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मैं लीद नहीं करता !

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मैं जा रही हूँ – उसने कहा जाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जाना हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है .        केदारनाथ सिंह के जाने के बाद उनकी ‘जीरे’ जैसी यह कविता लोगों के जुबान पर अनायास ही चली आयी. दूधनाथ सिंह के जाने की खौफ़नाक क्रिया के सदमे से हिंदी जगत उबरा भी नहीं था कि केदारनाथ सिंह ने भी जाने का फैसला कर लिया. अभी तो हम दूधनाथ सिंह को याद करते हुए भुवनेश्वर को पढ़ ही रहे थे , जिनके जीवन भर की कुल रचनाएं किसी के केवल एक उपन्यास की मोटाई का महज तीसरा या चौथा हिस्सा होगा; जिनकी कुल बारह कहानियाँ हैं – और इन बारह कहानियों की कुल लम्बाई-चौड़ाई व मोटाई आज के कथाकार की एक कहानी की चौथाई मात्र है. वैसे भी यह प्रलापों का दौर है, इसीलिए भुवनेश्वर को जानना-पढ़ना अधिक आवश्यक है. अपने सम्पादन में ‘भुवनेश्वर समग्र’ नाम से प्रकशित किताब में भुवनेश्वर की रचनाओं को प्रस्तुत करते हुए दूधनाथ सिंह की पहली पंक्ति है – “भुवनेश्वर प्रेमचंद की खोज हैं.” प्रेमचंद का यह खोज जीनियस था; प्रेमचंद के दूसरे जीनियस थे – जैनेन्द्र कुमार.     ...