वे ख़ास हैं - नारों में व 8 मार्च को...


सुबह-सुबह आपकी नींद खुले और आप पायें कि कोई गुलाब का फूल हाथ में लेकर आपके जागने का इंतज़ार कर रहा है तो आपको निःसंदेह अच्छा लगेगा. इसके ऊपर वह यदि यह बताये कि वह आपके लिए ऐसा इसलिये कर रहा है क्योंकि आप बेहद ख़ास हैं; आप अद्भुत हैं, आप अनोखे हैं तो आपको और अच्छा लगेगा. आप अभिभूत हो उठेंगे. ऐसा होना लाज़िमी है, स्वाभाविक है और आपके साथ यदि ऐसा रोज होने लगे और आपके साथ यह व्यवहार कई लोग करने लगें तो निःसंदेह आपको यकीन हो चलेगा कि आप कुछ ख़ास हैं. फिर ख़ास हो जाने के बाद किसी दिन आप सड़क पर खड़े हो किसी के साथ किसी बात पर जोर से ठहाके लगाने के पश्चात जब अपनी दुनिया में वापस लौटें और आपको ख़ास कहने वाले लोग यह कहें कि आज सड़क पर आपने अपनी मर्यादा के अनुरूप व्यवहार नहीं किया क्योंकि ख़ास लोग इस तरह सरे राह लापरवाही से ठहाके नहीं लगाया करते. इस तरह से ठहाका लगाना छोटे लोगों का काम है. यकीन जानिये अब आप पर जादू चलना आरंभ हो चुका है अब आप सरे राह खुलकर ठहाके नहीं लगा पायेंगे क्योंकि आपको अच्छा लगता है जब लोग आपको ख़ास कहते हैं. अब आप किसी भी हालत में ख़ास होने के इस ख़िताब को खोना नहीं चाहेंगे. जैसे-जैसे आप ख़ास होते चले जायेंगे, आपका अपने व्यवहार के ऊपर नियंत्रण समाप्त होता चला जायेगा, आप उनलोगों की इच्छा को पूरा करने को मजबूर होते चले जायेंगे जिन्होंने आपको ख़ास बनाया था. धीरे-धीरे आप गुलाम हो जायेंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा. ऐसे में एक दिन आपकी आँख खुले और आपको अहसास हो कि आप अपनी मौलिकता खो चुके हैं, आप हँसना भूल चुके हैं, खुलकर साँस लेना जीना भूल चुके हैं. आँख खुलने की इस घटना के बाद जैसे ही आप अपनी खोई मौलिकता को वापस पाने की कोशिश करेंगे, खुलकर अपनी जिन्दगी जीना चाहेंगे दुनिया के वे सारे लोग झंडाबरदार बन आपको अपराधी घोषित करते हुए किसी चौराहे पर न्याय करने के लिए इकट्ठे हो जायेंगे.
बीते आठ मार्च को मेरी कुछ महिला मित्रों ने मुझे शिकायत भरी निगाहों से देखा, कुछ ने खुलकर शिकायत की, कुछ ने टेलीफोन पर ताना मारा क्योंकि मैंने इस ख़ास दिन पर उनके लिए कुछ ख़ास नहीं किया था, उन्हें उनके ख़ास होने का अहसास नहीं कराया था. मैं डर गया, ये उस दौर की महिलायें हैं जब इस बात का दावा है कि वे जग गई हैं, उनकी आँखें खुल गई हैं वे अपनी खोई मौलिकता को वापस पाने की कोशिश में हैं.
सदियों से उन्हें ख़ास ख़ास कह के ही उनके शोषण का ताना-बाना रचा जाता रहा है. चूँकि वे खास हैं, उन्हें अमुक मर्यादा का पालन करना चाहिए, अमुक तरीके से रहना चाहिए आदि आदि. उनसे परिवार की इज्जत है वे खुलकर हँस लें, अमुक तरह के वस्त्र पहन लें, किसी गैर मर्द से बात कर लें, अकेले घर से बाहर चली जायें, नकाब न पहनें, पर्दा न करें तो परिवार की इज्जत गई, समाज की इज्जत गई धर्म भ्रष्ट !! आप देखते जाइये जो परिवार, समाज व धर्म महिलाओं को देवी का दर्जा देते हुए उन्हें पूजने की बात करता है, उसका पाखंडी चरित्र कैसे बाहर आता है सब मिलकर नैतिकता, आदर्श व इज्जत का पाठ पढ़ाते हुए अपने ढंग से न्याय सुनाने लगते हैं, जजमेंट देने लगते हैं. पति के साथ जबरन जिंदा जला कर या जिंदा जलने की घटना का महिमामंडन कर स्त्रियों को जिंदा जलने के लिए मजबूर करने वाला समाज उन्हें सती कहकर पूजता है. इस संदर्भ में बहुत पहले लिखे एक लेख तुम नारी हो, सती नहीं (जो 2017 में प्रकाशित लेख-संग्रह वह नारी है... में संकलित है) की कुछ पंक्तियों की याद आ गयी -  

सदियाँ बीतने के बावजूद कुछ रिवाज, कुछ चाहत नहीं मिटतीं. प्रकट रूप में मृत पति की चिता पर जलने की घटना भले ही समाप्त हो गयी प्रतीत होती हो, महिलाओं से कुर्बानी की चाहत अभी मिटी नहीं है. इसी कारण सतियों का महिमा मंडन, उन सती स्थलों पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ और उनके संग चढ़ावा कहीं हमारी दबी चाहतों का प्रकटीकरण तो नहीं ?

