गाँधी की गीता

महात्मा गांधी ने नवंबर 1930 में यरवदा जेल में गीता पर लिखना आरम्भ किया था. पूरी गीता (के अठारह अध्यायों) को कुछेक पन्नों में समेटते हुए महात्मा गांधी की टीका अपने आप में एक नई दृष्टि लेकर आती है. गांधी जी सहज तरीके से एक साधारण व्यक्ति के लिए इसकी सार्थकता सिद्ध करते हैं. स्वयं उन्हीं के शब्दों में –
       “कुछ लोग कहते हैं कि गीता तो महा गूढ़ ग्रंथ है. लोकमान्य तिलक ने अनेक ग्रंथों का मनन करके पंडित की दृष्टि से उसका अभ्यास किया और उसके गूढ़ अर्थों को वह प्रकाश में लाये. उस पर एक महाभाष्य की रचना भी की. तिलक महाराज के लिए यह गूढ़ ग्रंथ था; पर हमारे जैसे साधारण मनुष्य के लिए यह गूढ़ नहीं है. सारी गीता का वाचन आपको कठिन मालूम हो तो आप केवल पहले तीन अध्याय पढ़ लें. गीता का सार इन तीन अध्यायों में आ जाता है.”
यहाँ महात्मा गाँधी के शब्दों में गीता-सार की प्रस्तावना समेत पांच अध्यायों का सार प्रस्तुत है.

प्रास्ताविक 
गीता महाभारत का एक नन्हा – सा विभाग है. महाभारत ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है, पर हमारे मत से महाभारत और रामायण ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि धर्मग्रंथ हैं; या उसे ऐतिहासिक ही कहना चाहें तो वह आत्मा का इतिहास है और वह हजारों वर्ष पहले क्या हुआ, यह नहीं बताता, बल्कि प्रत्येक मनुष्य – देह में क्या जारी है, इसकी वह एक तस्वीर है. महाभारत और रामायण दोनों में देव और असुर के – राम और रावण के – बीच नित्य चलनेवाली लड़ाई का वर्णन है. ऐसे वर्णन में गीता कृष्ण – अर्जुन के बीच का संवाद है. उस संवाद का वर्णन अंध धृतराष्ट्र से संजय करता है. हमें यह समझकर गीता पढ़नी चाहिए कि हमारी देह में अन्तर्यामी श्रीकृष्ण भगवान् आज विराजमान हैं और जब जिज्ञासु अर्जुनरूप होकर धर्म-संकट अन्तर्यामी भगवान् से पूछेगा, उसकी शरण लेगा तो उस समय वह हमें शरण देने को तैयार मिलेंगे. हम ही सोये हैं, अन्तर्यामी तो सदा जाग्रत हैं. वह बैठा राह देखता है कि हममें कब जिज्ञासा उत्पन्न हो; पर हमें सवाल ही पूछना नहीं आता; सवाल पूछने की इच्छा मन में भी नहीं उठती.

