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मैं लीद नहीं करता !

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मैं जा रही हूँ – उसने कहा जाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जाना हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है .        केदारनाथ सिंह के जाने के बाद उनकी ‘जीरे’ जैसी यह कविता लोगों के जुबान पर अनायास ही चली आयी. दूधनाथ सिंह के जाने की खौफ़नाक क्रिया के सदमे से हिंदी जगत उबरा भी नहीं था कि केदारनाथ सिंह ने भी जाने का फैसला कर लिया. अभी तो हम दूधनाथ सिंह को याद करते हुए भुवनेश्वर को पढ़ ही रहे थे , जिनके जीवन भर की कुल रचनाएं किसी के केवल एक उपन्यास की मोटाई का महज तीसरा या चौथा हिस्सा होगा; जिनकी कुल बारह कहानियाँ हैं – और इन बारह कहानियों की कुल लम्बाई-चौड़ाई व मोटाई आज के कथाकार की एक कहानी की चौथाई मात्र है. वैसे भी यह प्रलापों का दौर है, इसीलिए भुवनेश्वर को जानना-पढ़ना अधिक आवश्यक है. अपने सम्पादन में ‘भुवनेश्वर समग्र’ नाम से प्रकशित किताब में भुवनेश्वर की रचनाओं को प्रस्तुत करते हुए दूधनाथ सिंह की पहली पंक्ति है – “भुवनेश्वर प्रेमचंद की खोज हैं.” प्रेमचंद का यह खोज जीनियस था; प्रेमचंद के दूसरे जीनियस थे – जैनेन्द्र कुमार.     ...

दूधनाथ सिंह व विवेकानंद को याद करते हुए...

हिंदी के वरिष्ठ व विशिष्ट साहित्यकार दूधनाथ सिंह नहीं रहे. इस रविवार दूधनाथ सिंह व विवेकानंद को साथ-साथ पढ़ रहा हूँ. 2003 में एक महत्वपूर्ण किताब आई थी – ‘ आख़िरी कलाम ’ . इस किताब की प्रस्तावना में दूधनाथ सिंह ने कितना सच लिखा था –        “...हमें इस बात का डर नहीं है कि लोग कितने बि खर जायेंगे , डर यह है कि लोग नितांत गलत कामों के लिए कितने बर्बर ढंग से संगठित हो जायेंगे. हमारे राजनीतिक जीवन की एक बहुत-बहुत भीतरी परिधि है , जहाँ ‘ सर्वानुमति का अवसरवाद ’ फल-फूल रहा है. वहाँ एक आधुनिक बर्बरता की चक्करदार आहट है. ऊपर से सबकुछ शुद्ध-बुद्ध , परम पवित्र , कर्मकांडी , एकान्तिक लेकिन सार्वजनिक , गहन लुभावन लेकिन उबकाई से भरा हुआ , ऑक्सीजनयुक्त लेकिन दमघोंटू , उत्तेजक लेकिन प्रशान्त – सारे छल एक साथ.”        सब कुछ फल-फूल रहा है. नितांत अकेलेपन में भी एक व्यक्ति भीड़ की तरह सोचने लगा है , भीड़ की तरह बोलने लगा है , भीड़ के खतरनाक कृत्यों को अंजाम देने लगा है. सब सही व कुछ भी गलत नहीं लगने के इस युवा दौर में हमनें अभी परस...