तुम्हारे हिस्से का आलू

इस हफ्ते टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर छपी थी - एक बाप अपने ग्यारह महीने के बेटे को बेचकर मोबाइल खरीदता है. मोबाइल जरुरी है और ‘न्यू इंडिया’ में इसकी महिमा के क्या कहने. उस आदमी ने बेटे के बदले मिले रुपये से कुछ और भी किया था – प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ के नायकों की तरह. ‘कफ़न’ का कथानक प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ आज से बयासी साल पहले, 1935 में लिखी थी. सालों के बदलने से क्या बदलता है. बयासी साल पहले झोपड़ी के अन्दर एक महिला प्रसव पीड़ा से तड़प रही है और झोपड़ी के द्वार पर उसके पति व ससुर अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे हैं , जो वे किसी खेत से खोद लाये थे. वह तड़प रही है अकेली, रह-रहकर उसके मुँह से दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती है लेकिन उसकी कौन मदद करे. उसके अपनों – पति व ससुर, को भली-भांति अहसास है कि – “बचेगी नहीं”. लेकिन दोनों भुन रहे आलू के सामने से हिलते नहीं क्योंकि उन्हें भय है कि यदि एक झोपड़ी के अंदर गया तो दूसरा आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा. अंदर वह महिला तड़प – तड़प कर मर रही है और ये दोनों अलाव से आलू निकाल-निकाल कर जलते-जलते खा रहे हैं. कल से कुछ नहीं खाया है. अब इतना सब्र नहीं कि ठण...