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गंगा-बीती

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आमतौर पर हाल में प्रकाशित किसी किताब पर लिखने से बचना चाहता हूं। इसका कारण है कि ऐसी किसी कृति पर कुछ लिखने अथवा बोलने मात्र को आलोचना अथवा समीक्षा समझा जाने लगता है और मेरे अंदर आलोचना अथवा समीक्षा हेतु वांछित योग्यता व साहस का सर्वथा अभाव है। यह कार्य मुझे बेहद कठिन लगता है और इरिटेटिंग भी। इसके बरक्स किसी रचना में डूबना, उतराना बड़ा आनंद देता है। साथ ही किसी रचनाकार की पंक्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार उद्धृत करना भी अच्छा लगता है। यद्यपि अपनी सुविधा के अनुसार किन्हीं पंक्तियों का अर्थ अथवा भाव बदलना बदतमीजी व बेशर्मी की श्रेणी में आ सकता है, जाने-अनजाने यह गुस्ताखी हो जाती है। पाठकीय स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी गुस्ताखियों को माफी मिल सकती है। लेकिन यह माफी संभवत आलोचकों/समीक्षकों के लिए उपलब्ध नहीं होती - कहते हैं उनके अंदर संवेदनात्मक ज्ञान का एक न्यूनतम स्वीकार्य स्तर तो होना ही चाहिए। और पाठक !! वह पूर्णतः स्वतंत्र है, उसकी कोई बाध्यता नहीं, कोई न्यूनतम अहर्ता, कोई बंदिश नहीं; अनुशासन भी नहीं। इसीलिए पाठकीय स्वतंत्रता (या कि स्वच्छंदता - पूर्णतः अनुशासनहीन) की मस्ती के साथ किताब...

'कवि ने कहा' - ज्ञानेन्द्रपति

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मानव की चेतना यात्रा में सदियों से हमारे साथ एक दुर्घटना होती आयी है. यह दुर्घटना है - हमारा किसी विचारधारा विशेष के समर्थक के रूप में उभरना. हमें पता भी नहीं होता और हम ‘विचारधारा’ के किसी खेमें में शामिल हो अनायास ही असहिष्णुता और आतंक का खेल खेलने लगते हैं.  पक्ष और विपक्ष की यह लड़ाई जब सभ्यता के हर क्षेत्र - साहित्य, कला, संगीत में गहरे तक जड़ फैला चुकी हो, एक “ज्ञानेन्द्रपति” का यह दावा कि उसका पक्ष उसके पाठकों के पक्ष में विलीन हो चुका है तो निस्संदेह वह “ज्ञानेन्द्रपति” एकाकी रह जाता है. लगभग दसेक वर्षों तक बिहार सरकार में अधिकारी के रूप में कार्य करने के बाद कविता के मोहपाश में फंसे ज्ञानेन्द्रपति सब कुछ त्याग कविता के संग गंगातट - बनारस में बसे, तो कविता विविध रूप  में प्रकट हुई. हिंदी साहित्य के तमाम छोटे - बड़े खेमों से अलग ज्ञानेन्द्रपति ने तीन दशकों से अधिक की रचना यात्रा के सारांश – निवेदन के रूप में अपनी तिरासी कविताओं को 2007 में “कवि ने कहा” के रूप में भेंट करते हुए कहा था – “....... कविता बेशक अपने समय से जूझकर हासिल की जाती है, लेकिन वह उस काल – खण्ड ...