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होनी थी, हो गई !

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        तमाम हाहाकारी परिस्थितियों के बावजूद जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को जिम्मेदार न ठहराने की आम प्रवृत्ति ने दिलो-दिमाग में बहुत कुछ मथ कर रख दिया है. कोई तो जिम्मेदार होगा, कोई तो जिम्मेदारी लेगा; जब किसी की जिम्मेदारी नहीं तो कुर्सियों-सिंहासनों की जरूरत क्या है . जिम्मेदारी निर्धारित न करने अथवा अकाउंटेबिलिटी फिक्स न कर पाने की आम प्रवृत्ति विकसित कैसे होती है और इस प्रवृत्ति को इतनी ताकत कहाँ से मिलती है, इस पर विचार करने पर पाता हूँ कि इसके जड़ में ईश्वर व भक्ति की अवधारणा है. बचपन से हमारे अंदर ईश्वर भक्ति के संस्कार भरे जाते हैं और वह भक्त ही क्या जो ईश्वर पर सवाल खड़े करे और इसीलिए स्थितियों के प्रतिकूल होने पर उसके मुख से अनायास ही निकलता है, ‘भगवान परीक्षा ले रहा है.’ अब समझ में नहीं आता, भगवान क्या कोई परपीड़क है, क्या वह सैडिस्टिक पर्सनालिटी डिसऑर्डर (sadistic personality disorder) का मरीज है कि उसे दूसरों के कष्ट में मजा आता है. इस पर भक्तों का संस्कार कहता है कि आदमी अपने कर्मों का फल पाता है. यकीनन ऐसा हो सकता है लेकिन यदि ऐसा है ...