सोमनाथ की पताका लहरा रही है !

"आज जिन लोगों को सोमनाथ याद आ रहे हैं, इनसे पूछिए कि क्या तुम्हें इतिहास पता है ? तुम्हारे परनाना, तुम्हारे पिता जी के नाना, तुम्हारी दादी माँ के पिता जी जो इस देश के पहले प्रधानमंत्री थे, जब सरदार पटेल सोमनाथ का उद्धार करवा रहे थे तब उनकी भौहें क्यों तन गईं थी."  
   इक्कीसवीं सदी का आधुनिक व वैज्ञानिक भारत इस तंज पर जोर की ताली बजाता है तो इसके जवाब में डरे हुए लोग अपनी भक्ति व अपने नेता की भक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं -
      “सारा देश जानता है कि वे अनन्य शिवभक्त हैं और कहने की जरुरत नहीं कि वे न सिर्फ हिन्दू धर्म से हैं, बल्कि ‘जनेऊधारी हिंदू हैं.”
      भजन-कीर्तन करते भारत के लिए पूजा-अर्चना आज किसी व्यक्ति का निजी मामला नहीं है. आज उसके प्रदर्शन का दौर है. समय धार्मिक उद्घोष का है, शंखनाद का है. कोई यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता कि ‘नहीं, मैं नहीं मानता !’ कोई यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता कि राजा (प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति आदि जन प्रतिनधि) व राज्य को पंथनिरपेक्ष रहना है. पंथनिरपेक्षता आज एक मजाक का व अछूत शब्द है. कुछ हट के, असहमति के दबे स्वर (भले ही वे कितने भी तथ्यपरक व सत्य हों) को निर्ममता से दबा देने का समय है. ऐसा एक दिन में नहीं हुआ है, एक सदी से अधिक के अनवरत व अथक प्रयास के बाद यह हुआ है – एक छोटे पाकिस्तान के जवाब में महापाकिस्तान बनना तो चाहिये. यह एक दिन में नहीं हुआ है. धीरे-धीरे ही सही, लेकिन हुआ है यह सच. वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति की कविता साक्षी रही है –
       “ज़माना ऐसा चल रहा है
      कि गणेश छाप बीड़ी टानते हुए लोग – अशिव के गण
      जला दे रहे हैं गणेश उकेरे कैनवस
      कि तुमने हमारी सरस्वती के साथ छेड़खानी क्यों की”

      और अब तो सभी मंदिरों में पूजा-अर्चना करते दिख रहे हैं – गौरव के पल हैं. ज्ञानेन्द्रपति जी की ही एक कविता की दो पंक्ति है –
      “देखो तो हनुमान जी के गाल
      कितने लाल रहते हैं
      हिन्दू भाल पर तिलक कितना सोहता है
      जबसे छोटी हो गई है बगल की मस्जिद की अजानबुर्ज” 

भले ही परनाना की घोषित विरासत वाले लोग अपने परनाना को लेकर बैकफुट पर जा रहे हों - वह जो परनाना था, था तो गजब का चितेरा. जब धर्म के नाम पर लोग कट-मर रहे थे, धार्मिक बेवकूफियाँ चरम पर थीं; धर्म के नाम पर नए देश का निर्माण हो रहा था; वह इन सबसे परे नए भारत में वैज्ञानिक चेतना उकेर रहा था. ‘नियति के साथ किये वायदे’ में वह मूल भारत की बात कर रहा था जो ‘पाकिस्तान की बुनियाद की प्रतिक्रिया से बिलकुल अलग था, उसे अपने सनातन भारत का बोध था भले ही पाकिस्तान से प्रेरणा हासिल करने वाले उसे कुछ और कहें. आधी रात धार्मिक कट्टरता के अँधेरे में वह भारतीय दृष्टि की बात कर रहा था –
 अच्छे और बुरे दोनों समय में भारत ने न तो कभी अपनी खोज की दृष्टि खोई और न ही उसे ताकत देने वाले आदर्शों को कभी भूला. आज हमारे दुर्भाग्य की समयावधि खत्म हो गयी है और भारत अपनी खोज पुन: कर लेगा.  
......  हम सभी, चाहे हम किसी भी धर्म से संबंधित हों, समान रूप से समान अधिकार, विशेषाधिकार और दायित्व के साथ भारत की संतानें हैं. हम सांप्रदायिकता या संकीर्णता को प्रोत्साहित नहीं कर सकते हैं, कोई भी देश महान नहीं हो सकता है जिसके लोगों की सोच में या कर्म में संकीर्णता हो.

