आओ, प्रेम पर लिखते हैं ! - भाग - दो
वागर्थ के अक्तूबर अंक में वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति की एक बड़ी प्यारी कविता छपी है – ‘दो से शुरू करें’. कविता का सन्दर्भ दूसरा है. इसलिये उस कविता को अपनी सुविधानुसार उद्धृत करने की गुस्ताख़ी पर माफी मांग लेते हैं. वैसे भी कविताओं व शब्दों को अपनी समझ के अनुसार समझने की स्वतंत्रता तो रहती ही है, भले ही समझदार होने का दावा करने वाले विद्वान फतवा जारी करते रहें. और बात जब प्रेम की हो तो वैसे भी हर ओर प्रेम ही नजर आता है. तो ऐसे में प्रेम से भरे एक हृदय को यह कविता अलग ढंग से छूती है – “छाती से लगा लूं उर में भर लूँ शीतलता तृप्त कर लूँ तल तक स्वयं को” यह जानते हुए भी कि सब कुछ मेरे ही अंदर है – प्यास भी, अमृत घट भी; तुमसे लिपटने की चाहत रहती है – “दुर्लभ अवसर क्यों छोडूँ .......... गले मिलने का गले-गले गलने मिलने का ...