धर्म की राह पर...
वह लिखता था. उसने लिखा – “घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाय.” यह कुफ्र था. यह दीन के खिलाफ़ था. कैसी वाहियात बात लिखी उसने – हे ईश्वर ! उसे माफ़ मत करना , उसका इलाज करना ! माना वह लिखता था लेकिन क्या कोई कुछ भी लिख सकता है. कोई अपनी कलम से ईश्वर की अवमानना करने की जुर्रत कैसे कर सकता है. क्या किसी कलमकार अथवा लिखने वाले को मालूम नहीं कि मंदिर हो या मस्जिद – उसमें ईश्वर वास करता है. इसलिये मंदिर जाने से इतर कोई और पवित्र काम हो सकता है भला ! मंदिर में जो भी होता है , वह पवित्र होता है – पुण्य का कार्य होता है. और ईश्वर के भक्त के लिए कोई मंदिर दूर कैसे हो सकता है, भला ! इसलिये अब हम दीन के हिसाब से चलते हैं. अब हम पूजा-अर्चना करते हैं और बच्चे ?? बच्चे तो रोते ही रहते हैं , उन्होंने रोने के लिए जन्म लिया है. ऐसे में उन्हें हंसाना भला कौन सा पवित्र काम है. अब हमनें कुछ और यात्रा कर ली है. अब तक हम बच्चों को रोते हुए छोड़ आगे तीर्थ यात्रा पर निकल जाया करते थे लेकिन अब हम उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं – कुछ भी ! इस कुछ भी करने का कारण भी ब...