कुछ सीता भी कहती है, चुपचाप !

यहाँ मैं अपनी ओर से कुछ लिखने से पूर्व श्रीमद् वाल्मिकी रामायण का कुछ अंश हूबहू उतार रहा हूँ. हूबहू इसलिए कि आप स्वयं ही इस पर विचार कर सकें, बगैर किसी चश्मे के. हाँ, इस अध्याय का अंत तो मेरे अपने शब्दों ही होना है. 
श्रीमद् वाल्मीकि रामायण से (हूबहू)
राक्षसराज विभीषण को लंका के राज्य पर अभिषिक्त देखकर उनके मंत्री और प्रेमी राक्षस बहुत प्रसन्न हुए. साथ ही लक्ष्मणसहित श्रीरामजी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई. इसके पश्चात श्रीराम ने हनुमानजी से कहा –
 सौम्य ! तुम इन महाराज विभीषण से आज्ञा लेकर लंकानगरी मे प्रवेश करके मिथिलेशकुमारी सीता से उनका कुशल-समाचार पूछो. तुम वैदेही को यह प्रिय समाचार सुना दो कि रावण युद्ध में मारा गया. तत्पश्चात उनका संदेश लेकर लौट आओ.”

भगवान श्रीराम का यह संदेश पाकर हनुमानजी ने लंका में प्रवेश किया और विभीषण से आज्ञा मांगी. उनकी आज्ञा मिलते ही वह अशोकवाटिका में गए. महाबली हनुमान को आया देख देवी सीता उन्हें पहचानकर मन ही मन प्रसन्न हुईं, किन्तु कुछ बोल न सकीं. चुपचाप बैठी रहीं.

      “विदेहनंदिनी ! श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण और सुग्रीव के साथ सकुशल हैं. अपने शत्रु का वध करके सफल मनोरथ हुए उन्होंने आपकी कुशल पूछी है. श्रीराम ने आपको यह संदेश दिया है – देवि ! मैंने तुम्हारे उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक प्रयत्न किया और समुद्र में पुल बांधकर रावणबध के द्वारा उस प्रतिज्ञा को पूर्ण किया.”

हनुमानजी के इस प्रकार कहने पर चंद्रमुखी सीता को बड़ा हर्ष हुआ. हर्ष से उनका गला भर आया; किन्तु वह कुछ बोल न सकीं. सीता को मौन देखकर हनुमानजी बोले –
       “देवि ! आप क्या सोच रही हैं ? मुझसे बोलती क्यों नहीं ?”

हनुमानजी के इस प्रकार पूछने पर धर्मपरायणा सीता अत्यंत प्रसन्न होकर आनंद के आँसू बहाती हुई गदगद वाणी में बोलीं –
      “अपने स्वामी की विजय से संबंध रखने वाला यह प्रिय संवाद सुनकर मैं आनंदविभोर हो गयी थी, इसलिए कुछ देर मेरे मुँह से बात नहीं निकल सकी. वानर वीर ! ऐसा प्रिय समाचार सुनाने के लिए मैं तुम्हें कुछ पुरस्कार देना चाहती हूँ, किन्तु बहुत सोचने पर भी मुझे इसके योग्य कोई वस्तु दिखाई नहीं देती. सोना, चांदी, नाना प्रकार के रत्न अथवा तीनों लोकों का राज्य भी इस प्रिय समाचार की बराबरी नहीं कर सकता.

सीताजी के ऐसा कहने पर हनुमानजी ने हाथ जोड़कर कहा –
      “सौम्ये ! आपका यह वचन सारगर्भित और स्नेहयुक्त है, अतः भांति – भांति की रत्नराशि और देवताओं के राज्य से भी बढ़कर है.”

हनुमानजी की यह बात सुनकर सीताजी ने कहा – “वीरवर ! ऐसा वचन केवल तुम्हीं बोल सकते हो. तुम वायुदेव के प्रशंसनीय पुत्र और परम धर्मात्मा हो. तुममें अनेक गुण हैं, इसमें संशय नहीं है.”

तदन्तर हनुमानजी ने सीताजी से कहा –
       “देवि ! यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं इन सभी राक्षसियों को जो पहले आपको बहुत डराती-धमकाती रही हैं, मार डालना चाहता हूँ.”

