गंगा-बीती

आमतौर पर हाल में प्रकाशित किसी किताब पर लिखने से बचना चाहता हूं। इसका कारण है कि ऐसी किसी कृति पर कुछ लिखने अथवा बोलने मात्र को आलोचना अथवा समीक्षा समझा जाने लगता है और मेरे अंदर आलोचना अथवा समीक्षा हेतु वांछित योग्यता व साहस का सर्वथा अभाव है। यह कार्य मुझे बेहद कठिन लगता है और इरिटेटिंग भी। इसके बरक्स किसी रचना में डूबना, उतराना बड़ा आनंद देता है। साथ ही किसी रचनाकार की पंक्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार उद्धृत करना भी अच्छा लगता है। यद्यपि अपनी सुविधा के अनुसार किन्हीं पंक्तियों का अर्थ अथवा भाव बदलना बदतमीजी व बेशर्मी की श्रेणी में आ सकता है, जाने-अनजाने यह गुस्ताखी हो जाती है। पाठकीय स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी गुस्ताखियों को माफी मिल सकती है। लेकिन यह माफी संभवत आलोचकों/समीक्षकों के लिए उपलब्ध नहीं होती - कहते हैं उनके अंदर संवेदनात्मक ज्ञान का एक न्यूनतम स्वीकार्य स्तर तो होना ही चाहिए। और पाठक !! वह पूर्णतः स्वतंत्र है, उसकी कोई बाध्यता नहीं, कोई न्यूनतम अहर्ता, कोई बंदिश नहीं; अनुशासन भी नहीं। इसीलिए पाठकीय स्वतंत्रता (या कि स्वच्छंदता - पूर्णतः अनुशासनहीन) की मस्ती के साथ किताबों से होकर गुजारना चाहता हूँ।

वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति की तमाम नई-पुरानी कविताओं को कई-कई बार पढ़ते रहने की आदत के बीच 82 कविताओं के नवीनतम संग्रह 'गंगा-बीती' से गुजरना एक अलग जमीन पर खड़ा होना है, समझ व होश की नई यात्रा पर निकलना है। आँख बंद किए हुए बेहोश पड़े रहने या चलते रहने में सुरक्षा बोध का भ्रम हम
पर भले ही हावी हो, आँखें प्यासी रहती हैं - देखने के लिए। और इसीलिए जैसे ही ज्ञानेन्द्रपति मिलते हैं सुरक्षा बोध का भ्रम दरकने लगता है; प्यासी आँखें देखने लगती हैं। फिर बेहोशी टूटती है। उनकी हरेक कविता हमारे अंदर ज्ञानात्मक संवेदना उत्पन्न करती है ताकि स्वयं के और बेहतर इंसान बनने की संभावना तलाशी जा सके।

आज से 20 साल पूर्व 1999 में उनकी 'गंगातट' ने हमें झकझोरा था, जब हम इक्कीसवी सदी को लेकर रुमानी हो रहे थे और गंगा अपनी लड़ाई हार चुकी थी -
"....
हिमालय के होते भी तुम्हारे सिरहाने
हथेली-भर की एक साबुन की टिकिया से
हार गईं तुम युद्ध."

गंगा अपनी अनंत यात्रा में सदियों से जंगली जानवरों व तथाकथित पिछड़े लोगों के साथ रहने-बहने के बावजूद मैली नहीं हुई, बची रही। फिर उसके साथ क्या हुआ -
"पहाड़ की बेटी वह एक
दुखियारी महतारी है गंगा
उसका जी कँपता है डर से
उसकी प्रतिद्वंद्वी हथेली-भर की वह जो साबुन की टिकिया है
इजारेदार पूँजीवाद की बिटिया है।"

आज के नए भारत में जब अंधश्रद्धा अपने चरम पर है, इसके आहट की गूंज 'गंगातट' में साफ सुनाई पड़ती है - 21 सितंबर 1995 को जब समूचा भारत गणेश जी को दूध पिला रहा था -

"एक बात तो तय थी 
प्लेग के विषाणुओं की तरह अंधश्रद्धा के विषाणु भी
धरती की सतह से पोंछ दिए जाकर भी
पुनः-पुनः जी उठते हैं
मरजीवा हैं वे, उन्हें मारना मुश्किल वैज्ञानिक विधियों से
तब तो और भी जब विज्ञान की पीठ पर ही सवारी गँठी हो उनकी
.......
......
संचार-क्रांति के इस युग में 
अंधश्रद्धा भी त्वरित संचरित कि संक्रमित होती है, बेशक !

