आदमी को प्यास लगती है -- ज्ञानेन्द्रपति

ज्ञानेन्द्रपति कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में जो एक हैंडपम्प है भरी दोपहर वहाँ दो जने पानी पी रहे हैं अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाये जा रहा है हैंडपम्प का हत्था दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार मार्च-अख़ीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलाने लगा है, कण्ठ रहने लगा है हरदम ख़ुश्क ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं ये दोनों वे ही सेल्समैन हैं थोड़ी देर पहले बजायी थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी और दरवाजा खोलते ही मैं झुँझलाया था भरी दोपहर बाज़ार की गोहार घर के चैन को झिंझोड़े यह बेजा ख़लल मुझे बर्दाश्त नहीं 'दुनिया-भर में नंबर एक' -- या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए भेड़े थे मैंने किवाड़ और अपने भारी थैले उठाये शर्मिन्दा, वे उतरते गये थे सीढ़ियाँ ऊपर से देखता हूँ हैंडपम्प पर वे पानी पी रहे हैं उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर तनिक कुम्हलायी उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया ...