तुम्हारे हिस्से भी एक आकाश है !
वह भारतरत्न है.
उसने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को विश्व में प्रसिद्धि दिलायी. वह आम नहीं ख़ास
है, उसकी महान उपलब्धियों की फेहरिश्त बड़ी लम्बी है. उसकी उपलब्धियों को कमतर
साबित करना या बेवजह विवाद पैदा करना मकसद नहीं. यहाँ बस उस कुंठा का जिक्र है जो
हमारे अपनों की तरक्की से जन्म लेती है और विशेषकर जब वह हमारी पत्नी या बहन हो.
तालियों की गड़गड़ाहट, तारीफ के पुलिंदे अगर किसी और के लिए हों तो कोई बात नहीं
लेकिन वह अपनी पत्नी या बहन के लिए हो तो अपने बौनेपन का अहसास तीव्र होने लगता
है. यह अहसास, यह कुंठा केवल छोटे और आम लोगों में नहीं भारतरत्नों में भी प्रबल
होती है, जान के अच्छा नहीं लगता लेकिन एकाकीपन के दंश को सह रही अट्ठासी वर्षीय
महिला जब आपबीती कहती है तो उसे नकारना संभव नहीं लगता –
“यद्यपि उन्होंने
साफ – साफ कभी भी मना नहीं किया लेकिन कई दूसरे तरीकों से उन्होंने जाहिर किया कि
वे खुश नहीं हैं क्योंकि मुझे ज्यादा तारीफ मिल रही थी.....”
मैहर घराने के
आदिपुरुष उस्ताद अलाउद्दीन खान एक ऐसे इंसान थे जो एक तरफ माँ सरस्वती की
पूजा करते थे तो दूसरी तरफ रोजाना पाँचों नमाज भी पढ़ते थे. उनके घर सन 1927 की
चैती पूर्णिमा को रोशनआरा खान जन्म लेती है जिसका नाम मैहर के महाराजा बैजनाथ सिंह,
अन्नपूर्णा रखते हैं. आगे चलकर ताउम्र रोशनआरा खान, अन्नपूर्णा देवी के नाम से
जानी जाती हैं.
बेटी बचपन में ही
अपने पिता की शिष्या बन जाती है और शुरुआत में अपने पिता से ध्रुपद और सितार सीखती
है. आगे चल कर पिता के कहने पर वह सुरबहार पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है.
सुरबहार सितार से मिलता जुलता वाद्ययंत्र है जिसे सितार की तुलना में बजाना अधिक
मुश्किल होता है. देखते - देखते लोग हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में
छोटी उम्र की अन्नपूर्णा का लोहा मानने लगे और वह अपने पिता के अन्य शिष्यों को
संगीत की बारीकियाँ सिखाने लगी. जब वह मात्र ग्यारह साल की थी, वाराणसी के एक
बंगाली ब्राहमण परिवार में जन्मा रविन्द्र शंकर चौधरी उसके पिता से सितार सिखने
मैहर आता है. उस्ताद अलाउद्दीन खान की तालीम से रविन्द्र शंकर चौधरी ने सितार पर
जादू करना शुरू कर दिया. यही रविन्द्र शंकर चौधरी आगे चल कर पंडित रवि शंकर
कहलाये.
इसी बीच रवि शंकर
के बड़े भाई उदय शंकर संगीत के दो खानदानों को रिश्ते की डोर से बांधने की अपनी
उत्कट अभिलाषा को रोक नहीं पाए. उन्होंने रवि शंकर और अन्नपूर्णा की शादी का
प्रस्ताव रखा. उस समय अन्नपूर्णा 15 और रवि शंकर 21 साल के थे. यद्यपि यह हिन्दू –
मुसलमान के बीच की शादी थी, उस्ताद अलाउद्दीन ने अपने दो प्रिय शिष्यों, जिनमें एक
उनकी बेटी थी, के विवाह को सहमति दे दी. मुसलमान रोशनआरा खान या अन्नपूर्णा अपना
धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बन गयी. शादी के एक साल बाद, 1942 में, दोनों के एक पुत्र
हुआ.
इसके बाद संगीत की
इस जोड़ी ने मंच पर अपना प्रदर्शन आरम्भ किया और यहीं से पति के अंदर पुरुषीय कुंठा
ने घर करना शुरू किया. कारण स्पष्ट था – अन्नपूर्णा देवी अपने पति रवि शंकर से
ज्यादा तालियाँ बटोर रही थीं, साथ ही आलोचकों/संगीत विशेषज्ञों की नजरें भी उन्हें
बेहतर कह रही थीं. छ: दशक से अधिक की चुप्पी के बाद वे एक अंग्रेजी अखबार से
बातचीत में खुलती हैं –
“...... वे खुश
नहीं थे क्योंकि मेरी अधिक तारीफ होने लगी थी. इसका असर हमारे वैवाहिक रिश्ते पर
पड़ने लगा था.”