तो आवश्यक है ‘ख़ास, विशेष या स्पेशल घोषित किये जाने की कोशिश पर सवाल करने की क्योंकि इसी खास अथवा स्पेशल बनाये जाने की पराकाष्ठा है – स्त्री को देवी अथवा सती बनाना. इसके बरक्स पुरुषों को देवता बनाने की कोई कोशिश हम नहीं देखते. देवी–देवताओं की सारी परिकल्पना हमनें स्वयं बनायी हैं, उनके आचरण, उनका व्यवहार कैसा होगा – ये सब हमने तय कर रखा है. अब अगर किसी पुरुष को हमने देवता घोषित कर दिया तो उस बेचारे की दशा क्या होगी – इसकी सहज कल्पना की जा सकती है. लेकिन बचपन से ही नारी सती और देवी के रूप में तैयार की जाती है. प्रत्यक्ष तौर पर यह सम्मान है, लेकिन असल में यह नारी की मौत है – उसके मासूम जज्बात, छोटी–मोटी आकांक्षाओं–चाहतों, छोटी-बड़ी उड़ान, खुल कर हँसने–रोने की.
       अभी भी ख़ास बनाये जाने की कोशिश जारी है – आठ मार्च को लंबे-लंबे भाषण देना, महिलाओं का महिमामंडन, महिलाओं को विशेष सम्मान देने की बात करने के बाद साल के बांकी तीन सौ चौसठ दिन उनके लिए जंजीर का पूरा इंतज़ाम. आवश्यक है इस पाखण्ड भरे आयोजन में जब सदी के महानायक नारा देते हों कि “बेटियां बहुत ख़ास होती हैं और वे दस बेटों के बराबर होती हैं.” – तो उनसे पूछना क्यों भई इसलिये क्योंकि वे सवाल नहीं करतीं, मान जाती हैं – लाख सफल होने के बावजूद वे ‘ऐश्वर्या राय’ से ‘ऐश्वर्या राय बच्चन’ बनने को सहज तैयार हो जाती हैं.
       महिमामंडन के इस नाटक से परे जब महिलायें इस तथाकथित सभ्य समाज से अपने लिए एक आम इंसान – एक स्वतंत्र इंसान के रूप में खुलकर जीने के अधिकार को ले पाती हैं तो यही उनकी उपलब्धि होगी. तब चाहें तो आठ मार्च के बदले वे किसी अठारह मार्च को मंच पर यह उद्घोषित कर सकती हैं कि “बेटे बड़े ख़ास होते हैं.” (गौर से देखियेगा – सच तो यही है कि बेटे ही ख़ास हैं; वरना बेटों की खातिर बेटियों को गर्भ में मार कर उनके ख़ास होने की हवाई घोषणा बंद हो चुकी होती.)
       अभी लंबी यात्रा शेष है, ख़ास होने की तो बात ही छोड़िये – अभी इंसान के रूप में अपनी न्यूनतम स्वतंत्रता प्राप्त करने की, मनुष्य के रूप में अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने की व सहज भाव से पुरुषों के समकक्ष स्थापित होने का सपना तो फिलहाल सपना ही है. अंत में प्रख्यात कवि ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता का अंश यहाँ मौजूँ है (कुछ पाठको से क्षमा याचना के साथ व इस स्वीकारोक्ति के साथ कि क्या करें जब भी विचारों की कोई धारा निकलती है तो अनायास ही ज्ञानेन्द्रपति की कविता से जा मिलती है. इसलिये उस कविता को उद्धरित किये बिना बात अधूरी सी लगती है.) जब लड़कियों के लिए बहुत कुछ किये जाने का शोर मचा हो वैसे में ज्ञानेन्द्रपति इस समाज को सच का आईना दिखाते हुए एक छोटी सी माँग रखते हैं –
“....
अरे ! उन्हें इतना भर आकाश तो दीजिए-
समाजाकाश
कि उकस-विकस सकें उनके स्तन शिशु
हुलक-पुलक सकें
और तिपहरी के सूरज के साथ बास्केटबाल खेलते हुए ताड़वृक्षों की तरह
निस्संकोच लंबोतरी हो लड़कियाँ
अपने अस्तित्व के प्रति कोई अपराध-बोध महसूस न करें वे
आईने के सामने से हट कर सड़क पर आते ही
आप उन्हें कुछ दें न दें
उनका नीलाकाश छीनिए मत, कृपया.”
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