किशोर मन की मासूम जिद को बयां करती किताब

"दीपक की चमक में आग भी है दुनिया ने कहा परवानों से परवाने मगर ये कहने लगे दीवाने तो जलकर देखेंगे..." एक पुरानी फिल्मी गीत के इन पंक्तियों को राजेंद्र कृष्ण ने लिखा था कभी. ये बोल पुराने तो हैं, लेकिन कितने पुराने ?? साल-दो साल, दस साल, बीस-पचास, सौ साल -- आखिर कितने पुराने !! फिर से सुनिये - 'परवाने मगर ये कहने लगे / दीवाने तो जलकर देखेंगे...' 'दीवाने तो जलकर देखेंगे !' - ये दावा आखिर कितना पुराना है. नि:संदेह पुरातन, सबसे पुराना. बेहोशी का अंधेरा जैसे ही छंटता है, होश की पहली किरण के साथ पहली घोषणा इसी बात की होती है कि 'देखेंगे !' इसमें जोखिम लेने एवं चुनौती की गूंज है लेकिन नफरत एवं घृणा जनित हिंसा अथवा आक्रमण की धमकी नहीं. इसमें प्रेममय सृजन हेतु कुर्बानी की जिद है. झूठी शान, झूठी इज्जत का अहंकार लिए एक पिता अपने बच्चों को दुनियादारी, व्यवहारिकता व समझदारी के नाम पर जब नफरत का पाठ पढ़ा रहा होता है तभी उस नासमझ बच्चे अथवा किशोर के अंदर कोमल सी जिद आकार लेने लगती है जिसे वह किशोर 'प्रेम' कहता है और मन ही मन दुहराता है -'देखेंगे...