भीड़ भारत और विवेकानन्द # 1

       (विवेकानन्द 1902 में धरती छोड़ गये. तब उनकी उम्र उनतालीस साल थी. कहते हैं इक्कीसवीं सदी के न्यू इंडिया में युवा वास करते हैं, युवाओं के बावजूद न्यू इंडिया भीड़-भारत कैसे बन जाता है. वह भगत सिंह व विवेकानन्द के नाम जपता है लेकिन जाप करने में जिस दुर्घटना की संभावना रहती है, वह न्यू इंडिया के साथ घटित होता है. जाप करने वाले मतलब नहीं जानते, जिनका नाम जपते रहते हैं उसे जानते तक नहीं. इसीलिए ‘टीकाचक’ के अगले कुछ अंकों में विवेकानन्द की बात !
       बच्चों को धार्मिक रूप से संस्कारित करने की कोशिश व अपने इष्ट/मत/धर्म को लेकर की जाने वाली जिद पर विवेकानन्द के शब्द...)
    
इष्ट की परिकल्पना को ठीक-ठीक समझ लेने पर हम दुनिया के सभी धर्मों को समझ सकेंगे. ‘इष्ट’ शब्द ‘इष्’ धातु से बना है. ‘इष्’ का अर्थ है इच्छा करना, पसंद करना, चुनना.
       एक ही विषय में बहुत से भेद-प्रभेद होंगे. अज्ञानी लोग इनमें से किसी एक प्रभेद को ले लेते हैं और उसी को अपना आधार बना लेते हैं, और विश्व की व्याख्या अपनी दृष्टि के अनुसार करके दूसरे के अधिकार का केवल निषेध ही नहीं करते, वरन् यह कहने तक का साहस करते हैं कि दूसरों का मार्ग बिलकुल गलत है तथा केवल उन्हींका सत्य है. यदि इनका विरोध किया जाता है तो वे लड़ने लगते हैं.
       ...हम में से प्रत्येक की एक विशेष गति, एक विशेष प्रवृत्ति होती है और इसीलिए प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करना पड़ता है. यह मार्ग, यह पद्धति, जो हमारी प्रवृत्ति के अनुकूल है, हमारा 'इष्ट मार्ग' कहलाता है. यही 'इष्ट' का तत्व है, और जो हमारा मार्ग हमारा है उसे हम अपना इष्ट कहते हैं. .....'इष्ट' के इस सिद्धांत का अर्थ है, हर किसी को अपना धर्म स्वयं चुन लेने की स्वतंत्रता देना. जिसकी उपासना कोई करता हो, किसी दूसरे को उसी की उपासना करने के लिए विवश नहीं करना चाहिए. सभी मनुष्यों को एक ही झुण्ड में शामिल करने की चेष्टा सभी को भेड़िया-धसान हाँककर एक ही कोठरी में बंद करने का प्रयत्न, फौजी बल, जबरदस्ती या बहस द्वारा हर एक से उसी एक देवता की पूजा कराने के प्रयत्न में भूतकाल में निष्फल हुए हैं और भविष्य में भी निष्फल होंगे क्योंकि प्रकृति की विभिन्नता के कारण ऐसा हो सकना या ऐसा कर सकना असंभव है. यही नहीं, वरन् इससे मनुष्य की प्रगति के अवरुद्ध हो जाने की संभावना है. शायद बिरला ही पुरुष या स्त्री ऐसी हो जो किसी न किसी धर्म के पालन की चेष्टा में न लगी हो, पर संतोष कितनों को मिला है ? संतोष या कुछ पाने वालों की संख्या कितनी अल्प है ! कितने कम लोगों को कुछ मिल पाता है. और ऐसा क्यों होता है ? इसीलिए कि उनमें से बहुतेरे असंभव कार्यों में हाथ डाल देते हैं. वे इन मार्गों में दूसरों के आदेश से जबरदस्ती डाल दिए गए हैं. उदाहरणार्थ मेरे बचपन में ही मेरे पिता मेरे हाथ में एक छोटी सी पुस्तक दे देते हैं और कहते हैं, ईश्वर इस प्रकार का