पहला अध्याय
पांडवों और कौरवों के अपनी सेनासहित युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र में एकत्र होने पर दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर दोनों दलों के मुख्य – मुख्य योद्धाओं के बारे में चर्चा करता है. युद्ध की तैयारी होने पर दोनों और से शंख बजते हैं और अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण भगवान् उसका रथ दोनों सेनाओं के बीच में लाकर खड़ा करते हैं. अर्जुन घबराता है और श्रीकृष्ण से कहता है कि मैं इन लोगों से कैसे लडूं ? दूसरे हों तो मैं तुरंत भिड़ सकता हूँ, लेकिन ये तो अपने स्वजन ठहरे. माना कि कौरव आततायी हैं, उन्होंने बहुत दुष्ट कर्म किये हैं, पर मैं उन्हें मारकर कहाँ रहूंगा ? ये तो मूढ़ हैं, मैं इन जैसा कैसे बनूं ?
       इतना कहते – कहते अर्जुन की आँखों के सामने अंधेरा छा गया और वह अपने रथ में गिर पड़ा.
       यह पहले अध्याय का प्रसंग है. इसका नाम ‘अर्जुन – विषाद – योग’ है. जैसा दुःख अर्जुन को हुआ, वैसा हम सबको होना चाहिए. धर्म – वेदना तथा धर्म – जिज्ञासा के बिना ज्ञान नहीं मिलता. जिसके मन में अच्छे और बुरे का भेद जानने की इच्छा तक नहीं होती, उसके सामने धर्म – चर्चा कैसी ? कुरुक्षेत्र युद्ध तो निमित्तमात्र है, सच्चा कुरुक्षेत्र हमारा शरीर है. यही कुरुक्षेत्र है और धर्म – क्षेत्र भी. यदि इसे हम ईश्वर का निवास – स्थान समझें और बनावें तो यह धर्मक्षेत्र है. इस क्षेत्र में कुछ – न – कुछ लड़ाई तो नित्य चलती ही रहती है और ऐसी अधिकांश लड़ाइयां ‘मेरा’ – ‘तेरा’ को लेकर होती हैं. अपने - पराये के भेदभाव से पैदा होती हैं.

दूसरा अध्याय
        अर्जुन को जब कुछ चेत हुआ तो भगवान् ने उसे उलाहना दिया और कहा कि यह मोह तुझे कहां से आ गया ? तेरे – जैसे वीर पुरुष को यह शोभा नहीं देता. पर अर्जुन का मोह यों टलनेवाला नहीं था. वह लड़ने से इनकार करके बोला, “इन सगे – संबंधियों और गुरुजनों को मारकर, मुझे राजपाट तो दर-किनार, स्वर्ग का सुख भी नहीं चाहिए. इस स्थिति में धर्म क्या है, यह मुझे नहीं सूझता.”
       इस भांति अर्जुन को बहुत व्याकुल और जिज्ञासु देखकर भगवान् को दया आई. वह उसे समझाने लगे, “तू व्यर्थ दुःखी होता है और बेसमझे – बूझे ज्ञान की बातें करता है. जान पड़ता है कि तू देह और देह में रहनेवाले आत्मा का भेद ही भूल गया है. देह का नाश होने पर भी देही (अर्थात आत्मा) का नाश नहीं होता. देह का जन्म है, आत्मा का जन्म नहीं है. वह तो अजन्मा है. वह तो सदैव था, आज है और आगे भी रहनेवाला है. फिर तो किसका शोक करता है ? तेरा शोक तेरे मोह के कारण है. इन कौरव आदि को तू अपना मानता है, इसलिए तुझे ममता हो गई है, पर तुझे समझना चाहिए कि जिस देह से तुझे ममता है वह तो नाशवान ही है. उसमें रहनेवाले जीव का विचार करने पर तो तत्काल तेरी समझ में आ जायेगा कि उसका नाश तो कोई कर ही नहीं सकता. इसके सिवा तू अपने धर्म की तो सोच ! तू तो क्षत्रीय है. तेरे पीछे यह सेना इकट्ठी हुई है. अब यदि तू बीच में लड़ाई छोड़ देगा तो लोग कहेंगे कि अर्जुन कायर होकर भाग गया. यदि भागने में धर्म होता तो लोकनिंदा की कोई परवाह न थी, पर यहाँ तो यदि तू भागे तो अधर्म होगा और लोकनिंदा उचित समझी जायेगी, यह दोहरा दोष होगा.
       यह तो मैंने तेरे सामने बुद्धि की दलील रखी, आत्मा और देह का भेद बताया और तेरे कुल – धर्म का तुझे भान कराया, पर अब तुझे मैं कर्मयोग की बात समझाता हूँ. परिणाम के विचार से ही बुद्धि मलिन हो जाती है. वेदवादी लोग कर्मकांड में पड़कर अनेक प्रकार के फल पाने की इच्छा से अनेक क्रियाएं आरम्भ कर बैठते हैं. वास्तव में मनुष्य का धर्म फल का विचार छोड़ कर कर्तव्य – कर्म किये जाने का है. इस समय यह युद्ध तेरा कर्तव्य है, इसे पूरा करना तेरा धर्म है. लाभ – हानि, हार – जीत तेरे हाथ में नहीं है. हार – जीत, सरदी – गरमी, सुख – दुःख देह के साथ लगे ही हुए हैं. जो भी नतीजा हो, उसके विषय में निश्चिंत रहकर तथा समता रखकर मनुष्य को अपने कर्तव्य में तन्मय रहना चाहिए. इसका नाम योग है और इसी में कर्मकुशलता है. कार्य की सिद्धि कार्य के करने में छिपी है, उसके परिणाम में नहीं. तू स्वस्थ हो, फल का अभिमान छोड़ और कर्तव्य का पालन कर.”
       यह सुनकर अर्जुन पूछता है, “यह तो मेरे बूते के बाहर जान पड़ता है. हार – जीत का विचार छोड़ना, परिणाम का विचार ही न करना, ऐसी समता, ऐसी स्थिर बुद्धि, कैसे आ सकती है ? मुझे समझाइये कि ऐसी स्थिर बुद्धि वाले कैसे होते हैं, उन्हें कैसे पहचाना जा सकता है ?”
       तब भगवान् ने जवाब दिया –
       “हे अर्जुन ! जिस मनुष्य ने अपनी कामना – मात्र का त्याग किया है और जो अंतर में ही संतोष प्राप्त करता है, वह स्थिरचित्त, स्थितप्रज्ञ, स्थिरबुद्धि या समाधिस्थ कहलाता है. ऐसा मनुष्य न दुःख से दुखी होता होता है, न सुख से फूल उठता है. स्थिरबुद्धि मनुष्य को जहाँ दीपक की भांति साफ़ दिखाई देता है, वहां अस्थिर मन वाले दुनिया की गड़बड़ में पड़े रहते हैं. जो मनुष्य सब कामनाएं तजकर, निरहंकार होकर, ममता छोड़कर, तटस्थ रूप से बरतता है, वह शांति पाता है. यही ईश्वर – प्राप्ति की स्थिति है.
      
