मैं पहुँची नहीं, आई हूँ !
सालों बाद वह टीकाचक में दिखी. लोगों ने कहा – ‘ आखिर तुम पहुँच ही गईं. ’ अलका मुस्कराई – ‘ नहीं , मैं पहुँची नहीं , आई हूँ. ’ लोगों को कुछ समझ में नहीं आया , उन्होंने ताने मारे – ‘ तुम सीधी बात क्यों नहीं करतीं और निर्लज्जता की हद तो देखो जरा – जब मातम मनाना चाहिये यह बेशर्म चहक रही है. ’ वह फिर मुस्कराई लेकिन कुछ कहा नहीं और अपने घर की ओर मुड़ गई. वह घर का ताला खोल रही थी , दुनिया अपनी खीज उतार रही थी – ‘ किस्मत के मारों को कौन समझाये – रानी के ठाठ थे इसके , नौकर-चाकर , गाड़ी-बंगला सब छोड़-छाड़ यह करमजली फिर से अपनी झोपड़ी वापस आ गई. ’ लोगों की भीड़ में तमाम ऐसे भी थे जो उससे सहानुभूति रखते थे – ‘ बेचारी , हे भगवान ऐसा किसी के साथ न हो. बेचारी की कोई मजबूरी रही होगी ; नहीं तो वैभव व समृद्धि कौन छोड़ना चाहेगा. ’ टीकाचक में , लोगों की भीड़ में मैं भी था – ‘ ब्लैंक ’ सा , भाव-शून्य लेकिन अलका बड़ी आकर्षक लग रही थी , एक अबूझ आभा से भरी हुई. मैं अभिभूत सा उसे निहार रहा था , ठीक उसी तरह जब गुजरे इतवार हिंदी साहित्य का एक अनोखा सितारा निजी बातचीत में कह रहा था – जमीन पर सोता हूँ ...