आलमारी
किसी देश में अवांछित शरणार्थियों की तरह घर
में किताबें जहाँ-तहाँ दिखने लगी थीं. इधर-उधर, हर तरफ किताबों के बिखरे होने से
शांति-भंग होने की आशंका व किताबों के इस अतिक्रमण के विरोध में निर्जीव व सजीव
दोनों वर्गों के साझा मोर्चा लेने की तैयारी की खबर हवा में थी. संशय, विरोध,
आशंका व तमाम कुढ़न के बावजूद आहत पक्ष ने समझदारी व विवेक का दामन थामते हुए कोई
‘एक्शन’ लेने से पूर्व नोटिस देने व बातचीत करने के प्रोटोकॉल का अनुपालन
सुनिश्चित किया. आहत पक्ष के प्रतिनिधि ने पहले अपना दर्द बयां किया कि किताबों के
इस बिखराव के कारण अराजकता किस हद तक बढ़ गयी है और वह दिन दूर नहीं जब वे रसोईघर में
भी दाखिल हो जायेंगी. इसी के साथ चेतावनी भी दी गई कि यदि यह हुआ तो ठीक नहीं होगा,
लेकिन बातचीत विफल न हो इसको ध्यान में रखकर प्रतिनिधि ने एक महत्वपूर्ण बात रखी -–
‘अराजकता की इस स्थिति से निपटने के लिए इन किताबों को क्यों न उनका देश अथवा घर
दे दिया जाय. आलमारी क्यों न खरीद ली जाय !!!’
आलमारी खरीद ली गई और किताबों को उनका वतन
मिल गया. सब करीने से सज गईं, व्यवस्था का राज कायम हो गया. बात बस इतनी सी है.
बात बस इतनी सी है लेकिन इस बार एक अलग तरह
की आलमारी खरीदी गई थी, जमाने के हिसाब से – किंडल ! अमेज़न किंडल. इस पर कुछ लोग
भड़क भी सकते हैं -- बायें हाथ चलने वाले पूंजीवादी कंपनी के एक उत्पाद को समर्थन
देने के कारण तो दाहिने हाथ चलने वाले स्वदेशी की जगह विदेशी उत्पाद के उपभोग के
कारण. यथास्थितिवादी पेड़ों की कब्र पर बैठकर पढ़ने के आनंद का जिक्र करते हुए
किताबों की इस नई आलमारी को संशय की निगाह से देख सकते हैं. परिवर्तनरोधी चित्त को
ध्यान में रखने पर यह स्वाभाविक भी लगता है. इसी के साथ पुस्तकप्रेमियों का एक बड़ा
तबका ऐसा होता है जिनके लिये किताबें व किताबों को पढ़ना दोनों सजावट हेतु है –
पढ़ना भी व्यर्थ यदि कोई देख न ले या फिर उस पढ़े की चर्चा कोई और सुन न ले. किताबें
यदि खरीदी गई हों तो आवश्यक है कि वे घर या दफ्तर की रौनक बढ़ाएं. ऐसे में किंडल की
परिकल्पना पुस्तक-प्रेमियों के बड़े तबके को दुखी करने के लिये पर्याप्त है – किंडल
खरीदने का क्या फायदा; जितने में किंडल खरीदी जायेगी उतने में तो ढेरों किताबें
(हार्ड कॉपी में) आ जायेंगी.
यद्यपि अमेज़न ने मुझे मार्केटिंग एजेंट
नियुक्त नहीं किया है, आज किंडल के बहाने ई-बुक की बात कर रहा हूँ. आने वाला दौर केवल
और केवल ई-बुक का है. किसी जमाने में किताबें लोगों की स्मृतियों में होती थीं,
फिर कागज़ व प्रिंटिंग प्रेस तक पहुँचने से पूर्व हमने हजारों साल की विकास-यात्रा
में किताबों के विविध रूप देखें हैं. इसलिये हम मानें या न मानें, बायें हाथ चलने
वाले हों या दाहिने हाथ चलने वाले, हमारा चित्त परिवर्तनरोधी हो या सजावटी – कागज़
के पन्नों में सिमटी किताबों को ई-बुक में बदलना ही है. कागज़ पर लिखी अथवा टाइप की
गई चिट्ठियों की जगह ई-मेल, एसएमएस ने ले ली है. धीरे-धीरे घरों में सुबह-सुबह
अखबारों का आना बंद होने लगा है क्योंकि लोगों ने मोबाइल एप पर अखबार पढ़ना आरंभ कर
दिया है. पत्र-पत्रिकाओं के पाठक भी धीरे-धीरे डिजीटल/वेब पत्रिकाओं को पढ़ने लगे
हैं.
तो यह उचित समय है कि पुस्तकप्रेमी भी अपनी
आदत बदल लें. मोटी-मोटी किताबों की जगह बस एक स्क्रीन, बड़ी आलमारियों की जगह अमेज़न
किंडल सरीखी कुछेक ग्राम की पतली दुबली डिवाइस. पढ़ के देखने पर पता चलता है
कहानियाँ व कवितायें यहाँ भी धड़कती हैं और फिर हममें भी धड़कने लगती हैं.
महत्वपूर्ण हैं – शब्द, जो हमारे सामने एक जीवंत तस्वीर बनाते हैं. रही बात
किताबों में छपी पंक्तियों को अंडरलाइन
करने की तो किंडल में इसकी भी सुविधा है, बस तरीका बदल जाता है. इसी के साथ तकनीक
की वे तमाम सुविधायें भी उपलब्ध हो जाती हैं जो छपी किताबों में नहीं होतीं,
उदाहरणस्वरूप – डिक्शनरी, बुकमार्किंग, नोट्स लिखने की आज़ादी आदि. और सबसे बड़ी बात
कि हम अपने साथ एक-दो किताबें लेकर चलने की बजाय किताबों की पूरी आलमारी लेकर चल
रहे होते हैं. फिर किताबों के खोने, जलने, दीमक खाने का भी भय नहीं.
हाल के महीनों में अमेज़न किंडल पर उपलब्ध हिन्दी
समेत अन्य भारतीय भाषाओं की किताबों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है. दिलचस्प पहलू
है कि ढेरों ऐसी किताबें, जिन्हें पढ़ने के लिए हम उनके प्रकाशकों/दुकानों का पता
लगाने में परेशान होते हैं वे भी यहाँ उपलब्ध हैं.
हाँ, किताबों के इस रूप-परिवर्तन से पुराने
लोगों में एक वाजिब दर्द का उभरना लाजिमी है. गुलज़ार की कविता ‘किताबें झाँकती हैं
बंद आलमारी के शीशों से’ इस दर्द को बयां करती हैं –
“.........
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे
फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने
रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नहीं होंगे !!”
निराश होने की जरुरत नहीं – वे अब भी होते
रहेंगे. दिलों ने धड़कना अभी बंद नहीं किया है और जब तक दिल धड़कते रहेंगे, रिश्ते
बनते रहेंगे. हाँ, तरीके बदल जायेंगे. *************
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