नौकरों की दुनिया में कॉन्स्टिपेशन
दुनिया को चलाने में नौकरों का बड़ा अहम रोल रहा है. सिविल सर्वेंट अथवा पब्लिक
सर्वेंट में सर्वेंट अर्थात नौकर शब्द तो खुले तौर पर शामिल है ही. पिछले दिनों गरजते-बरसते
सेवक नामक टर्म समेत तमाम खुबसूरत अलंकारिक टाइटलों जैसे कि एग्जीक्यूटिव, सी ई ओ,
डायरेक्टर, मैनेजर, सेक्रेटरी आदि नौकरों की दुनिया में ही शामिल हैं. अब दुनिया
को चलाने में नौकरों की अपने ढंग की अनूठी व्यवस्था होती है – कोई छोटा नौकर, कोई
बड़ा नौकर. छोटे नौकर के नीचे और छोटे नौकर; बड़े नौकर के ऊपर और बड़े नौकर. इस
व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में एक भ्रांति का बड़ा हाथ है. दूसरे शब्दों में
कहें तो इस व्यवस्था की संजीवनी शक्ति एक भ्रम पर टिकी है जिसमें हरेक बड़े नौकर को
स्वयं के मालिक होने पर पूरा यकीन होता है. साथ ही नौकरों के बीच यह मान्यता भी
बड़ी प्रबल होती है कि सफल होने अथवा बड़े होने के लिए आवश्यक है कि कोई स्वयं को
किस हद तक शक्तिशाली मालिक साबित करता है और शक्तिशाली साबित करने का सबसे आसान
तरीका है – छोटे नौकरों को कोसते रहना, उन्हें यह अहसास कराते रहना कि वे कितने बड़े
निकम्मे हैं. दूसरी ओर शक्तिशाली मालिक होने का दंभ भरने वाला यह बड़ा नौकर अपने से
बड़े नौकर के सामने उसी इंटेंसिटी से दुम हिलाता है – बिल्कुल स्वामिभक्त कुत्ते की
तरह. (यह भूलने की जरुरत नहीं कि यही स्वामिभक्त कुत्ता कितनी आसानी से अपने से
कमजोर कुत्ते पर चढ़ बैठता है.)
इस तरह नौकरों की दुनिया को सुचारू रूप से चलाने का एक बड़ा कारगर तरीका है कि
बड़ा नौकर छोटे नौकर को लात मारता है, छोटा नौकर अपने से छोटे नौकर को लात मारता
है, छोटे से छोटा नौकर अपने से छोटे नौकर को लात मारता है और काम निकल पड़ता है. अच्छे
रिजल्ट आते हैं, टारगेट पूरे होते हैं और अंततः तरक्की भी होती है – छोटा नौकर बड़ा
नौकर बन जाता है. फिर वह और जोर से लात मारता है.
यद्यपि मैग्नीफाइंग ग्लास होने के बावजूद देखना कठिन होता है, कोशिश करने पर कभी-कभार
दिख जाता है – शीर्ष पर बैठे बड़े नौकर (जिसे सफलतम व्यक्ति और रिटायर होने से पहले
तक जिसकी तारीफ़ में कसीदे कसे जाते हैं) का चिड़चिड़ा चेहरा मानो वह कॉन्स्टिपेशन का शिकार व्यक्ति – जिसका पेट साफ
न हुआ हो. डॉक्टर और मनस्विद दोनों कहते हैं कि पेट साफ़ न होने की दशा में व्यक्ति
के ‘क्लैरिटी ऑफ़ विज़न’ पर असर पड़ता है. अब इस बड़े नौकर को लीडर कहा जाने लगता है और
इस कॉन्स्टिपेटेड विज़न वाले बड़े नौकर को पूरा यकीन होता है कि उसके जैसा विज़नरी तो
कोई हुआ ही नहीं - भूतो न भविष्यतः. लीडर कहे जाने वाले नौकर के कॉन्स्टिपेटेड
विज़न का प्रभाव पूरे सिस्टम में दिखता है.
एक और अहम बात नौकर (ख़ास करके बड़े नौकर अथवा तरक्की/प्रमोशन
की आस में बैठे छोटे नौकर) निरे बच्चे ही होते है. बच्चों को मोटीवेट करने के दो प्रभावी
तरीके हैं – पहला, तारीफ़ अथवा टॉफी का लालच; दूसरा डांट-फटकार अथवा पिटाई का भय.
नौकरों की दुनिया में ये दोनों तरीके काम करते हैं. लेकिन बच्चों के ऊपर आजमाए इन
दोनों तरीकों की अपनी सीमा है और जिन बच्चों पर इनका असर नहीं होता हम उन्हें ‘थेथर’
बच्चा कहते हैं. ठीक इसी तरह से नौकरों की दुनिया में भी ‘थेथर’ पाए जाते हैं.
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