है और ऐसा ऐसा है. मेरे मन में इन बातों को भर देने का उनका क्या प्रयोजन ? मेरा विकास किस तरह होगा, यह उन्हें क्या मालूम ? मेरी प्रकृति का विकास कहाँ तक हुआ है, यह उन्हें विदित नहीं है, फिर भी वे अपने विचारों को मेरे दिमाग में घुसाना चाहते हैं. फल यह होता है कि मेरे मन का विकास रुक जाता है. तुम किसी पौधे को ऐसी जमीन में नहीं उगा सकते, जो उसके उपयुक्त न हो. बालक अपने आप ही सीख लेता है. तुम तो उसे उसके ही मार्ग में आगे बढ़ने के लिए सहायता मात्र दे सकते हो. .....तुम उसके मार्ग की कठिनाइयों को दूर कर सकते हो, पर ज्ञान तो उसके अपने स्वभाव से ही उत्पन्न होता है.
       .... उसी प्रकार, और उससे भी अधिक धर्म-शिक्षा में मुझे अपना गुरु स्वयं ही बनना होगा. मेरे सिर में तरह तरह की निरर्थक बातें भर देने का मेरे पिता को क्या अधिकार है ? मेरे सिर में ऐसी बातों को भर देने का मेरे मालिक या समाज को क्या अधिकार है ? संभव है यह विचार अच्छे हों, पर मेरा मार्ग उनसे भिन्न हो सकता है. करोड़ों निर्बोध बालकों को शिक्षा के गलत तरीकों से विकृत किया जा रहा है. इससे होने वाले भयंकर अनिष्ट पर विचार करो. कितनी ही ऐसी सुंदर चीजें जो आगे चलकर सुंदर आध्यात्मिक शक्तियों के पुष्पों के रूप में प्रस्फुटित होतीं, उन्हें हमने वंशपरंपरागत धर्म, सामाजिक धर्म, राष्ट्रीय धर्म इत्यादि की भयंकर भावनाओं द्वारा कलिका-रूप में ही कुचल डाला है ! सोचो तो सही, अभी भी तुम्हारे दिमाग में अपने बाल्य-काल के धर्म या अपने देश के धर्म के संबंध में कैसे कैसे अंधविश्वास भरे पड़े हैं, और उनसे कितना अनिष्ट हो रहा है एवं हो सकता है. मनुष्य यह नहीं जानता कि उससे कितना अनिष्ट हो सकता है.
       आदर्श बहुत से हैं. मुझे कोई अधिकार नहीं कि मैं तुमको बताऊँ कि तुम्हारा आदर्श क्या होना चाहिए, या कि तुम्हारे गले जबरदस्ती कोई आदर्श मढ़ दूँ. मेरा तो यह कर्तव्य होगा कि तुम्हारे सम्मुख मैं इन विभिन्न आदर्शों को रख दूँ, और तुमको अपनी प्रकृति के अनुसार जो आदर्श सबसे अधिक अनुकूल जँचे, उसे ही तुम ग्रहण करो और उसी और अनवरत प्रयत्न करो. वही तुम्हारा 'इष्ट' है, वही तुम्हारा विशेष आदर्श है.
       इस तरह हम देखते हैं कि एक सामूहिक धर्म कभी नहीं हो सकता. धर्म का यथार्थ कार्य तो स्वयं अपने ही सोचने का विषय है...

       (विवेकानन्द साहित्य, अद्वैत आश्रम, कोलकाता; नवम खंड, प्रथम अध्याय)  

टिप्पणियाँ

  1. यह सीरीज बहुत जरूरी है, इसकी शुरुआत करके आपने अच्छा किया. विवेकानंद के धर्म, राष्ट्र और संस्कृति संबंधी विचारों को सामने लाने की कोशिश हर एक प्रकार से करनी चाहिए. क्योंकि आज विवेकानंद दिग्भ्रमित और सांप्रदायिकता फैलाने वाली शक्तियों के मंसूबों को पूरा करने वाले हथियार की तरह बन चुके हैं. उनके असली व्यक्तित्व और वैचारिक को सामने लाने की बेशक बहुत जरूरत है. वैसे ही जैसे कि गांधी... शुभ कामनाएं

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