हनुमानजी के ऐसा कहने पर सीताजी ने उत्तर दिया –
       “मुझे अपने पूर्वकर्मजनित दशा के योग से यह सारा दुःख निश्चितरूप से भोगना ही था, इसलिए रावण की दासियों का यदि कुछ अपराध हो भी, तो उसे मैं क्षमा करती हूँ; क्योंकि इनके प्रति दया के उद्रेक से मैं दुबली हो रही हूँ. इस विषय में मुझे एक पुराना धर्मसम्मत श्लोक याद आ रहा है, सुनो – श्रेष्ठ व्यक्ति दूसरे की बुराई करने वाले पापियों के पापकर्म को नहीं अपनाते, बदले में उनके साथ स्वयं भी पापपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहते; अतः अपनी प्रतिज्ञा एवं सदाचार की रक्षा ही करनी चाहिए; क्योंकि साधु व्यक्ति अपने उत्तम चरित्र से ही विभूषित होते हैं. सदाचार ही उनका आभूषण होता है.”

         यह सुनकर हनुमानजी ने सीताजी से जाने की आज्ञा मांगी, तो सीताजी बोलीं – “मैं अपने भक्तवत्सल स्वामी का दर्शन करना चाहती हूँ." 
इस पर हनुमानजी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए बताया –
        “देवि ! जैसे शची देवराज इन्द्र का दर्शन करती हैं, उसी प्रकार आप भी पूर्णचन्द्र के समान मनोहर मुख वाले उन श्रीराम और लक्ष्मण को आज देखेंगी, जिनके मित्र विद्यमान हैं और शत्रु मारे जा चुके हैं.”

यह कहकर हनुमानजी उस स्थान पर लौट आये, जहाँ श्रीराम विराजमान थे और उन्होंने सीताजी का दिया हुआ उत्तर उन्हें क्रमशः कह सुनाया. हनुमानजी से सारा समाचार सुनकर श्रीराम ध्यानस्थ हो गये और कुछ देर बाद पास खड़े विभीषणसे बोले –
        “तुम विदेहनंदिनी सीता को मस्तक से स्नान कराकर दिव्य अंगराग तथा दिव्य आभूषणों से विभूषित करके मेरे पास ले आओ.”

श्रीराम के ऐसा कहते ही विभीषण ने अपनी स्त्रियों के द्वारा सीताजी के पास अपने आने का समाचार भिजवा दिया और फिर स्वयं जाकर सीता का दर्शन किया और मस्तक पर अंजलि बाँधकर विनीतभाव से कहा –
        “विदेहराजकुमारी ! आप स्नान करके दिव्य अंगराग तथा दिव्य वस्त्राभूषणों से भूषित होकर सवारी पर बैठिए. आपका कल्याण हो. आपके स्वामी आपको देखना चाहते हैं.”

विभीषण के ऐसा कहने पर सीता ने कहा – “राक्षसराज ! मैं बिना स्नान किए ही अभी पतिदेव का दर्शन करना चाहती हूँ.”

सीताजी के ऐसा कहने पर विभीषण ने उन्हें समझाया, वह बोले – “देवि ! आपके पतिदेव ने जैसी आज्ञा दी है, आपको वैसा ही करना चाहिए."
यह सुनकर सीताजी ने बहुत अच्छा कहकर श्रीराम की आज्ञा शिरोधार्य की, सिर से स्नान किया, सुंदर शृंगार किया तथा बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण पहनकर चलने के लिए तैयार हो गयीं.

तब विभीषण उन्हें एक शिविका में बिठाकर श्रीराम के पास ले आए.
भगवान श्रीराम ध्यानस्थ हैं, यह जानकार विभीषण उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक बोले – “प्रभो ! सीतादेवी आ गयी हैं.”

राक्षस के घर में बहुत दिनों तक निवास करने के बाद आज सीताजी आयी हैं, उनके आगमन का समाचार सुनकर श्रीराम को एक ही समय रोष, हर्ष और दुःख प्राप्त हुआ. तदन्तर सीता सवारी पर आयी हैं इस बात पर तर्क-वितर्कपूर्ण विचार करने के बाद भी श्रीराम को प्रसन्नता नहीं हुई. वह विभीषण से बोले –
         “सदा मेरी विजय के लिए तत्पर रहने वाले सौम्य राक्षसराज ! तुम विदेहकुमारी से कहो, वह शीघ्र मेरे पास आये.”

