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सामने से मेरे : चंद्रेश्वर

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हम तो बड़े सीधे-साधे लोग हैं. जमाना कितना बेईमान है. कितनी लूट-खसोट मची है. उनको देखिये कितनी मौज में हैं. गाड़ी-बँगला, बैंक-बैलेंस कितना कुछ इकट्ठा कर लिया साहब. कितनी शान में जी रहे हैं.        हमारे अंदर मौज में जीने की, गाड़ी-बँगले की चाहत पलती रही और इस कारण बेईमानी की भी. लेकिन बेईमानी करने हेतु वांछित हिम्मत न होने के कारण अंदर ही अंदर कुंठा बढ़ती चली गयी.        हम ईमानदारी की दुहाई देकर बेईमानों को कोसते रहे और हमारी कुंठा, हीन-भावना बढ़ती रही.        हम बड़े उदार लोग हैं और वे कितने आतताई ! उनका आतंक बढ़ता जा रहा – इतना कि अब अपने अपने-आप को बचा पाना मुश्किल है. हमारा संस्कार, हमारा धर्म कितना उदार है. इसके बरक्स वे ? वे फैलते जा रहे हैं और हम सिकुड़ते जा रहे हैं.        उदारता की दुहाई देकर संकीर्णता को कोसते रहे और हमारी कुंठा बढ़ती रही.        असल में न तो हमारा ईमानदार होना सच था, न तो उनका बेईमान होना. न तो हमारी उदार...