साल का गुजरना और डायरी का एक पन्ना
साल को एक पड़ाव मानें तो एक पड़ाव बीत गया. उमर थोड़ी और बढ़ गई. क्या खोया, क्या पाया – इस हिसाब-किताब
का कोई इरादा नहीं, बैलेंस शीट अथवा प्रॉफिट लॉस अकाउंट भी नहीं बनाना. लेकिन हर
घड़ी घबराया सा रहता हूँ – कुछ न कुछ खोजता ही रहता हूँ. यह खोज, कुछ पाने की लालसा नहीं, बल्कि खो गई किसी चीज की
तलाश है. परेशानी यही है कि पता ही नहीं कि खोया क्या है फिर भी हर घड़ी कुछ खो
जाने का अहसास रहता है और घबराया सा रहता हूँ कि वह मिला नहीं. जानकारों की ‘थिंक पॉजिटिव थ्योरी’ के मुताबिक़ खोने के अहसास
की तीव्रता व घबराहट कम करने के लिये अपनी उपलब्धियों का जिक्र करता हूँ, उन्हें दुहराता हूँ. एक
ऐसी दुनिया रचता हूँ जिसमें मुझे मेडल व सर्टिफिकेट मिलते हैं, लोग मेरे लिये तालियाँ
बजाते हैं. जानकारों व विशेषज्ञों के कहे अनुसार मैं हर घड़ी मुस्कुराता रहता हूँ, आनंदित दिखता हूँ. बावजूद
इसके असलियत यही है कि मेरी घबराहट कम नहीं हुई है, कुछ बेशकीमती खो गया है और मुझे मिल नहीं रहा.
कुछ बेशकीमती खो गया है और मुझे मिल नहीं रहा. गुजरे साल के अंतिम दिनों में
मैंने कोशिश की कि चलो खो गया तो उसे ‘राइट-ऑफ’ कर देते हैं, यह मान लेते हैं कि वह वापस नहीं मिलेगा. ‘राइट-ऑफ’ करने के ख्याल से तत्क्षण
राहत मिली लेकिन दूसरे ही पल पूरी दुनिया मेरे पीछे पड़ती हुई नजर आई.
अब मैं चोरों की भांति भाग रहा हूँ. सब की नजरों से छुपने की कोशिश कर रहा हूँ
लेकिन वे जोर-जोर से आवाज़ दे रहे हैं – ‘निकलो, हमारी चीज हमें वापस करो.’ असल बात यह है कि जो बेशकीमती
चीज खोई थी व जिसे मैं खोज रहा था और बड़ी हिम्मत करके अंततः यह मानने की कोशिश की
थी कि वह वापस नहीं मिलेगी उसके संबंध में लोगों का कहना है कि वह मेरा था ही कब ? जो बेशकीमती चीज खोई थी, वह किसी और की थी – मैं तो
बस देखभाल करने वाला था. वह तो मेरा था ही नहीं, जब मेरा था नहीं तो मैं उसके संबंध में कोई
अंतिम निर्णय, ‘राइट-ऑफ’ करने का निर्णय कैसे ले सकता हूँ. लोगों ने अहसास कराया है कि मैं तो माध्यम
मात्र हूँ, ‘टूल’ हूँ.
तो वह जो बेशकीमती
खो गया है, उसे किसी भी हालत में खोजना ही है. वे चीख रहे हैं – वह बेशकीमती चीज मेरी
लापरवाही से खो गयी. तत्काल – ‘ऑन द स्पॉट’ न्याय करने वाली क्रोधित भीड़ मुझे तलाश रही है, उनका कहना है – मैं अपराधी
हूँ. मैं उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रहा.
सर्दी बढ़ गई है.
बाहर वे मुझे खोज रहे हैं, मैं रजाई में दुबका हुआ हूँ. शरतचंद्र की जीवनी आवारा
मसीहा के प्रथम अध्याय ‘दिशाहारा’ का एक प्रसंग लिए बैठा हूँ....
“.... चलते-चलते उसका (शरतचंद्र) शरीर थक गया... उसी समय एक विधवा उधर से
निकली. वह उसे अपने घर ले गई. कई दिन की उसकी ममतापूर्ण सेवा-सुश्रुषा के बाद उसे
(शरतचंद्र को) ज्वर से मुक्ति मिल सकी, परन्तु तभी एक और ज्वर में वह फँस गया. उस विधवा का एक
देवर था और एक था बहनोई. देवर चाहता था, वह उसकी होकर रहे. बहनोई मानता था कि उस पर
उसका अधिकार है. लेकिन वह किसी के पास नहीं रहना चाहती थी. एक दिन दुखी होकर उसने
शरत से कहा, “तुम अब ठीक हो गए हो, चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ.”
और कहीं जाने को वह चुपचाप उसके साथ निकल पड़ी. लेकिन वह अभी कुछ ही दूर जा पाए
थे कि उस विधवा के दोनों प्रेमी वहां आ पहुंचे. उन्होंने किसी से कुछ नहीं पूछा, जी भरकर शरत को पिटा और
चीखती-चिल्लाती विधवा को वापस ले गए.
फिर उसका क्या हुआ, शरत कभी नहीं जान सका.’
मैं जानता हूँ – वे सब
आयेंगे. मेरी पिटाई करेंगे. पिटाई से मुझे बड़ा डर लगता है. इसीलिये दुबका पड़ा हूँ, पता नहीं कब तक ऐसे पड़ा
रहूँगा. उधर उजाले में कोई सूफी फ़कीर गुनगुना रहा है –
“रज्जब, तैने गज्जब किया; आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास....”
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