गंगातट के बाद, बीस साल क़ी यात्रा के बाद 21 वी सदी के दूसरे दशक के अंत में स्पष्ट हो चुका है कि धार्मिक मूढ़ता विज्ञान की पीठ पर सवार होकर ही नए भारत में गहरे तक पैठ बना चुकी है। विज्ञान का सहारा लेकर ही झूठ, अफवाह, बेशर्मी, पाखंड और अंधभक्ति के नए प्रतिमान स्थापित हुए हैं। तथाकथित गंगा-भक्तों की गगनभेदी जय-जयकार के बीच मरती गंगा पर क्या बीत रही है, 'गंगा-बीती' उसे पूरी साफगोई से दर्ज करता है -
"कि नदी मर रही है और वे बजरे पर बुढ़वामंगल मना रहे हैं।"

मोक्षदायिनी गंगा जब स्वयं मोक्षकामिनी हो गई है, वैसे में उसके लोगों का पाखंडी चरित्र उजागर होता है -
"पक्की है खबर 
अख़बार और सरकार भी हैं एकमत 
कि मर रही हैं गंगा 
और ठट्ठ के ठट्ठ आ रहे हैं लोग ठेलमठेल
.........
काछा कस कर उतरने 
आखिरी डुबकी को 
मोक्षदायिनी में।"

गंगा को बचाने के तमाम उपक्रम व दावों की असलियत को गंगा और सालों से गंगा की पीड़ा के सहभागी रहे कवि से बेहतर और कौन बता सकता है -
"तमस गहराया है, तमाशे बढ़े हैं
गंगा किनारे हम प्यासे खड़े हैं।"

बावजूद इसके समझ में नहीं आता कि करें तो क्या करें। आम आदमी के लिए बेहद खतरनाक दौर में बात-बात पर धमकी मिल रही है -
"आम आदमी की अहमियत ही क्या
इस समय 
संदेह सबसे बड़ा नैतिक अपराध, सवाल - दंडनीय नियमभंग
आंदोलन - राजद्रोह, जिसकी सजा कुछ भी हो सकती है
सीधी-सी बात : गति-प्रगति के रास्ते में कछुओं को आड़े नहीं आने दिया जाएगा
तोड़ दिया जाएगा कठिन पीठ का कवच
पूरी नृशंसता से, जरूरी हुआ तो,
- समझ रखिये
सँभल रहिये"

तरक्की व भक्ति के प्रचार और विज्ञापनों से भारत को पाटकर पूंजी की ताकत ने आम आदमी को पीछे, बहुत पीछे धकेल दिया है। लेकिन सवाल उठाए तो भला कौन, आम आदमी के आत्मबल को जिंदा कौन करें; सिवाय शब्दांकता कवि के। वह चुनौती देता है -
"आप रणंजय धनंजय 
......
आपके आगे से हम पीछे हट रहे हैं 
लेकिन पीछे जमीन लीली जा चुकी है 
कहाँ जाएँ ? 
काशी क्योटो ही बन जानी है 
तो त्रिशूल पर टिकी हुई काशी फिर कहाँ पाएँ ?
कहीं जाने को नहीं तो धसकती जमीन पर ही पैर जमाएँ
आखिरी जोर आजमाएँ 
क्यों न !"

निराशा व तमाम चुनौती के बावजूद जिंदगी बची है, जीने की अदम्य लालसा बची है, टिके रहने का संघर्ष बचा हुआ है और यह सब 'गंगा-बीती' में दर्ज होता है। इसमें बनारस धड़कता है। यहां पतली गली की एकरस जिंदगी में भी एक रस है। मरघट पर जो चाय मिलती है उसका स्वाद लीजिएगा, वह भी जीवन से भरी हुई है -
"यह मरघट की चाय है 
और मुर्दार चाय नहीं है 
बल्कि यह तो जीवंत ज्वलंत चाय है
मुर्दे को भी जिंदा कर सकने वाली"

इसके अतिरिक्त आप महात्मा पोई की चाय पी सकते हैं; यहाँ लल्लापुरा के मोंछू की चाय दुकान होते हुए चंद्रबली जी के साथ की चाय से गुजर सकते हैं। बहुत कुछ है 'गंगा-बीती' में - महाकवि त्रिलोचन का सबसे साफ कुर्ता है तो मल्लू मल्लाह व लल्लन सिंह भी। यही नहीं लोहे का खम्भा, लोलार्क कुण्ड, आज़ाद पार्क के संग बनारसी अड़ी भी है तो तमाम घाटों के बीच धड़कता जीवन - मेंढ़क, साढ़े तीन पाँव का कुत्ता, नंदी, खंजन आदि कैसे छूटेगा भला।

गंगू तेली की ज़ुबान में रची 'गंगा-बीती' को सेतु प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है और इसका पेपरबैक संस्करण ₹172/- में उपलब्ध है। सेतु प्रकाशन का लिंक है - https://www.setuprakashan.com

इसके अतिरिक्त यह अमेज़न किंडल 
(https://www.amazon.in/dp/B07K8Z77R3/ref=cm_sw_r_cp_awdb_t1_l4kXCbHC1Y4PV) पर भी उपलब्ध है।

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