नारीसुलभ सोच के
अनुरूप अन्नपूर्णा देवी ने प्रसिद्धि व तालियों के मुकाबले रिश्ते और घर को अधिक
अहमियत दी. उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन बंद करते हुए मंच त्याग दिया –
“.... हम लोग संगीत
के संबंध में जो कुछ जान रहे थे वह सब मेरे पिता के कारण था. वे कभी भी नहीं चाहते
कि उनकी बेटी की शादी टूटे.”
पिता की वजह से
जीवन में संगीत आया था, इस संगीत के कारण पति का अलग हो जाना और इस अलगाव की वजह
से पिता का दिल टूटना – अन्नपूर्णा देवी को मंजूर नहीं था.
कहा जाता है कि
अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी अभिनीत फिल्म “अभिमान” की कहानी अन्नपूर्णा देवी और रवि
शंकर के जीवन से प्रेरित थी. फिल्म में नायिका सब कुछ त्याग अपने गाँव वापस चली
जाती है लेकिन फिल्म के अंत में नायक उसे अपने संग घर वापस ले आता है और दोनों फिर
से एक साथ गाना शुरू करते हैं. सुखद अंत अच्छा लगता है लेकिन जीवन फिल्म नहीं
होता. इस सच्चे जीवन का फिल्मकार कुछ और ही चाहता था –
“.............. लेकिन पंडित जी के जीवन
में पहले ही कोई और आ चुका था.”
सब कुछ त्याग अपने
को चाहरदीवारी में कैद करने के बावजूद इस रिश्ते को नहीं बचाया जा सका और शादी के
बीस साल बाद दोनों में तलाक हो गया.
अन्नपूर्णा देवी ने
तब से अपने को इस दुनिया से काट कर चाहरदीवारी में कैद कर लिया और पिछले साठ साल
में कोई भी उन्हें बाहर लाने में सफल नहीं हो सका. मीडिया, संगीत के व्यवसायी,
प्रशंसक, मेडल व सम्मान – यहाँ तक कि भारत सरकार का पद्मभूषण भी उन्हें उनके फ्लैट
से बाहर नहीं निकाल पाया. दूसरी तरफ अन्नपूर्णा देवी से अलग हो पंडित रवि शंकर की
उन्मुक्त जीवन यात्रा में उनका कई महिलाओं से संबंध स्थापित हुआ. साथ ही वे अपने
सितार का जादू दुनिया भर में विखेरते आगे बढ़ते चले गए और एक दिन उन्हें “भारत
रत्न” के ख़िताब से भी नवाजा गया.
इस पूरे एपिसोड में
दुःख इस बात का नहीं कि संगीत के आकाश का एक महान जोड़ा क्यों विखर गया; वह साथ –
साथ क्यों नहीं रह पाया. इस तथ्य को जाँचने – परखने में भी कोई दिलचस्पी नहीं कि
इस अलगाव में गलती किसकी रही – अन्नपूर्णा की भावुकता या पंडित रवि शंकर की कुंठा
? यहाँ पंडित रवि शंकर को खलनायक घोषित करते हुए अन्नपूर्णा देवी को महिमामंडित
करने का भी कोई इरादा नहीं. इस चर्चा के पीछे बस एक सिसकी है, जो अन्नपूर्णा देवी
से शिकायत करती है –
“तुम नारी हो ! यूँ देवी बनने का नशा क्यों
सवार हो जाता है, तुम पर ? समझौते की ईंट पर रिश्ते की नींव रख कुर्बानी का अभिमान
लिए क्यों फिरती रहती हो ? मुसलमान से हिन्दू बनते समय पंडित जी से बस इतना पूछने
में क्या जाता कि धर्म परिवर्तन केवल रोशनआरा खान का ही क्यों ? तुम्हारी सफलता से
पति की कुंठा को दूर करने हेतु सब कुछ त्याग, घर में बैठने से पहले यह क्यों नहीं
सोचा कि भला इस तरह कोई रिश्ता बचता है क्या ? और ये रिश्ता अगर बच भी जाता तो
क्या ? देखो, वह तुमसे बहुत दूर और बहुत आगे निकलता चला गया. प्रथम दृष्टि में ऐसा
लगता है कि वह तुम्हारी प्रतिभा और तुम्हारे अरमानों को अपने पांव तले कुचल आगे बढ़
गया, लेकिन सोचना जरा - क्या यह सच है ? सच में उसने ऐसा किया या तुम स्वयं इसके
लिए जिम्मेदार हो. तुमने अपनी प्रतिभा और अरमानों के पंख अपने हाथों क़तर दिए. ऐसा
नहीं किया करते. इस पूरी कहानी में केवल और केवल तुम ही दोषी हो. तुम्हें भ्रम हो
गया कि तुम त्याग की देवी हो और बस इसी कारण तुम छत के नीचे सिमटती चली गयी. तुम
कैसे भूल गयी कि तुम एक नारी हो, तुम्हारे हिस्से भी एक उन्मुक्त आकाश है और तुम
उड़ सकती हो....”
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(वह नारी है... में संकलित)
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