मस्जिद ढहा दे, मंदिर ढहा दे !

खिड़की खुली थी लेकिन रात गहरा रही थी. बाहर झाँक कर देखा, कुछ भी नहीं सूझा – रात के साथ-साथ अंधेरा भी गहरा गया था. किसी की आहट आ रही थी, शायद कोई है. यद्यपि अंधेरा गहरा था, मैंने उसे आते हुए देखा. वह ठीक खिड़की के सामने आकर खड़ी हो गई और फुसफुसाई – ‘बुल्लेशाह को जानते हो ?’ मैं चुप ! क्या बोलूं ! इतनी रात गए वह किसी बुल्लेशाह को लेकर आई थी. वह हंसी – ‘नहीं जानते न ! रात गहरा रही है और देर तक जागने के बाद भी सुबह नहीं हो रही. चलो कोई बात नहीं. यू–ट्यूब पर आबिदा परवीन बुल्लेशाह को गाती है, उसे सुनो – “मस्जिद ढहा दे, मंदिर ढहा दे; ढहा दे जो कुछ ढहैंदा इक किसे दा दिल का ढहावीं रब्ब दिलां विच रहंदा.” (“मस्जिद तोड़ दो, मंदिर तोड़ दो, तोड़ दो जो कुछ तोड़ सको; लेकिन किसी का दिल न तोड़ो, इन दिलों में ईश्वर रहता.”) कैसी बात करता है, यह आदमी ! इसे डर नहीं लगता क्या, ईश्वर से न डरे कोई बात नहीं लेकिन ईश्वर के रक्षकों से तो डरना चाहिए ? मंदिर-मस्जिद की खातिर कुछ भी किया जा सकता है, दिल तोड़ने की बात ही क्या ? बस्तियों को जला, जीते-जागते इंसानों के ख...