सांप्रदायिक संकीर्णता की रतौंधी से भारत को बचाने की कोशिश करते उस परनाना में इतना बूता तो था ही कि वह सोमनाथ की बजाय भाखड़ा नांगल जैसे आधुनिक परियोजनाओं को नए भारत का मंदिर कह रहा था. वह आई.आई.टी. की नींव डालते हुए उन्हें नए भारत का मंदिर कह रहा था. भले ही उस परनाना के विरासत की बात करने वाले लोग डरे हुए हैं, मंदिरों में दिख रहे हैं; अपने आपको शिव भक्त कह रहे हों – उसने कुछ ऐसा जरुर किया था कि तमाम कोशिशों के बावजूद भारत नए पाकिस्तान के जवाब में ‘महापाकिस्तान’ नहीं बना और आज की विदेश मंत्री संयुक्त राष्ट्रसंघ में बड़े फक्र से कहती हैं –
70 वर्ष के दौरान भारत में बहुत सारे राजनैतिक दलों की सरकारें बनीं लेकिन सभी ने विकास की गति को जारी रखा। हमने विश्व प्रसिद्ध Indian Institutes of Technology बनाए, Indian Institutes of Management बनाए और All India Institute of Medical Science जैसे बड़े अस्पताल बनाए। लेकिन आपने क्या बनाया? आपने आतंकवादी ठिकाने बनाए, terrorist camps बनाए। हमने scholars पैदा किए, engineers पैदा किए, doctors पैदा किए। आपने क्या पैदा किया? आपने दहशतगर्द पैदा किए, जेहादी पैदा किए। आपने लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन और हक्कानी नेटवर्क पैदा किए।”      
आज जब उस परनाना को लेकर तरह-तरह की झूठ फैलाने का दौर है, उसकी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया को सालों बाद फिर से पलटा और उन्हें यहाँ दुहराने का मन हो रहा है. लेकिन यह आसान नहीं है. इसलिये इस किताब के कुछ शब्दों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का जोखिम ले रहा हूँ -
“भारत के लिए आवश्यक है कि वह अपने अतीत से मुक्त हो और उसका वर्तमान अतीत के अवांछित बोझ से न दब जाय. हमारी जिंदगी अतीत के कचरों से भरी पड़ी है, आवश्यक है ऐसी चीजों को दफन कर देना जो मर चुकी हों. लेकिन मेरे कहने का मतलब यह कतई नहीं कि हम भारत की उस संजीवनी शक्ति को भुला दें जो हमें अपने अतीत से मिलती है. हम अपने पूर्वजों के आदर्श, सत्य-खोजी एवं जिज्ञासु प्रवृति, उनकी समावेशी सोच, विभिन्न धाराओं को समावेशित कर एक साझी संस्कृति विकसित करने, गैरों को भी अपना लेने के इतिहास को कैसे भुला सकते हैं. हम इसे कभी भी भुला नहीं सकते और यदि भारत ने कभी इसे भुलाया तो वह भारत के रूप में नहीं रह सकता.
इसलिये भारत की मौलिक व आत्मिक सुंदरता को समय के साथ विकारों की गर्द ने ढक रखा है, उस गर्द की सफाई आवश्यक है. फिर से एकबार हमें अपने अंदर सत्य, सुंदरता व स्वतंत्र विचारों के लिए एक जुनून पैदा करना है ताकि नूतन दृष्टि विकसित हो सके.
धर्म ने मानवता के विकास में अहम् योगदान दिया है. इसने मानव जीवन के लिए मूल्यों व आदर्शों की बुनियाद रखी. लेकिन तमाम अच्छाईयों के बावजूद प्रत्येक धर्म लोगों को रीति-रिवाजों, अंधविश्वासों, निराधार मान्यताओं से जकड़ कर रख देता है. यद्यपि यह असीम व अनंत सत्य की खोज की बात करता है, यह लोगों को बस कुछ सड़े-गले परम्पराओं का दास बना देता है. चूँकि धर्म में असीम व सनातन सत्य के तलाश की बात होती है, स्वभावतः धर्म को लोगों में जिज्ञासा व नए सोच को बढ़ावा देना चाहिए. लेकिन होता इसका बिलकुल उलट है – धर्म ने मानव समाज में तरक्कीपसंद व परिवर्तन की प्रवृति को हमेशा ही नकारा है. तमाम किताबी अच्छाइयों के बावजूद संगठित धर्म ने संकीर्णता, असहिष्णुता, अंधविश्वास, जड़ता व विवेकहीनता को जन्म दिया है.
हम वैज्ञानिक युग में हैं, वैज्ञानिक तकनीक व संयंत्र ने हमारे जीवन में घर कर लिया है. तकनीकी संयंत्रों का उपयोग और लोगों में वैज्ञानिक चेतना (साइंटिफिक टेम्परामेंट) का होना दो अलग बातें हैं. पश्चिम में जहाँ वैज्ञानिक क्रांति ज्यादा हुई है वहां भी इस साइंटिफिक टेम्पर का अभाव है. साइंटिफिक टेम्पर का मतलब है मानने की बजाय जानने की कोशिश - सत्य, तर्कों, तथ्यों की कसौटी पर कसे बगैर किसी भी मान्यता को न मानने की जिद. नए सत्य, नए ज्ञान, नई दृष्टि की खोज ही साइंटिफिक टेम्पर है.”

