होनी थी, हो गई !
तमाम हाहाकारी परिस्थितियों के बावजूद जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को जिम्मेदार न ठहराने की आम प्रवृत्ति ने दिलो-दिमाग में बहुत कुछ मथ कर रख दिया है. कोई तो जिम्मेदार होगा, कोई तो जिम्मेदारी लेगा; जब किसी की जिम्मेदारी नहीं तो कुर्सियों-सिंहासनों की जरूरत क्या है.
जिम्मेदारी निर्धारित न करने अथवा अकाउंटेबिलिटी फिक्स न कर पाने की आम प्रवृत्ति विकसित कैसे होती है
और इस प्रवृत्ति को इतनी ताकत कहाँ से मिलती है, इस पर विचार करने पर पाता हूँ कि
इसके जड़ में ईश्वर व भक्ति की अवधारणा है. बचपन से हमारे अंदर ईश्वर भक्ति के
संस्कार भरे जाते हैं और वह भक्त ही क्या जो ईश्वर पर सवाल खड़े करे और इसीलिए स्थितियों
के प्रतिकूल होने पर उसके मुख से अनायास ही निकलता है, ‘भगवान परीक्षा ले रहा है.’
अब समझ में नहीं आता, भगवान क्या कोई परपीड़क है, क्या वह सैडिस्टिक पर्सनालिटी
डिसऑर्डर (sadistic personality disorder) का मरीज है कि उसे दूसरों के कष्ट में
मजा आता है. इस पर भक्तों का संस्कार कहता है कि आदमी अपने कर्मों का फल पाता है.
यकीनन ऐसा हो सकता है लेकिन यदि ऐसा है तो फिर ईश्वर की क्या जरूरत और यदि ईश्वर
है तो वह लोगों को सद्बुद्धि क्यों नहीं देता कि वह सत्कर्म करें जिसका फल
अच्छा निकले. बात पर बात निकलती जाएगी लेकिन कुल मिलाकर ईश्वर भक्ति से संस्कारित
जनमानस ईश्वर के बाद ईश्वर के अवतारों, राजाओं, राजनेताओं, अधिकारियों, मजबूत व
ताकतवर लोगों के आभामंडल से इस कदर प्रभावित होता है कि वह बार-बार दुहराने लगता
है कि क्या इतने से काम की जिम्मेदारी भी पीएम, सीएम, डीएम की है. यदि ऐसा है तो
पीएम, सीएम, डीएम की जरूरत क्या है ? भक्त दिमाग तर्क देता है कि क्या इतने से काम
का ठेका भी ईश्वर का है. सच में यदि ऐसा है तो फिर ईश्वर की क्या जरूरत ?
जिम्मेदारी का
हिसाब-किताब मुश्किल है. इसलिए हम इससे बचना चाहते हैं. बचपन से हमें संस्कारित
किया जाता है, चलो जाने दो, छोड़ो ! होनी थी, हो गई ! ‘होनी थी, हो गई’ की थ्योरी
हमें राहत देती है, हमें चैन की नींद देती है. अन्यथा सोचिए, कितनी बेचैनी, कितना
तूफान, कितना बखेड़ा ! एक छोटा सा उदाहरण है, सड़क पर दुर्घटना हुई. इस दुघर्टना की
जिम्मेदारी किसी की तो होनी चाहिए. हो सकता है मेरे द्वारा नितांत लापरवाहीपूर्ण गाड़ी
चलाने के कारण दुर्घटना हुई हो, हो सकता है किसी पैदल राहगीर की लापरवाही रही हो
या फिर सड़क के जर्जर हालत में होने के कारण दुर्घटना घटित हुई हो. अब इतने बवाल
में कौन पड़े, कौन सवाल-जवाब करे. मेरी भी जिम्मेदारी नहीं, तुम्हारी भी नहीं. मैं
भी खुश, तुम भी खुश और प्रशासन वाले साहब भी खुश. ‘होनी थी, हो गई’ की यही सोच
अंततः हाहाकारी व्यवस्था को जन्म देती है कि लोगों का जत्था देखते ही देखते मरने
लगता है और जिम्मेदारी किसी की नहीं बनती.