श्रीराम की यह बात सुनकर विभीषण ने अन्य सभी को वहाँ से हटाना आरंभ कर दिया, परंतु वहाँ उपस्थित वानरों को वहाँ से हटाये जाने पर भारी कोलाहल मच गया. तब श्रीराम ने विभीषण को समझाते हुए कहा –
         “विपत्तिकाल में, शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसरों पर, युद्ध में, स्वयंवर में, यज्ञ में अथवा विवाह में स्त्री का दिखाई देना दोष की बात नहीं है. यह सीता इस समय विपत्ति में है. मानसिक कष्ट से भी युक्त है और विशेषतः मेरे पास है; इसलिए इसका परदे के बिना सबके सामना आना दोष की बात नहीं है.”

अपने अंगों को सिकोड़ते हुए सीता श्रीराम के सम्मुख उपस्थित हुईं. उन्होंने बड़े विस्मय एवं हर्ष के साथ अपने पति के मुख का दर्शन किया. उस समय उनका मुख प्रसन्नता से खिल उठा और निर्मल चंद्रमा की भांति शोभायुक्त हो गया. 
सीता को विनयपूर्वक अपने समीप खड़ी देखकर श्रीराम ने उन्हें अपना अभिप्राय बताना आरंभ किया. वह कहने लगे – 
         “भद्रे ! समरांगण में शत्रु को पराजित करके मैंने तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ा लिया. पुरषार्थ के द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह सब मैंने किया. तुम्हारा कल्याण हो. तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो यह युद्ध का परिश्रम किया है तथा इन मित्रों के पराक्रम से इसमें जो विजय प्राप्त की है, वह सब तुम्हें पाने के लिए नहीं किया गया है. सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले हुए अपवाद का निवारण तथा अपने सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के लिए ही मैंने यह सब किया है. तुम्हारे चरित्र में सन्देह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो. जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यंत अप्रिय जान पड़ती हो. कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ बहुत दिनों तक रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगारावण तुम्हें अपनी गोद में उठाकर ले गया और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में अपने कुल को महान बताता हुआ मैं फिर से तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ?
अतः जिस उद्देश्य से मैंने तुम्हें जीता था, वह सिद्ध हो गया – मेरे कुल के कलंक का मार्जन हो गया. अब मेरी तुम्हारे प्रति ममता या आसक्ति नहीं है, अतः तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो.
अब यदि तुम चाहो, तो लक्ष्मण अथवा भरत के संरक्षण में तुम्हारे सुखपूर्वक निवास की व्यवस्था की जा सकती है.