उस परनाना ने पाकिस्तान व पाकिस्तान की सोच से प्रेरणा लेने की बजाय जीवनपर्यंत भारत को खोजा, उस भारत में साइंटिफिक टेम्पर विकसित करने की कोशिश में लगा रहा. हो सकता है उससे चूक भी हुई हो, यह स्वाभाविक है. लेकिन स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के बारे में फैलाए जा रहे झूठ के दौर में पिछली सदी के उस नायक को न जानने वालों की तादाद बढ़ रही है क्योंकि आज जानने की बजाय मानने पर जोर है. जानने की कोशिश अर्थात साइंटिफिक टेम्पर के अपने चैलेंज हैं, अपनी मुसीबत है; मान लेना बड़ा सरल है फिर भी आज के युवा को नेहरु को एकबार जानना, पढ़ना चाहिये. हरे रंग के जवाब में भगवा रंग से रंगते भारत का क्या होगा – यह आने वाला वक्त बतायेगा. नेहरु संगठित धर्म के नुकसान के बरक्स जिस साइंटिफिक टेम्पर की बात करते हैं, एकबार उसे समझ तो सकते हैं. संगठित धर्म व इसकी कट्टरता से दूसरों की बजाय स्वयं का, इसके मानने वाले लोगों का सबसे अधिक नुकसान होता है – इस्लाम जैसे संगठित धर्म से प्रेरणा हासिल करने वाले कैसे भूल जाते हैं कि पेशावर में मरने वाले अबोध बच्चे किसी और धर्म के नहीं थे, आईएसआईएस ने गैर-धर्मों के लोगों के मुकाबले इस्लाम को मानने वालों को कितना नुकसान पहुँचाया है.
तो सोमनाथ के लहराते पताके के प्रति पूरी श्रद्धा रखते हुए भी जरा एकबार उस परनाना और साबरमती के उसके गुरु को उनकी समग्रता में जानने का प्रयास करने की आवश्यकता है कि समय के साथ हमारा कद इतना छोटा क्यों होता जा रहा है कि जरा सी बात पर हमारा मुख सात्विक क्रोध से तमतमा उठता है[1]. भगवान शिव तो भोले बाबा रहे हैं – सोम (चंद्र) के भी कष्ट हरते हैं. कभी-कभार उन्होंने त्रिनेत्र खोले होंगे, कभी-कभार क्रोध से भर जाते रहे होंगे लेकिन वे जो आज उन पर दावा करते हैं, हमेशा क्रोध से भरे क्यों रहते हैं. हर घड़ी खून क्यों उबाल मारता रहता है – यह उबलता खून सबसे पहले अपने को जलायेगा, अपनों को जलायेगा; उस भारत को भी जलायेगा जिसे वह परनाना अनंत खोज, अनंत यात्रा कहा करता था.   
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[1] ज्ञानेन्द्रपति जी की कविता ‘एक मंदिर की उन्नति-कथा के एक पैरा से प्रभावित 

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