तुम्हारे हिस्से का आलू

‘कफ़न’ का कथानक
प्रेमचंद ने
‘कफ़न’ आज से बयासी साल पहले, 1935 में लिखी थी. सालों के बदलने से क्या बदलता है.
बयासी साल पहले झोपड़ी के अन्दर एक महिला प्रसव पीड़ा से तड़प रही है और झोपड़ी के
द्वार पर उसके पति व ससुर अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे हैं, जो वे किसी खेत से खोद लाये थे. वह तड़प रही है अकेली, रह-रहकर उसके मुँह
से दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती है लेकिन उसकी कौन मदद करे. उसके अपनों – पति
व ससुर, को भली-भांति अहसास है कि – “बचेगी नहीं”. लेकिन दोनों भुन रहे आलू के
सामने से हिलते नहीं क्योंकि उन्हें भय है कि यदि एक झोपड़ी के अंदर गया तो दूसरा
आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा. अंदर वह महिला तड़प – तड़प कर मर रही है और ये दोनों
अलाव से आलू निकाल-निकाल कर जलते-जलते खा रहे हैं. कल से कुछ नहीं खाया है. अब इतना
सब्र नहीं कि ठण्डा हो जाने दें. कई बार दोनों की जबानें जल जाती हैं. छिल जाने पर
आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता है और उस
अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में है कि वह अन्दर पहुँच जाए. वहाँ
उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान हैं. इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते है.
हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते हैं. ससुर को उस वक्त ठाकुर की
बरात याद आती है जिसमें बीस साल पहले वह गया था. उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली
थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी है. उस दावत को याद करते हुए दोनों आलू ख़त्म करते
हैं, पानी पीते हैं और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले
सो जाते हैं।
और झोपड़ी के अंदर प्रसव पीड़ा से गुजरती हुई महिला
कराहती हुई, तड़पती हुई मर जाती है.
सुबह जब उसके पति व ससुर जागते हैं तो उस महिला
के कफ़न के नाम पर गाँव वालों से चंदे के रूप में ठीक-ठाक रकम का इंतज़ाम कर लेते है.
कफ़न खरीदने वे बाज़ार जाते हैं. प्रेमचंद लिखते हैं –
“..... बाजार
में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दुकान पर गये, कभी उसकी दुकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती
देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न
जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व
निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे।
फिर घीसू (ससुर) ने गद्दी के सामने जाकर कहा - साहूजी, एक
बोतल हमें भी देना।
उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर
में आ गये।”
कफ़न का पुनर्पाठ
‘कफ़न’ को मूल्यों के खंडहर की कहानी कहा जाता है
और कई विद्वान यह मानते हैं कि कहानी
जिस सत्य को उजागर करती है वह जीवन के तथ्य से मेल नहीं खाता. लेकिन टाइम्स ऑफ़
इंडिया में छपी खबर कफ़न को दुहराती है. यहाँ उल्लेखनीय है कि ऐसी खबरें आती रहती
हैं लेकिन हमारा मूल्य हमारी संवेदनाओं को एक हद में रहने का फरमान जारी करता है
और हम जानबूझ कर ऐसे सच से अनजान बने रहते हैं.
कफ़न लिखे जाने
के बयासी साल बाद हमारे ‘न्यू इंडिया’ की इस सच्ची कहानी का नायक तेईस हजार रुपये
में अपने ग्यारह महीने के बेटे को बेचता है. इन रुपयों में से वह दो हजार में एक
मोबाइल खरीदता है और शेष को दारु में खर्च कर डालता है. यहाँ भी दो मुख्य किरदार
हैं – एक पिता व दूसरा उसका साला (यानी बच्चे का मामा). बच्चे का मामा सौदे को
पटाये जाने में अहम रोल अदा करता है – ठीक उसी तरह जैसे ‘कफ़न’ के बाप-बेटे एक
दूसरे के कृत्यों को जस्टिफाई करते हुए पूरक बनते हैं.
प्रेमचंद की
कहानी को पढ़ते हुए ऐसा लग सकता है कि यह आम समाज का सच नहीं बल्कि अपवादस्वरूप
एकाध कामचोर, आलसी व पियक्कड़ निरक्षरों की कहानी है और इस तरह अधिकतर लोग अपने को
तुष्ट कर सकते हैं कि कफ़न उनके हिस्से का सच नहीं है. लेकिन धीरे-धीरे ‘कफ़न’ का सच
हर घर में प्रवेश करने लगा है – जीवन की आपा-धापी में जब बच्चे को अपनों की गोद व
घर की जरुरत होती है, वह कहीं और या बोर्डिंग स्कूल में होता है और जब वृद्धावस्था
में किसी अपने के प्यार व सहारे की दरकार होती है – मौत का सन्नाटा लिए भयावह अकेलापन
साथ होता है. ख़बरें आम होने लगी हैं कि किसी फ्लैट में किसी वृद्ध की मौत हो गई और
किसी को खबर नहीं लगती. जबतक किसी को खबर लगती है, शरीर सड़ चुका होता है या कभी तो
केवल कंकाल ही बचता है. अपनों को जब हमारी सबसे ज्यादा जरुरत होती है, हम उनसे अलग
कुछ ख़ास (??) कर रहे होते हैं.
टाइम्स ऑफ़
इंडिया की खबर के बाद कफ़न को एकबार फिर से पढ़ा - सालों बाद. यद्यपि प्रेमचंद के
नायक काहिल व कामचोर हैं, आज के कफ़न के ‘नायक’ कर्मठ, सक्षम व सफलता की दौड़ में
सबसे आगे निकलने की कोशिश में हैं. जब हमारे अपने हमें आवाज दे रहे होते हैं – हम
उसे इस डर के मारे कि कोई दूसरा हमारे हिस्से का आलू न खा जाय, सुनने से इनकार
करते रहते हैं. अपनों से दूर हम अमेरिका में हों या बंगलोर अथवा मुंबई में, हमें
मालूम रहता है कि घर के अंदर से कोई कातर आवाज़ दे रहा है; लेकिन कैरियर, प्रोमोशन
अथवा बिज़नस डील का आलू कोई और न खा ले – इस डर के मारे हमें वो आवाज़ सुनाई नहीं
पड़ती. और अंततः जब आवाज आनी बंद हो जाती है, कफ़न के नायक की तरह कोई बोलता है –
‘क्यों रोता है बेटा,
खुश हो कि वह मायाजाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी. बड़ी भाग्यवान थी, जो
इतनी जल्द माया-मोह के बंधन तोड़ दिये.’
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