देखते-देखते
हमारे सोचने के ढंग में गजब का परिवर्तन आया है. बीसवीं सदी का पिछड़ा भारत कुर्सी
पर काबिज लोगों से सवाल करता था और आजादी के उन शुरुआती दिनों को याद कीजिए कि रेल
दुर्घटना हो जाती है और रेल मंत्री इस्तीफा दे देता है कि हाँ, जिम्मेदारी तो बनती
है. इसके बरक्स 21वीं सदी के
अगड़े भारत को देखिए, ‘वह किससे सवाल करता है ?’ रिश्तेदारों, सहकर्मियों के
व्हाट्सएप ग्रुप को खंगालिये, ‘पूछता है भारत’ के जद में कौन है, सवालों के जद में
कौन है.
भक्त होने व
नागरिक होने में
फर्क है. ‘होनी थी, हो गई’ अथवा ‘ईश्वर परीक्षा ले रहा है’ का भक्तिपूर्ण संस्कार
कुछ और नहीं बल्कि निरंकुश व्यवस्था को ही जन्म देगा और आम आदमी रोने के लिए
अभिशप्त रहेगा. व्यवस्था में कोई भी सुधार तभी संभव है जब लोग नागरिक-धर्म को निभायें, न कि भक्ति. कहने की जरूरत नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के केंद्र में नागरिक
होता है और नागरिकों के द्वारा पूछे जाने वाले हर सवाल के केंद्र में होते हैं,
कुर्सी पर काबिज लोग जो नागरिकों के द्वारा चुने गए होते हैं और फिर जिम्मेदारी
उन्हीं की बनती है.
यदि ‘होनी थी, हो गई’ ही अंतिम सत्य है तो फिर क्या जरूरत है ईश्वर की, व्यवस्थाओं के तामझाम की; वापस जंगल चलते हैं, जहाँ जंगल का कानून चलेगा; होनी-अनहोनी होती रहेगी.
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-संजय चौबे |
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हम अपने मन को सांत्वना देने के लिए ही कहते हैं, कि जो होनी थी वह हो गई। यह कहा जाता है कि जन्म के साथ ही मृत्यु का दिन तथा समय निश्चित हो जाता है और मनुष्य लाख प्रयास के बाद भी होनी को नहीं टाल सकता।
जवाब देंहटाएंयह दार्शनिक भाव शायद समाज में इसलिए पैदा किए गए थे ताकि किसी अनहोनी के समय मनुष्य उसका दोष स्वयं पर डाल कर अवसाद का शिकार न हो जाय। और अपना तथा अपने बचे हुए परिवार के सदस्यों का जीवन भूतकाल की घटनाओं का दोषी स्वयं को मानकर अपने जीवन को नर्क न बना ले।
कई बार हम किसी बड़ी समस्या का समाधान उसमें संलग्न रहकर भी नहीं कर पाते क्योंकि हम उसमें भावनात्मक रूप से अटैच हो जाते हैं, और उसका उपाय नहीं ढूंढ़ पाते हैं।
अपने आपको उस समस्या से विलग करके एक तटस्थ रूप से साक्षी भाव से समस्या का समाधान करने की कोशिश से कई बार समस्या का समाधान मिल जाता है।
इसका अर्थ यह कतई नहीं हो सकता कि हम सब कुछ भगवान के भरोसे छोड़कर अकर्मण्यता की स्थिति में रहें।
यह सत्य है कि अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बचा जा सकता है, लेकिन किसी व्यक्ति की गलती या जानबूझकर की गई गलती को दूसरे के सिर पर भी नहीं मढ़ा जा सकता है। लेकिन उसका दोष व्यवस्था को नहीं दिया जा सकता, व्यवस्थापक अवश्य उत्तरदाई ठहराया जा सकता है।
हमें किसी भी समस्या को समग्र रुप से देखना पड़ता है, किसी एक पर उसका दोष नहीं डाल सकते क्योंकि हम भी उसी व्यस्था का अंग होने के कारण बराबर के सहभागी हैं, क्योंकि हम अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते।
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