इबादतगाह में सन्नाटा

नज़रबंदी के इस दौर में हम एक-दूसरे का हाल-चाल कुछ अधिक ही पूछने लगे हैं. रंगीलाल जी बड़े पुराने मित्र रहे हैं. इधर कई सालों से उनसे बातचीत नहीं हो पाई थी, कल उनका फोन आया, "भैया, अब तो मानोगे कि कोई केन्द्रीय शक्ति है, जो इस दुनिया को चलाती है." रंगीलाल जी बड़े भोले इंसान हैं, वे अनावश्यक समय बर्बाद नहीं करते और मौक़ा मिलते ही सबको अपने रंग में रंगने लगते हैं. मैं क्या कहता, अमूमन मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ नहीं होता और रंगीलाल जी की बात तो ठीक ही थी. हमारे लिए एक मर्कज़ी साहिबे इख्तियार तो हैं ही, जिनके ऐलान के साथ हम सब अपनी मर्जी से नज़रबंद हो गए. ये बात दूसरी है कि जोश में कुछ बड़े साहब लोगों ने घंटा बजाने व शंख पूरने के लिए सड़क पर जुलूस निकाल लिया, जबकि मस्नदनशीं साहिबे इख्तियार ने अपने-अपने घरों से न निकलने की हिदायत दी थी. हो जाता है अक्सर, दिमागी-दड़बे की दीवार-ओ-छत के बेहद मजबूत होने पर होने लगता है ये सब.
       खैर, रंगीलाल जी ने जिस केन्द्रीय शक्ति अथवा ईश्वर की बात की थी, उस ईश्वर के होने का सवाल लगातार मथता रहा है. सदियों से इंसान को इस सवाल ने परेशान किया है, आगे भी करता रहेगा; लेकिन इस नज़रबंदी के दौर में बंद मंदिर-मस्जिद, गिरजे-गुरूद्वारों से रंगीलाल जी का मोहभंग होना चाहिए, मैं ऐसा सोचता हूँ. मैं चाहता तो हूँ कि उनसे बात करूँ लेकिन बात-बेबात वे मुझे चुप करा देते हैं या मेरी बात सुनना बंद कर देते हैं. इसीलिए स्वयं से बातचीत करते हुए लिखने लगता हूँ. तो बात चल रही थी, धर्मस्थलों की. धर्मस्थलों का क्या प्रयोजन ? इतनी मुहब्बत, इतनी श्रद्धा से, कितना कुछ लुटा कर, बस्तियों को जला कर, हजारों-लाखों लोगों की बलि देकर एक ईश्वर (रंगीलाल जी की संतुष्टि के लिए अल्लाह, खुदा, गॉड आदि भी कह सकते हैं) का घर तैयार होता है. आखिर क्यों बनाया था, ईश्वर का घर ? डर कर ही सही, बनाया तो इसीलिए था न कि वह हमारी सुख-शांति सुनिश्चित करेगा, विपदा आने पर हमें बचायेगा. आज जब इबादतगाहों में सन्नाटा है और लोग अपने घरों में बैठे-बैठे अपनी मान्यताओं के अनुसार पूजा-अर्चना करने के बाद खाली समय में थोड़ा-बहुत भी यदि सोचते-विचारते होंगे तो इतना ख्याल जरूर आता होगा कि कहाँ है डॉक्टर, हॉस्पिटल-नर्सिंग होम की सुविधा कैसी होगी, वेंटिलेटर या ऑक्सीजन के इंतिज़ामात क्या हैं और तो और पैसे की क्या व्यवस्था है. चलिए, इन सबकी पूरी व्यवस्था करने के बावजूद आपकी आँखों के सामने हाईवे पर भूखे-प्यासे पैदल चलते चले जा रहे लोगों की तस्वीर तो अवश्य ही घूमी होगी, तपती धूप में शहरों से निकाले जाने वाले मानव-समूह में जीने की अदम्य लालसा लिए वह परिवार अवश्य दिखा होगा कि भारी झोला उठाये स्त्री चलती जा रही है, थक चुका पिता अपने कंधे पर अगली पीढ़ी को लिए चलता चला जा रहा है. बच जाने व बचा लेने की जिद के बीच आपको कहीं दिखा ईश्वर ? यदि आप कहते हैं कि उसी जन-समंदर में, जीने की उसकी चाह में ईश्वर है तो उन धर्म-स्थलों, इबादतगाहों की जरूरत क्या, जो बंद पड़े हैं.
       ऊम्र के लिहाज से इक्कीसवी सदी के इस जवान मुल्क की प्राथमिकताओं में बुनियादी जरूरतों, रोजगार, कॉलेज, स्कूलों, अस्पतालों की जगह यदि धर्म व धर्मस्थल थे, तो निःसंदेह उन्हें विचार करना चाहिए कि आखिर उसकी सार्थकता क्या है और जब कोई धर्म के रक्षार्थ ललकारे तो उसे नजरबंदी के ये दिन अवश्य याद करने चाहिए. ऐसे खाली समय में युवाओं को बीसवीं सदी के गुलाम एवं गरीब भारत के महज तेईस साल की उम्र में फाँसी पर चढ़ने वाले एक युवा, भगत सिंह का चंद पन्नों में सिमटा एक लेख, 'मैं नास्तिक क्यों हूँ ?' एकबार अवश्य पढ़ लेना चाहिए.

