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काँच की छत और खुले आसमान का भ्रम

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आज अनायास ही बचपन की धुंधलाती स्मृति पटल पर दीना मुसहर की घरवाली चली आयी. वह दीना मुसहर के साथ काम करने आती थी और शाम को जब घर जाने लगती तो माँ उसे पौने दो सेर अनाज देती. पौने दो सेर – एक सेर दीना के लिए और तीन पाव उसकी घरवाली के लिए. दीना मुसहर की घरवाली अकेली नहीं थी, और भी औरतें आती थीं – सब एक पाव अनाज कम पातीं और खुशी – खुशी अपने घर चली जातीं. कोई सवाल नहीं करता. किसी के पास कोई सवाल भी नहीं था सिवाय दीदी के. दीदी हमेशा प्रश्न करती रहती और सबके चेहरे पर उतराते भावों के मजे लेती. लोगों को उसके सवाल समझने के बावजूद समझ में नहीं आते और उसके ऊपर बगैर जवाब सुने उसका जोर से हँस पड़ना – सब बड़ा उलझाऊ होता था. ऐसे में जब भी माँ दीना मुसहर की घरवाली को पौने दो सेर अनाज की मजूरी देती, दीदी माँ से पूछती –        “माँ, दीना बो (दीना की घरवाली) को तीन पाव और दीना को एक सेर. बेचारी कितना काम करती है. बाहर जाकर देखो दीना खाली बैठा बीड़ी पी रहा होगा. इसको सवा सेर दिया करो.”        माँ की जगह दीना बो सफाई देती –    ...