तीसरा अध्याय
स्थितप्रज्ञ के लक्षण सुनकर अर्जुन को ऐसा लगा कि मनुष्य को शांत होकर बैठे रहना चाहिए. उसके लक्षणों में कर्म का तो नाम तक भी उसने सुना नहीं. इसलिए भगवान् से पूछा, “आपके वचनों से तो लगता है कि कर्म से ज्ञान बढ़कर है. इससे मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है. यदि ज्ञान अच्छा है तो फिर मुझे घोर कर्म में क्यों उतार रहे हैं ? मुझे साफ़ कहिये कि मेरा भला किसमें है ?”
तब भगवान् ने उत्तर दिया –
“हे अर्जुन ! आरम्भ से ही इस जगत में दो मार्ग चलते आये हैं : एक में ज्ञान की प्रधानता है और दूसरे में कर्म की. पर तू स्वयं देख ले कि कर्म के बिना मनुष्य अकर्मी नहीं हो सकता, बिना कर्म के ज्ञान आता ही नहीं.
तू देखता है कि प्रत्येक मनुष्य कुछ – न – कुछ तो करता ही है. उसका स्वभाव ही उससे कुछ करावेगा. जगत का यह नियम होने पर भी जो मनुष्य हाथ – पांव ढीले करके बैठा रहता है और मन में तरह – तरह के मंसूबे करता रहता है, उसे मुर्ख कहेंगे और वह मिथ्याचारी भी गिना जाएगा. क्या इससे यह अच्छा नहीं है कि इन्द्रियों को वश में रखकर, राग – द्वेष छोड़कर, शोर – गुल के बिना, आसक्ति के बिना अर्थात् अनासक्त भाव से, मनुष्य कर्मयोग का आचरण करे ? पर कर्म करते हुए इतना याद रखना चाहिए कि यज्ञ – कार्य के सिवा सारे कर्म लोगों को बंधन में रखते हैं. यज्ञ के मानी हैं, अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरे के लिए, परोपकार के लिए, किया हुआ श्रम अर्थात संक्षेप में ‘सेवा’ और जहाँ सेवा के निमित्त ही सेवा की जायेगी, वहां आसक्ति, राग – द्वेष नहीं होगा.
तुझे तो आसक्तिरहित होकर कर्तव्य करना चाहिए, जिससे लोग कर्म – भ्रष्ट न हों और धीरे – धीरे अनासक्त होना सीखें. मनुष्य अपने में मौजूद स्वाभाविक गुणों के वश होकर काम तो करता ही रहेगा. जो मुर्ख होता है वही मानता है कि ‘मैं करता हूँ’. सांस लेना, यह जीवमात्र की प्रकृति है, स्वभाव है. लेकिन उस समय मनुष्य यह नहीं कहता कि मैं सांस लेता हूँ. इस तरह जितने कर्म किये जायं सब स्वाभाविक रीति के गुण के अनुसार क्यों न किये जायं ? उनके लिए अहंकार क्या ?”   
       भगवान् के राग – द्वेषरहित होकर किये जानेवाले कर्म को यज्ञरूप बतलाने पर अर्जुन ने पूछा – “मनुष्य किसकी प्रेरणा से पाप कर्म करता है ? अक्सर तो ऐसा लगता है कि पापकर्म की ओर कोई उसे जबर्दस्ती धकेल ले जाता है.”
       भगवान् बोले – “मनुष्य को पापकर्म की ओर धकेल ले जानेवाला काम है और क्रोध है. दोनों सगे भाई की भांति हैं, काम की पूर्ति के पहले ही क्रोध आ धमकता है. मनुष्य के महान शत्रु ये ही हैं. जैसे मैल चढ़ने से दर्पण धुंधला हो जाता है, या अग्नि धुएं के कारण ठीक नहीं जल पाती, उसी प्रकार काम – क्रोध ज्ञानी के ज्ञान को प्रज्वलित नहीं होने देते, फीका कर देते हैं, या दबा देते हैं. मनुष्य को आत्मा की अपनी शक्ति का पता नहीं है, इसीलिए वह मानता है कि इन्द्रियां वश में नहीं रहतीं, मन वश में नहीं रहता या बुद्धि काम नहीं करती. आत्मा की शक्ति का विश्वास होते ही बाकी सब आसान हो जाता है. इंद्रियों को, मन और बुद्धि को ठिकाने रखने वाले का काम, क्रोध या उनकी असंख्य सेना कुछ नहीं कर सकती.”