भगत सिंह प्रश्न करते हैं - "कहाँ है ईश्वर ? वह क्या कर रहा है ? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है ? वह नीरो है, चंगेज है, तो उसका नाश हो. ....मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है, जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है ? ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्व युद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया ? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल संपूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें. ... तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है. तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्म में साधू पुरुष थे. अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं. (तब) मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे. उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है."
       भगत सिंह आगे कहते हैं, "सभी धर्म, संप्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अंत में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं. राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है. ...मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन व संपत्ति लूट लो. वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं."
       मानवीय समस्याओं, परेशानियों से जूझने के लिए भगत सिंह कहते हैं, "समाज को ईश्वरीय विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा. ....उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिनमें परिस्थितियां उसे पटक सकती हैं."
       कहने का कुल मतलब कि रंगीलाल जी की यह बात कि दुनिया की सारी हलचल के पीछे कोई केन्द्रीय शक्ति है, को यदि थोड़ी देर के लिए सही मान भी लें तो वह व्यवहार में इस केंद्रीय शक्ति के नाम पर चलने वाला जो धर्म या ईश्वर दिखता है वह या तो एक आम आदमी के शोषण की बुनियाद तय करता है या स्वयं वही आदमी अमानवीय, ग़ैरइंसानी कृत्यों को उचित ठहराने लगता है. भगत सिंह धर्म के सहारे जिस शोषण के किये जाने की बात कर रहे हैं, वह हमारे जीवन में साफ़ दिखता है जब राजनेता व पूंजीपति लोगों के लिए धर्म का अफीमी डोज अपनी सुविधानुसार घटा-बढ़ा कर उन्हें लूटने एवं अपनी सत्ता व समाज के संसाधनों पर कब्जा बनाए रखने की कोशिश करते हैं. बीते कुछ सालों के भारत को यदि याद करें तो शुरूआत हुई थी विकास व महँगाई जैसे बुनियादी मसलों से जो आगे चल कर बिल्कुल गायब हो गई और एक 'भय' के इर्दगिर्द केंद्रित हो गई. भय कि खतरा है, .... .... खतरे में है; गजब यह कि तथाकथित सर्वाधिक मजबूत हाथों के होने के बावजूद एक काल्पनिक भय का ताना-बाना. बहस के केंद्र में इस बात का होना कि फलां धर्म खतरे में है, निश्चितरूपेण मूलभूत समस्याओं से भटकाना है जिसमें नुकसान होता है तो केवल और केवल आम आदमी का. दिलचस्प पहलू है कि यह कैसा धर्म होता है और यह कौन सा ईश्वर है, जिसकी रक्षा करनी पड़ती है; बेबस ईश्वर व