवश्यक है – उन्हें अन्नदान, धर्मदान, विद्यादान करना पड़ेगा.

इन बातों को सुनकर प्रचारक स्वामी जी को नमस्कार कर चले गये. तब स्वामी जी कहने लगे, “देखो, कैसे अचम्भे की बात उन्होंने बतलायी ! कहा कि मनुष्य अपने कर्म-फल से मरता है, उस पर दया करने से क्या होगा ? हमारे देश के पतन का अनुमान इसी बात से किया जा सकता है. तुम्हारे हिन्दू धर्म का कर्मवाद कहाँ जाकर पहुंचा है ! जिस मनुष्य का मनुष्य के लिए जी नहीं दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है ?”
इन बातों को कहने के साथ ही स्वामी जी का शरीर क्षोभ और दुःख से तिलमिला उठा.
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उक्त वाकये की अंतिम पंक्ति को फिर से दुहरा रहा हूँ – ‘इन बातों को कहने के साथ ही स्वामी जी का शरीर क्षोभ और दुःख से तिलमिला उठा.’ यह बातचीत 1897 की है, आज से एक सौ बीस साल पहले की – उस दौर में जब हम गुलाम थे, पिछड़े थे. इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक भारत में अब भक्तों के उत्पात, उनकी भक्ति लीला के विविध रूप को देख अब हमारा मन अथवा शरीर किसी क्षोभ व दुःख से नहीं तिलमिलाता.

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