       इस अध्याय को मैंने गीता समझने की कुंजी कहा है. एक वाक्य में उसका सार यह जान पड़ता है कि जीवन सेवा के लिए है, भोग के लिए नहीं है. स्वार्थ दृष्टि से होनेवाला सेवा – कार्य यज्ञ नहीं रह जाता. अतः अनासक्ति की बड़ी आवश्यकता है. इतना जानने पर हमें इधर – उधर के वाद – विवादों में नहीं उलझना पड़ता.

चौथा अध्याय
भगवान् ने अर्जुन से कहा – “मैंने जो निष्काम कर्मयोग तुझे बतलाया है वह बहुत प्राचीन काल से चला आता है, यह नया नहीं है. तू प्रिय भक्त है और इस समय धर्म – संकट में है, इसलिए उससे मुक्त करने के लिए, मैंने तेरे सामने इसे रखा है. जब – जब धर्म की निंदा होती है और अधर्म फैलता है तब – तब अवतार लेता हूँ. गुण - कर्म भेद से मैंने चार वर्ण पैदा किये हैं, फिर भी मुझे उनका कर्ता मत समझ, क्योंकि मुझे इस कर्म में से किसी फल की आकांक्षा नहीं है, न इसका पाप – पुण्य मुझे होता है. यह ईश्वरीय माया समझने योग्य है. जगत में जितनी प्रवृतियां हैं, सब ईश्वरीय नियमों के अधीन होती हैं, फिर भी ईश्वर उनसे अलिप्त रहता है, इसलिए वह उनका कर्ता है और अकर्ता भी. यों अलिप्त रहकर, जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है, उसे न करने योग्य कर्म का भी तुरंत पता चल जाता है. वह स्वयं निमित्तमात्र रहता है – सफलता मिली तो भी ‘वाह – वाह’, न मिली तो भी. सफलता से वह फूल नहीं उठता. विफलता से घबराता नहीं. वह सारी क्रियाओं में ईश्वर को ही देखता है.”
    