उसका लाचार धर्म ! - इतनी छोटी सी बात को समझने में व्यक्ति की सारी तर्कशक्ति जवाब क्यों देने लगती है. सच में यह ईश्वर का मसला ही है जो व्यक्ति के अंदर तर्क, सोचने-समझने की क्षमता समाप्त कर देता है. दावा किया जाता है आप धर्म को दिमाग से, तर्क से नहीं समझ सकते. हृदय व संवेदना की बात करने वाले ऐसे धर्मभीरू लोगों की संवेदना अन्य धर्म के लोगों के लिए कैसे मर जाती है या फिर अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार तमाम बर्बर कृत्यों को जायज कैसे ठहराया जाने लगता है.
       जैसा पहले कहा था, एक व्यक्ति विशेष को ईश्वर के होने का सवाल परेशान कर सकता है. यह सवाल उस व्यक्ति विशेष को एक ऊँचाई प्रदान कर सकता है; वह गौतम या क्राइस्ट हो सकता है लेकिन किसी भी धर्म भक्त के रूप में वह खतरनाक, बेहद खतरनाक हो जाता है. किसी केंद्रीय सत्ता के होने की बात पर बुद्ध प्रासंगिक हो जाते हैं. गौतम बुद्ध ने कभी भी ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने का उपदेश नहीं दिया. इसकी जगह वे जीवनपर्यंत मनुष्य की सारी शक्ति को कर्म पर केन्द्रित करते रहे. आगे चलकर उन्होंने ईश्वर के संबंध में प्रश्नों का पूछा जाना ही बंद कर दिया. ईश्वर के संबंध में कोई चर्चा न की जाय, ईश्वर के संबंध में कोई प्रश्न क्यों न पूछा जाय, इसके लिए बुद्ध कहते हैं, "क्योंकि वे प्रश्न न तो अर्थयुक्त हैं, न धर्मयुक्त, न ब्रह्मचर्य के उपयुक्त, न निर्वेद के लिए; न विरोध के लिए." कहने का आशय कि ईश्वर के संबंध में कोई बात करना ही व्यर्थ है, बेकार है; उससे कुछ हासिल नहीं होने वाला. जब ईश्वर की हर कल्पना, हर बात व्यर्थ तो फिर ईश्वर की मूर्ति, ईश्वर की धर्मस्थली या फिर किसी इबादतगाह का क्या मतलब ?
       फिलहाल इबादतगाहों में सन्नाटा है; लेकिन सनद रहे कि गौतम या भगत सिंह की कौन सुनता है भला. हालात जब हस्ब-ए-मामूल होंगे, वहाँ फिर से रौनक छायेगी; लोग जत्थों में जायेंगे. शुक्रिया अदा करेंगे, पता नहीं किस बात का शुक्रिया, शायद स्वयं के बच जाने का और वे कभी सवाल नहीं उठायेंगे उस त्रासदी का, जिसे यह धरती झेल रही है क्योंकि यह तो होनी है. फिर भी, जब होनी को होना ही है, तो फिर उसकी जरूरत क्या है !   
-- संजय चौबे

टिप्पणियाँ

  1. The coronavirus pandemic has exposed a long-held tension between science and faith for conservative faith communities. People on the planet are doing all effort in fighting against it. Religion is a subject of faith. God helps those who help themselves.

    Conclusion is "आपकी सुरक्षा आपके हाथ" इबादतगाह तो इसलिए बन्द किए गए हैं कि वाइरस न फैले।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बस इसीलिए तो इन्हें सदा के लिए बंद कीजिए।

      हटाएं
  2. बहुत शानदार सर

    सादर
    सुनील जयपुर से

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सारगर्भित एवं सामयिक प्रस्तुति !

    जवाब देंहटाएं

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