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धर्म की राह पर...

वह लिखता था. उसने लिखा – “घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाय.” यह कुफ्र था. यह दीन के खिलाफ़ था. कैसी वाहियात बात लिखी उसने – हे ईश्वर ! उसे माफ़ मत करना , उसका इलाज करना ! माना वह लिखता था लेकिन क्या कोई कुछ भी लिख सकता है. कोई अपनी कलम से ईश्वर की अवमानना करने की जुर्रत कैसे कर सकता है. क्या किसी कलमकार अथवा लिखने वाले को मालूम नहीं कि मंदिर हो या मस्जिद – उसमें ईश्वर वास करता है. इसलिये मंदिर जाने से इतर कोई और पवित्र काम हो सकता है  भला ! मंदिर में जो भी होता है , वह पवित्र होता है – पुण्य का कार्य होता है. और ईश्वर के भक्त के लिए कोई मंदिर दूर कैसे हो सकता है, भला ! इसलिये अब हम दीन के हिसाब से चलते हैं. अब हम पूजा-अर्चना करते हैं और बच्चे ?? बच्चे तो रोते ही रहते हैं , उन्होंने रोने के लिए जन्म लिया है. ऐसे में उन्हें हंसाना भला कौन सा पवित्र काम है. अब हमनें कुछ और यात्रा कर ली है. अब तक हम बच्चों को रोते हुए छोड़ आगे तीर्थ यात्रा पर निकल जाया करते थे लेकिन अब हम उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं – कुछ भी ! इस कुछ भी करने का कारण भी ब...

नाम छुपाना, आखिर क्यों ?

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दिसम्बर 2014 की एक सर्द सुबह अखबार के साथ घर के अन्दर एक खबर दाखिल हुई. बीते रात भारत की राजधानी में टैक्सी के अंदर एक पच्चीस वर्षीय युवती के साथ टैक्सी ड्राईवर ने बलात्कार किया था. बलात्कार की घटना हमारे महान भारत के लिये कोई ख़ास खबर नहीं होती जब तक कि पाशविकता का अतिरेक न हो जाय, फिर बीती रात घटी उस छोटी (???) सी घटना का दिलोदिमाग पर छाने का मतलब देर तक नहीं समझ पाया और खासकर तब जब कि वह युवती शराब के नशे में धुत्त थी. रात के ग्यारह बजे पब से एक खुबसूरत महिला का नशे की हालत में निकल, अकेले टैक्सी में सफ़र करना और फिर लगभग बेहोशी की दशा में बेपरवाह सो जाने पर ड्राईवर अगर स्वयं को नियंत्रित कर पाने में असफल रहा तो ऐसा कौन सा बड़ा जुर्म हो गया ! आखिर वह इतनी बेपरवाह कैसे हो सकती है ? हया की प्रतीक इतनी बेहया कैसे हो सकती है ? उस पर अगर लड़कों से गलती हो जाय तो फांसी की माँग – यह कैसा न्याय ? जन प्रतिनिधि और अगर वे नेता जी हों फिर तो अपनों की भावना का ख्याल रखना एक नैतिक दायित्व बन जाता है. इसीलिए अपने दायित्वों का निर्वहण करते हुए भावनाओं की अभिव्यक्ति भी लाजिमी है –   ...