पांचवां अध्याय
       अर्जुन कहता है, “आप ज्ञान को विशेष बतलाते हैं. इससे मैं समझता हूँ कि कर्म करने की आवश्यकता नहीं है. संन्यास ही अच्छा है. पर फिर आप कर्म की भी स्तुति करते हैं, तब यह लगता है कि कर्मयोग ही अच्छा है. इन दोनों में अधिक अच्छा क्या है, यह मुझको निश्चयपूर्वक कहिये.”
       यह सुनकर भगवान् बोले, “संन्यास अर्थात ज्ञान और कर्मयोग अर्थात निष्काम कर्म, ये दोनों अच्छे हैं, पर यदि तुझे चुनाव ही करना है तो मैं कहता हूँ कि योग अर्थात अनासक्तिपूर्वक कर्म अधिक अच्छा है. जो मनुष्य किसी वस्तु या मनुष्य का न द्वेष करता है, न कोई इच्छा रखता है और सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी इत्यादि द्वंदों से परे रहता है, वह संन्यासी ही है. फिर वह कर्म करता हो या न करता हो. अज्ञानी ज्ञान और योग में भेद करता है, ज्ञानी नहीं. पर ऐसी स्थिति साधारणतः अनुभव में नहीं आती. इसलिए मैंने कर्मयोग को विशेष कहा है. करोड़ों निष्काम कर्म में से ही संन्यास का फल प्राप्त करते हैं. वे संन्यासी होने जायं तो मिथ्याचारी हो जाने की पूरी संभावना है, और कर्म से तो गए ही, मतलब सब खोया, पर जो मनुष्य अनासक्ति सहित कर्म करता हुआ शुद्धता प्राप्त करता है, वह कर्म करते हुए भी उससे अलग रहता है, अर्थात बंधन में नहीं पड़ता. अनासक्त व्यक्ति को भला पाप – पुण्य कैसे छू सकते हैं ? इसके विपरीत        जो अज्ञान में फंसा है वह हिसाब लगाता है, इतना पुण्य किया, इतना पाप किया और इससे वह नित्य नीचे को गिरता जाता है और अंत में उसके पल्ले पाप ही रह जाता है. अनासक्त मनुष्य जीते जी जगत को जीत लेता है, वह ब्रह्ममय है. अपना प्रिय करने वाले पर वह रीझता नहीं, गाली देने वाले पर वह खीझता नहीं. आसक्तिवान सुख को बाहर ढूंढ़ता है, अनासक्त निरंतर भीतर से शांति पाता है.
       गीता - बोध में आगे महात्मा गाँधी गीता के अन्य अध्यायों, जिसमें भक्ति योग, श्री कृष्ण द्वारा विश्वरूप दिखाने आदि का जिक्र है, का सार लिखते हैं. गीता के दसवें और ग्यारहवें अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – “मेरी विभूतियाँ अनंत हैं.... सब प्राणियों के ह्रदय में मैं ही हूँ. मैं ही उनकी उत्पत्ति, उनका मध्य और उनका अंत हूँ. मुझमें सारा जगत – चर और अचर – समाया हुआ है...... लोगों का नाश करनेवाला मैं काल हूँ. तू चाहे लड़ या न लड़ इन सबका नाश समझ. तू तो निमित्तमात्र है..  

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