अंत जाते-जाते सीता क्या कह जाती है.....
सीता की अग्नि परीक्षा के प्रसंग से हम सभी परिचित हैं, लेकिन अक्सर हमें इस बात का भान नहीं रहता कि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ने सीता से वह कहा होगा, जो ऊपर लिखा है. आगे की कथा आपको मालूम है फिर भी संक्षेप में दुहरा देते हैं – बड़े अरमानों के साथ वापस आयी सीता मानसिक संताप के इस हद पर पहुँच गईं कि उन्हें जलती चिता में समा जाना भी इससे कम पीड़ादायक लगा. लेकिन अग्नि, चूंकि लोकसाक्षी हैं, के लिए निर्दोष सीता को जलाना मर्यादा के विरुद्ध लगा और उन्होंने श्रीराम से कहा –
“यह मिथिलेशनंदिनी सर्वथा निष्पाप है. आप इसे सादर स्वीकार करें. मैं आपको आज्ञा देता हूँ, आप इसे कभी कठोर बात न कहें.”
यहाँ उल्लेखनीय है कि सीता को अग्नि में गिरते देख जब राक्षस, वानर व स्त्रियाँ हाहाकार कर रहे थे, तब कुबेर, इन्द्र, वरुण, ब्रह्माजी समेत समस्त देवता, ऋषि, देव, गंधर्व उपस्थित हुए थे. सभी देवताओं की ओर से ब्रह्माजी ने भी श्रीराम को उनके मूल स्वरूप की याद दिलाते हुए उन्हें रोकने की कोशिश की थी. अंततः समस्त देवों के सामने श्रीराम ने वायदा किया कि वे कभी भी सीता को नहीं छोड़ेंगे. लेकिन समय के साथ लोकसाक्षी अग्नि की आज्ञा, देवताओं व ब्रह्मा का अनुरोध व उनके समक्ष किया वायदा सब व्यर्थ हो गया और उनके अंदर के पुरुष की हीन भावना हावी हो गई,  जब लोगों ने अपनी समझ (या परंपराजनित बीमार मानसिकता) के आधार पर राम की आलोचना करनी शुरू कर दी –
“.... एक बात खटकती है. वह युद्ध में रावण को मारकर सीता को अपने घर में ले आये और सीता के चरित्र को लेकर उनके मन में कोई रोष अथवा अमर्ष नहीं हुआ. उनके हृदय में सीता – संभोगजनित सुख कैसा लगता होगा ? पहले रावण ने बलपूर्वक सीता को गोद में उठाकर उनका अपहरण किया था, फिर वह उन्हें लंका में भी ले गया और वहाँ उसने अन्तःपुर के क्रीडा-कानन अशोकवाटिका में रखा. इस प्रकार राक्षस के वश में होकर वह बहुत दिनों तक रहीं, तो भी श्रीराम उनसे घृणा क्यों नहीं करते ? अब हम लोगों को भी स्त्रियों की ऐसी बातें सहनी पड़ेंगी; क्योंकि राजा जैसा करता है, प्रजा भी उसी का अनुसरण करने लगती है.”
       राजा को मालूम था, सच क्या है. राजा से न्याय व मर्यादा के स्थापना की अपेक्षा होती है लेकिन जब राजा के अंदर का व्यक्ति हावी होने लगता है तो वह न्याय/मर्यादा की परवाह करने की जगह अपनी निजी प्रशंसा या निंदा से प्रभावित होने लगता है और तब न्याय की परंपरा को अपूरणीय क्षति उठानी पड़ती है. सोचिएगा एक पीड़िता (विक्टीम) को आज अपनी पहचान क्यों छुपानी पड़ती है; लोग बलात्कारी के साथ कुछ करें या न करें लेकिन बेचारी पीड़िता शर्म से अपना चेहरा छुपाने या आत्महत्या को क्यों मजबूर हो जाती है ? कहीं इसके जड़ में राम राज्य की वह परंपरा तो नहीं जब एक राजा अपनी निजी छवि की बहुत चिंता करता है और इस कारण लोकापवाद के भय से न्याय व मर्यादा को ताक पर रख गर्भवती सीता को अपने राज्य की सीमा से बाहर जंगल में छोड़ देने का आदेश पारित करता है.
       सीता त्याग दी गयीं, लेकिन इस पूरे प्रसंग का अंत बहुत ही सशक्त है क्योंकि इस अंत में छुपी है एक आम व बेबस दिख रहे किरदार की ताकत का. फिर इस किरदार के सामने सभी बौने हो जाते हैं. अंत यूँ है :
       कालांतर में श्रीराम वाल्मीकि मुनि के पास संदेश भिजवाते हैं – “यदि सीता का चरित्र शुद्ध है और यदि उनमें किसी प्रकार का पाप नहीं है, तो वह आप महामुनि की अनुमति से यहाँ आकर जनसमुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें.”
       जनसमंदर के बीच सीता के साथ महर्षि वाल्मीकि उपस्थित होते हैं. महर्षि वाल्मीकि दुहाई देते हैं –
       “मैंने कई हजार वर्षों तक भारी तपस्या की है. यदि मिथिलेशकुमारी सीता में कोई दोष हो, तो मुझे उस तपस्या का फल न मिले.”
       लेकिन जनसमुदाय की आकांक्षा (आप खाप पंचायत की और उस पंचायत में हू–हू करती जनता की कल्पना कर सकते हैं) का पोषण करने हेतु श्रीराम हाथ जोड़कर कहते हैं –
       “... जनसमुदाय में शुद्ध प्रमाणित होने पर ही मिथिलेशकुमारी से प्रेम हो सकता है.”

और तब सीता अपना मास्टरस्ट्रोक देती हैं और कथा का पटाक्षेप होता है –
       “....मेरी कही बात यदि सत्य है, तो भगवती पृथ्वीदेवी मुझे अपनी गोद में स्थान दे.”

हतप्रभ राम क्रोध में पृथ्वी पर बरसते हैं लेकिन सीता जा चुकी हैं. बड़ी विनम्रता से वह घड़ी–घड़ी प्रमाण प्रस्तुत की बाध्यता को ठुकरा कर हर नियम, शर्त के पार चली जाती हैं चुपचाप, लेकिन प्रतीकों में बहुत कुछ कहते हुए –
       “शुद्धता प्रमाणित करने की शर्त पर टिके प्रेम से बेहतर है इस रिश्ते से मुक्त हो जाना.....”
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                            (वह नारी है... में संकलित)

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