संदेश

ज्ञानेन्द्रपति लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आदमी को प्यास लगती है -- ज्ञानेन्द्रपति

चित्र
ज्ञानेन्द्रपति कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में  जो एक हैंडपम्प है  भरी दोपहर वहाँ दो जने पानी पी रहे हैं  अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाये जा रहा है हैंडपम्प का हत्था  दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से  छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार  मार्च-अख़ीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलाने लगा है,  कण्ठ रहने लगा है हरदम ख़ुश्क ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं  ये दोनों वे ही सेल्समैन हैं  थोड़ी देर पहले बजायी थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी  और दरवाजा खोलते ही मैं झुँझलाया था  भरी दोपहर बाज़ार की गोहार घर के चैन को झिंझोड़े  यह बेजा ख़लल मुझे बर्दाश्त नहीं  'दुनिया-भर में नंबर एक' -- या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए  भेड़े थे मैंने किवाड़  और अपने भारी थैले उठाये शर्मिन्दा, वे उतरते गये थे सीढ़ियाँ ऊपर से देखता हूँ  हैंडपम्प पर वे पानी पी रहे हैं  उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर  तनिक कुम्हलायी उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया ...

गंगा-बीती

चित्र
आमतौर पर हाल में प्रकाशित किसी किताब पर लिखने से बचना चाहता हूं। इसका कारण है कि ऐसी किसी कृति पर कुछ लिखने अथवा बोलने मात्र को आलोचना अथवा समीक्षा समझा जाने लगता है और मेरे अंदर आलोचना अथवा समीक्षा हेतु वांछित योग्यता व साहस का सर्वथा अभाव है। यह कार्य मुझे बेहद कठिन लगता है और इरिटेटिंग भी। इसके बरक्स किसी रचना में डूबना, उतराना बड़ा आनंद देता है। साथ ही किसी रचनाकार की पंक्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार उद्धृत करना भी अच्छा लगता है। यद्यपि अपनी सुविधा के अनुसार किन्हीं पंक्तियों का अर्थ अथवा भाव बदलना बदतमीजी व बेशर्मी की श्रेणी में आ सकता है, जाने-अनजाने यह गुस्ताखी हो जाती है। पाठकीय स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी गुस्ताखियों को माफी मिल सकती है। लेकिन यह माफी संभवत आलोचकों/समीक्षकों के लिए उपलब्ध नहीं होती - कहते हैं उनके अंदर संवेदनात्मक ज्ञान का एक न्यूनतम स्वीकार्य स्तर तो होना ही चाहिए। और पाठक !! वह पूर्णतः स्वतंत्र है, उसकी कोई बाध्यता नहीं, कोई न्यूनतम अहर्ता, कोई बंदिश नहीं; अनुशासन भी नहीं। इसीलिए पाठकीय स्वतंत्रता (या कि स्वच्छंदता - पूर्णतः अनुशासनहीन) की मस्ती के साथ किताब...

आओ, प्रेम पर लिखते हैं ! - भाग - दो

वागर्थ के अक्तूबर अंक में वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति की एक बड़ी प्यारी कविता छपी है – ‘दो से शुरू करें’. कविता का सन्दर्भ दूसरा है. इसलिये उस कविता को अपनी सुविधानुसार उद्धृत करने की गुस्ताख़ी पर माफी मांग लेते हैं. वैसे भी कविताओं व शब्दों को अपनी समझ के अनुसार समझने की स्वतंत्रता तो रहती ही है, भले ही समझदार होने का दावा करने वाले विद्वान फतवा जारी करते रहें. और बात जब प्रेम की हो तो वैसे भी हर ओर प्रेम ही नजर आता है. तो ऐसे में प्रेम से भरे एक हृदय को यह कविता अलग ढंग से छूती है –        “छाती से लगा लूं        उर में भर लूँ शीतलता        तृप्त कर लूँ तल तक स्वयं को” यह जानते हुए भी कि सब कुछ मेरे ही अंदर है – प्यास भी, अमृत घट भी; तुमसे लिपटने की चाहत रहती है –        “दुर्लभ अवसर क्यों छोडूँ        .......... गले मिलने का        गले-गले गलने मिलने का      ...

'कवि ने कहा' - ज्ञानेन्द्रपति

चित्र
मानव की चेतना यात्रा में सदियों से हमारे साथ एक दुर्घटना होती आयी है. यह दुर्घटना है - हमारा किसी विचारधारा विशेष के समर्थक के रूप में उभरना. हमें पता भी नहीं होता और हम ‘विचारधारा’ के किसी खेमें में शामिल हो अनायास ही असहिष्णुता और आतंक का खेल खेलने लगते हैं.  पक्ष और विपक्ष की यह लड़ाई जब सभ्यता के हर क्षेत्र - साहित्य, कला, संगीत में गहरे तक जड़ फैला चुकी हो, एक “ज्ञानेन्द्रपति” का यह दावा कि उसका पक्ष उसके पाठकों के पक्ष में विलीन हो चुका है तो निस्संदेह वह “ज्ञानेन्द्रपति” एकाकी रह जाता है. लगभग दसेक वर्षों तक बिहार सरकार में अधिकारी के रूप में कार्य करने के बाद कविता के मोहपाश में फंसे ज्ञानेन्द्रपति सब कुछ त्याग कविता के संग गंगातट - बनारस में बसे, तो कविता विविध रूप  में प्रकट हुई. हिंदी साहित्य के तमाम छोटे - बड़े खेमों से अलग ज्ञानेन्द्रपति ने तीन दशकों से अधिक की रचना यात्रा के सारांश – निवेदन के रूप में अपनी तिरासी कविताओं को 2007 में “कवि ने कहा” के रूप में भेंट करते हुए कहा था – “....... कविता बेशक अपने समय से जूझकर हासिल की जाती है, लेकिन वह उस काल – खण्ड ...